Narayaneeyam - Dasakam 87 (The Kuchela Episode)
https://youtu.be/AwQTQKlb7f8
http://youtu.be/Ja7OMmzBsyA
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Dashaka 87
कुचेलनामा भवत: सतीर्थ्यतां गत: स सान्दीपनिमन्दिरे द्विज: ।
त्वदेकरागेण धनादिनिस्स्पृहो दिनानि निन्ये प्रशमी गृहाश्रमी ॥१॥
त्वदेकरागेण धनादिनिस्स्पृहो दिनानि निन्ये प्रशमी गृहाश्रमी ॥१॥
कुचेल-नामा | Kuchela named |
भवत: सतीर्थ्यतां | with Thee (who was) a fellow disciple |
गत: स | went to, he |
सान्दिपनि-मन्दिरे | at sage Saandipani's hermitage |
द्विज: | that Braahmana |
त्वत्-एक-रागेण | with Thee steadily devoted |
धन-आदि-निस्स्पृह: | in wealth etc., desireless |
दिनानि निन्ये | days spent |
प्रशमी गृहाश्रमी | (as a) calm minded householder |
The Brahmin by the name Kuchela (Sudaamaa) was Thy fellow disciple in
the hermitage of sage Saandipini. He was totally devoted to Thee. A
house holder with a controlled mind and senses, he spent his days calmly
without any worldly desires of wealth etc.
समानशीलाऽपि तदीयवल्लभा तथैव नो चित्तजयं समेयुषी ।
कदाचिदूचे बत वृत्तिलब्धये रमापति: किं न सखा निषेव्यते ॥२॥
कदाचिदूचे बत वृत्तिलब्धये रमापति: किं न सखा निषेव्यते ॥२॥
समान-शीला-अपि | (being) of same nature even |
तदीय-वल्लभा | his wife |
तथा-एव नो | in the same manner did not |
चित्त-जयं समेयुषी | mind control achieve |
कदाचित्-ऊचे बत | once said O! |
वृत्ति-लब्धये | a livelihood to get |
रमापति: | the Consort of Laxmi |
किं न सखा | why do not your friend |
निषेव्यते | approach |
His wife who equalled him in nature , had not achieved the same level of
desirelessness as him. Once she asked him why should he not approach
his friend Krishna, the Consort of Laxmi, for getting some means of
livelihood.
इतीरितोऽयं प्रियया क्षुधार्तया जुगुप्समानोऽपि धने मदावहे ।
तदा त्वदालोकनकौतुकाद्ययौ वहन् पटान्ते पृथुकानुपायनम् ॥३॥
तदा त्वदालोकनकौतुकाद्ययौ वहन् पटान्ते पृथुकानुपायनम् ॥३॥
इति-ईरितम्-अयं | thus told he |
प्रियया क्षुधार्तया | by (his wife) troubled by hunger |
जुगुप्समान:-अपि | with revulsion even |
धने मद-आवहे | in wealth due to its arrogance bearing |
तदा त्वत्-आलोकन- | then, Thee to meet |
कौतुकात्-ययौ | eagerness (he) went |
वहन् पट-अन्ते | carrying in one corner of his cloth |
पृथुकान्-उपायनम् | beaten rice as offering |
Kuchela set off for Thy place more out of eagerness to meet Thee than
for acquiring a means of livelihood, as prodded by his wife, troubled by
hunger. He had a repulsiveness towards wealth because of its proneness
to generate pride and arrogance. He carried in a corner of his cloth
some beaten rice as an offering to Thee.
गतोऽयमाश्चर्यमयीं भवत्पुरीं गृहेषु शैब्याभवनं समेयिवान् ।
प्रविश्य वैकुण्ठमिवाप निर्वृतिं तवातिसम्भावनया तु किं पुन: ॥४॥
प्रविश्य वैकुण्ठमिवाप निर्वृतिं तवातिसम्भावनया तु किं पुन: ॥४॥
गत:-अयम्- | reaching he |
आश्च्र्यमयीम् | wonderous |
भवत्-पुरीम् | Thy city |
गृहेषु शैब्या-भवन | among the houses, Mitravrinda's house |
समेयिवान् | entered |
प्रविश्य | entering |
वैकुण्ठम्-इव- | Vaikuntha only |
आप निवृतिं | attained supreme peace |
तव-अति-सम्भावनया | by Thy lavish hospitality |
तु किम् पुन: | indeed what else more |
Kuchela reached Thy wonderful city and among the many houses, entered
the house of Mitravrindaa. As he did so he attained supreme peace as
though he had entered Vaikuntha only, more so by Thy lavishing
hospitality beyond description.
प्रपूजितं तं प्रियया च वीजितं करे गृहीत्वाऽकथय: पुराकृतम् ।
यदिन्धनार्थं गुरुदारचोदितैरपर्तुवर्ष तदमर्षि कानने ॥५॥
यदिन्धनार्थं गुरुदारचोदितैरपर्तुवर्ष तदमर्षि कानने ॥५॥
प्रपूजितं तं | well honoured (by Thee) he |
प्रियया च वीजितं | and by Thy consort fanned |
करे गृहीत्वा- | by hand taking |
अकथय: | (Thou) narrated |
पुराकृतम् | the incidents |
यत्-इन्धन-अर्थम् | like (when) for fire wood |
गुरु-दार-चोदितै:- | on the teacher's wife's behest |
अपर्तु-वर्षम् | in an unseasonal rain |
तत्-अमर्षि कानने | which was borne in the forest |
After a cordial reception by Thee as he was fanned by Thy consort, Thou
held his hands and recalled the old incidents. Like when at the behest
of the teacher's wife, Thou went togather to gather fire wood and were
caught in an unseasonal rain in the forest.
त्रपाजुषोऽस्मात् पृथुकं बलादथ प्रगृह्य मुष्टौ सकृदाशिते त्वया ।
कृतं कृतं नन्वियतेति संभ्रमाद्रमा किलोपेत्य करं रुरोध ते ॥६॥
कृतं कृतं नन्वियतेति संभ्रमाद्रमा किलोपेत्य करं रुरोध ते ॥६॥
त्रपाजुष:-अस्मात् | who was feeling shy, from him |
पृथुकम् बलात्-अथ | the flattened rice forcefully, then |
प्रगृह्य | snatching |
मुष्टौ सकृत्- | a fistful once |
आशिते त्वया | being eaten by Thee |
कृतं कृतं | enough enough |
ननु-इयत-इति | indeed this much thus |
संभ्रमात्-रमा | in consternation, Ramaa |
किल-उपेत्य | indeed approached |
करं रुरोध ते | and hand held back Thy |
Kuchela was feeling very shy and so Thou forcefully snatched the
flattened rice from him and ate a fistful. Just then in great
consternation Ramaa approached Thee and held back Thy hand saying that
that much was indeed enough.
भक्तेषु भक्तेन स मानितस्त्वया पुरीं वसन्नेकनिशां महासुखम् ।
बतापरेद्युर्द्रविणं विना ययौ विचित्ररूपस्तव खल्वनुग्रह: ॥७॥
बतापरेद्युर्द्रविणं विना ययौ विचित्ररूपस्तव खल्वनुग्रह: ॥७॥
भक्तेषु भक्तेन | in the devotees, devoted (by Thee) |
स मानित:- | he was honoured |
त्वया पुरीं वसन्- | by Thee, in the city staying |
एक निशाम् | for one night |
महा-सुखम् | very happily |
बत-अपरेद्यु:- | alas! Next day |
द्रविणं विना ययौ | wealth without went away |
विचित्र-रूप:-तव | of strange forms are Thy |
खलु-अनुग्रह: | indeed blessings |
He was greatly honoured by Thee the devoted of the devotees, and very
happily stayed in Thy city for one night. The next day he went away alas
without any wealth. Strange indeed are Thy forms of blessings.
यदि ह्ययाचिष्यमदास्यदच्युतो वदामि भार्यां किमिति व्रजन्नसौ ।
त्वदुक्तिलीलास्मितमग्नधी: पुन: क्रमादपश्यन्मणिदीप्रमालयम् ॥८॥
त्वदुक्तिलीलास्मितमग्नधी: पुन: क्रमादपश्यन्मणिदीप्रमालयम् ॥८॥
यदि हि-अयाचिष्यम्- | if indeed I had asked |
अदास्यत्-अच्युत: | would have given Krishna |
वदामि भार्यां किम्-इति | will tell my wife what, thus |
व्रजन्-असौ | walking he |
त्वत्-उक्ति-लीला-स्मित- | Thy talks and playful smile |
मग्न-धी: पुन: | with mind immersed in then |
क्रमात्-अपश्यत्- | gradually saw |
मणि-दीप्रम्-आलयम् | with gems resplendent house |
Had I but asked for wealth Krishna would surely have given. What shall I
tell my wife?' Thus telling himself he walked along immersed in the
memories of Thy talks and Thy playful smile. By and by he reached a gem
studded splendorous mansion.
किं मार्गविभ्रंश इति भ्रंमन् क्षणं गृहं प्रविष्ट: स ददर्श वल्लभाम् ।
सखीपरीतां मणिहेमभूषितां बुबोध च त्वत्करुणां महाद्भुताम् ॥९॥
सखीपरीतां मणिहेमभूषितां बुबोध च त्वत्करुणां महाद्भुताम् ॥९॥
किं मार्ग-विभ्रंश | what is the way lost |
इति भ्रंमन् क्षणं | thus wondering for a moment |
गृहं प्रविष्ट: | the house entering |
स ददर्श वल्लभाम् | he saw his wife |
सखी-परीतां | by ladies in waiting surrounded |
मणि-हेम-भूषितां | with gems and gold ornaments adorned |
बुबोध च | realised also |
त्वत्-करुणां | Thy compassion |
महा-अद्भुताम् | most wonderful |
What have I lost my way?' Thus wondering for a moment he entered the
house. He saw his wife adorned in ornaments of gems and gold and
surrounded by ladies in waiting. He then realised Thy grace and
compassion and the most wonderful results of the same.
स रत्नशालासु वसन्नपि स्वयं समुन्नमद्भक्तिभरोऽमृतं ययौ ।
त्वमेवमापूरितभक्तवाञ्छितो मरुत्पुराधीश हरस्व मे गदान् ॥१०॥
त्वमेवमापूरितभक्तवाञ्छितो मरुत्पुराधीश हरस्व मे गदान् ॥१०॥
स रत्न-शालासु | he in the gem studded building |
वसन्-अपि स्वयं | residing though, himself |
समुन्नमद्-भक्ति-भर:- | incessently growing devotion, full of it |
अमृतं ययौ | lliberation attained |
त्वम्-एवम्-आपूरित- | Thou in this manner fulfilled |
भक्त-वाञ्छित: | the devotees' desires |
मरुत्पुराधीश | O Lord of Guruvaayur! |
हरस्व मे गदान् | rid me of my ailments |
Residing in the begemmed mansion he himself was full of devotion for
Thee which incessently grew of its own. In the end he attained
liberation. Thou in such a manner fulfilled the desire of Thy devotee. O
Lord of Guruvaayur! Be pleased to rid me of my ailments.
दशक ८७
कुचेलनामा भवत: सतीर्थ्यतां गत: स सान्दीपनिमन्दिरे द्विज: ।
त्वदेकरागेण धनादिनिस्स्पृहो दिनानि निन्ये प्रशमी गृहाश्रमी ॥१॥
त्वदेकरागेण धनादिनिस्स्पृहो दिनानि निन्ये प्रशमी गृहाश्रमी ॥१॥
कुचेल-नामा | कुचेल (सुदामा) नामक |
भवत: सतीर्थ्यतां | आपका सहपाठी |
गत: स | जा कर वह |
सान्दीपनि-मन्दिरे | सान्दीपनि के आश्रम में |
द्विज: | (वह) ब्राह्मण |
त्वत्-एक-रागेण | आपमें ही एकमात्र अनुरागी (होने के कारण) |
धन-आदि-निस्स्पृह: | धन आदि (लालसाओं) के अनिच्छुक |
दिनानि निन्ये | दिनों को व्यतीत करते थे |
प्रशमी गृहाश्रमी | जितेन्द्रिय हो कर गृहस्थ (पालन करते थे) |
सान्दीपनि मुनि के आश्रम में कुचेल नामक आपके सहपाठी ब्राह्मण एकमात्र आप
ही में अनुराग रखते थे। इसी कारण वे धन आदि लालसाओं से निस्स्पृह थे। वे
जितेन्द्रिय थे और गृहस्थ आश्रम का निर्वाह करते हुए दिन व्यतीत करते थे।
समानशीलाऽपि तदीयवल्लभा तथैव नो चित्तजयं समेयुषी ।
कदाचिदूचे बत वृत्तिलब्धये रमापति: किं न सखा निषेव्यते ॥२॥
कदाचिदूचे बत वृत्तिलब्धये रमापति: किं न सखा निषेव्यते ॥२॥
समान-शीला-अपि | (उनके) समान ही शील (स्वभाव) होने पर भी |
तदीय-वल्लभा | उनकी पत्नी |
तथा-एव नो | उस प्रकार का नहीं |
चित्त-जयं समेयुषी | चित्त पर अधिकार पा सकी |
कदाचित्-ऊचे बत | एक समय बोली अहो! |
वृत्ति-लब्धये | जीविका प्राप्ति के लिए |
रमापति: | लक्ष्मीपति |
किं न सखा | क्यों नही (अपने) सखा की |
निषेव्यते | सेवा में जाते |
उनकी पत्नी उनके समान ही शील स्वभाव की थी परन्तु अपने चित्त पर वैसा
अधिकार नहीं पा सकी थीं। एक समय अपने पति को बोली, 'जीविका अर्जन के लिए आप
अपने सखा लक्ष्मीपति की सेवा में क्यों नहीं जाते।'
इतीरितोऽयं प्रियया क्षुधार्तया जुगुप्समानोऽपि धने मदावहे ।
तदा त्वदालोकनकौतुकाद्ययौ वहन् पटान्ते पृथुकानुपायनम् ॥३॥
तदा त्वदालोकनकौतुकाद्ययौ वहन् पटान्ते पृथुकानुपायनम् ॥३॥
इति-ईरित:-अयं | इस प्रकार कहे जाने पर यह |
प्रियया क्षुधार्तया | प्रिया के द्वारा क्षुधा पीडिता |
जुगुप्समान:-अपि | तिरस्कार करते हुए भी |
धने मद-आवहे | धन का उन्मत्त बना देने के कारण |
तदा त्वत्-आलोकन- | उस समय आपको देखने की |
कौतुकात्-ययौ | उत्सुकता से चले गए |
वहन् पट-अन्ते | ले कर कपडे के कोने में |
पृथुकान्-उपायनम् | चिडवा भेंट स्वरूप |
इस प्रकार क्षुधा पीडिता पत्नी के कहने पर, धन की भर्त्सना करते हुए भी, कि
वह उन्मत्त बना देता है, कुचेल मात्र आपके दर्शन की उत्कट इच्छासे प्रेरित
हो कर द्वारका गए। भेंट स्वरूप वे अपने वस्त्र के कोने में चिडवा लेते गए।
गतोऽयमाश्चर्यमयीं भवत्पुरीं गृहेषु शैब्याभवनं समेयिवान् ।
प्रविश्य वैकुण्ठमिवाप निर्वृतिं तवातिसम्भावनया तु किं पुन: ॥४॥
प्रविश्य वैकुण्ठमिवाप निर्वृतिं तवातिसम्भावनया तु किं पुन: ॥४॥
गत:-अयम्- | जा कर वे |
आश्चर्यमयीम् | अद्भुत |
भवत्-पुरीम् | अपकी पुरी को |
गृहेषु शैब्या-भवन | अनेक घरों में से, मित्रवृन्दा के घर में |
समेयिवान् | प्रवेश कर गए |
प्रविश्य | प्रवेश करने पर |
वैकुण्ठम्-इव- | वैकुण्ठ के समान |
आप निवृतिं | प्राप्त किया परमानन्द |
तव-अति-सम्भावनया | आपके अत्यधिक आदर सत्कार से |
तु किम् पुन: | तो (और) कितना अधिक |
अद्भुत आश्चर्य चकित कर देने वाली द्वारका पुरी पहुंच कर, वहां के अनेक
घरों में से वे मित्रवृन्दा के घर में प्रवेश कर गए। वहां प्रवेश करने पर
उन्हें वैकुण्ठ के समान ही पमानन्द प्राप्त हुआ। पुन: आपके अत्यधिक आदर
सत्कार से तो और कितना अवर्णनीय आनन्द प्राप्त हुआ होगा!!
प्रपूजितं तं प्रियया च वीजितं करे गृहीत्वाऽकथय: पुराकृतम् ।
यदिन्धनार्थं गुरुदारचोदितैरपर्तुवर्षं तदमर्षि कानने ॥५॥
यदिन्धनार्थं गुरुदारचोदितैरपर्तुवर्षं तदमर्षि कानने ॥५॥
प्रपूजितं तं | सुसत्कृत उनको |
प्रियया च वीजितं | और प्रिया (रुक्मिणी) के पंखा झलने पर |
करे गृहीत्वा- | हाथ (अपने हाथ) में लेकर |
अकथय: | कहा (आपने) |
पुराकृतम् | पहले की हुई (घटना) |
यत्-इन्धन-अर्थम् | जैसे इन्धन के लिए |
गुरु-दार-चोदितै:- | गुरू पत्नी के द्वारा भेजे गए |
अपर्तु-वर्षम् | ऋतु के विपरीत वर्षा |
तत्-अमर्षि कानने | वह हुई थी वन में |
उनका सुस्त्कार कर के, आपकी प्रिया पत्नी रुक्मिणी पंखा झलने लगीं। तब आपने
उनका हाथ अपने हाथ में ले कर पुरानी घटनाओं का स्मरण कराया, जैसे एक बार
जब गुरु पत्नि के आदेश से आप दोनों जंगल में इन्धन लाने गए थे तब वहां वन
में, ऋतु के विपरीत वर्षा होने लगी थी।
त्रपाजुषोऽस्मात् पृथुकं बलादथ प्रगृह्य मुष्टौ सकृदाशिते त्वया ।
कृतं कृतं नन्वियतेति संभ्रमाद्रमा किलोपेत्य करं रुरोध ते ॥६॥
कृतं कृतं नन्वियतेति संभ्रमाद्रमा किलोपेत्य करं रुरोध ते ॥६॥
त्रपाजुष:-अस्मात् | लज्जित होते हुए उनसे |
पृथुकम् बलात्-अथ | चिडवे बलपूर्वक तब |
प्रगृह्य | छीन कर |
मुष्टौ सकृत्- | मुट्ठी एक |
आशिते त्वया | खा लेने पर आपके |
कृतं कृतं | बस बस |
ननु-इयत-इति | इतना ही पर्याप्त है इस प्रकार |
संभ्रमात्-रमा | ससम्भृत रुक्मिणी ने |
किल-उपेत्य | निस्सन्देह निकट आ कर |
करं रुरोध ते | हाथ रोक दिया आपका |
इस प्रकार के अप्रत्याशित सत्कार से संकुचित सुदामा से आपने बलपूर्वक चिडवे
छीन लिए। आपके एक मुट्ठी चिडवा खालेने पर ही, 'बस बस इतना पर्याप्त है'
कहते हुए ससम्भृत रुक्मिणी ने निकट आ कर आपका हाथ रोक लिया।
भक्तेषु भक्तेन स मानितस्त्वया पुरीं वसन्नेकनिशां महासुखम् ।
बतापरेद्युर्द्रविणं विना ययौ विचित्ररूपस्तव खल्वनुग्रह: ॥७॥
बतापरेद्युर्द्रविणं विना ययौ विचित्ररूपस्तव खल्वनुग्रह: ॥७॥
भक्तेषु भक्तेन | भक्तों में भक्त |
स मानित:- | वह सम्मानित हुए |
त्वया पुरीं वसन्- | आपके द्वारा, पुरी में रह कर |
एक निशाम् | एक रात्रि के लिए |
महा-सुखम् | अत्यन्त सुख से |
बत-अपरेद्यु:- | अहो! दूसरे दिन |
द्रविणं विना ययौ | धन के बिना चले गए |
विचित्र-रूप:-तव | अद्भुत रूपों की है |
खलु-अनुग्रह: | आपकी कृपा |
भक्तों में श्रेष्ठ भक्त रूप में आपके द्वारा सुसम्मानित हो कर एक रात्रि
के लिए आपके मित्र द्वारका में अत्यन्त सुख से रहे। दूसरे दिन अहो! बिना धन
के ही वे चले गए। अपकी कृपा भी कितने अद्भुत रूपों वाली होती है!
यदि ह्ययाचिष्यमदास्यदच्युतो वदामि भार्यां किमिति व्रजन्नसौ ।
त्वदुक्तिलीलास्मितमग्नधी: पुन: क्रमादपश्यन्मणिदीप्रमालयम् ॥८॥
त्वदुक्तिलीलास्मितमग्नधी: पुन: क्रमादपश्यन्मणिदीप्रमालयम् ॥८॥
यदि हि-अयाचिष्यम्- | यदि ही याचना करता (मैं) |
अदास्यत्-अच्युत: | दे देते अच्युत (कृष्ण) |
वदामि भार्यां किम्-इति | कहूंगा क्या पत्नी को इस प्रकार |
व्रजन्-असौ | चलते हुए यह |
त्वत्-उक्ति-लीला-स्मित- | आपकी बातें, (आपकी) लीला, (आपकी) मुस्कान में |
मग्न-धी: पुन: | निमग्न हो जाता (था) उनका मन, फिर |
क्रमात्-अपश्यत्- | क्रमश: देखा |
मणि-दीप्रम्-आलयम् | मणियों से देदीप्यमान भवन |
यदि, याचना करता तो अवश्य ही अच्युत कृष्ण मुझे धन दे देते। अब पत्नी को
क्या कहूंगा।' इस प्रकार सोचते हुए, आपकी ही बातों में, आप ही की लीलाओं
में, आप ही की मुस्कान में मग्न चित्त वे मार्ग में चले जाते थे। क्रमश:
उन्होने देखा - मणियों से देदीप्यमान एक भवन।
किं मार्गविभ्रंश इति भ्रंमन् क्षणं गृहं प्रविष्ट: स ददर्श वल्लभाम् ।
सखीपरीतां मणिहेमभूषितां बुबोध च त्वत्करुणां महाद्भुताम् ॥९॥
सखीपरीतां मणिहेमभूषितां बुबोध च त्वत्करुणां महाद्भुताम् ॥९॥
किं मार्ग-विभ्रंश | क्या मार्ग भूल गया |
इति भ्रंमन् क्षणं | इस प्रकार भ्रमित हो कर क्षण भर के लिए |
गृहं प्रविष्ट: | घर में प्रवेश कर के |
स ददर्श वल्लभाम् | उन्होंने देखा पत्नी को |
सखी-परीतां | सखियों से घिरी हुई |
मणि-हेम-भूषितां | मणियों और सोने के आभूषणों से भूषित |
बुबोध च | और समझ गए |
त्वत्-करुणां | आपकी करुणा को |
महा-अद्भुताम् | (जो) अत्यन्त ही विचित्र है |
उस भवन को देख कर क्षण भर के लिए सुदामा को भ्रम हुआ कि कहीं वे मार्ग तो
नहीं भूल गए। फिर घर में प्रवेश कर के उन्होने अपनी पत्नी को देखा जो सोने
और मणियों के आभूषणों से भूषित थी और सखियां उन्हें घेरे हुए थीं। तब
सुदामा को आपकी अत्यन्त विचित्र करुणा का ज्ञान हुआ।
स रत्नशालासु वसन्नपि स्वयं समुन्नमद्भक्तिभरोऽमृतं ययौ ।
त्वमेवमापूरितभक्तवाञ्छितो मरुत्पुराधीश हरस्व मे गदान् ॥१०॥
त्वमेवमापूरितभक्तवाञ्छितो मरुत्पुराधीश हरस्व मे गदान् ॥१०॥
स रत्न-शालासु | वह मणिमय भवन में |
वसन्-अपि स्वयं | निवास करते हुए भी स्वयं |
समुन्नमद्-भक्ति-भर:- | (उनकी) विकसित होती गई भक्ति की प्रगाढता |
अमृतं ययौ | (और) वे मोक्ष को प्राप्त हुए |
त्वम्-एवम्-आपूरित- | आप ने इस प्रकार पूर्ण किया |
भक्त-वाञ्छित: | भक्त का मनोरथ |
मरुत्पुराधीश | हे मरुत्पुराधीश! |
हरस्व मे गदान् | हर लीजिए मेरे रोगों को |
उस मणिमय भवन में निवास करते हुए भी स्वयं सुदामा की भक्ति की प्रगाढता
क्रमश: विकसित होती गई, और वे मोक्ष को प्राप्त हुए। इस प्रकार अपने भक्तों
के मनोरथों को परिपूर्ण करने वाले, हे मरुत्पुराधीश! आप मेरे रोगों को हर
लीजिए।
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