Narayaneeyam - Dasakam 51 (Slaying of Aghasura)
https://youtu.be/Pg5az9dIwfg
http://youtu.be/UZew7PEyMAE
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Dashaka 51
कदाचन व्रजशिशुभि: समं भवान्
वनाशने विहितमति: प्रगेतराम् ।
समावृतो बहुतरवत्समण्डलै:
सतेमनैर्निरगमदीश जेमनै: ॥१॥
वनाशने विहितमति: प्रगेतराम् ।
समावृतो बहुतरवत्समण्डलै:
सतेमनैर्निरगमदीश जेमनै: ॥१॥
कदाचन | once |
व्रजशिशुभि: समं | along with the children of Gokul |
भवान् वन-अशने | Thou, eating in the woods (pinic) |
विहित-मति: | making up the mind |
प्रगेतराम् समावृत: | early in the morning surrounded by |
बहुतर-वत्स-मण्डलै: | many herds of calves |
सतेमनै:-निरगमत्- | with eatables set out |
ईश जेमनै: | O Lord! (also taking along) cooked rice |
Once Thou decided to have a picnic in the woods. Along with the children
of Gokul and surrounded by a large herd of calves, Thou set out early
in the morning. O Lord Thou also took along eatables, cooked rice and
other delicacies.
विनिर्यतस्तव चरणाम्बुजद्वया-
दुदञ्चितं त्रिभुवनपावनं रज: ।
महर्षय: पुलकधरै: कलेबरै-
रुदूहिरे धृतभवदीक्षणोत्सवा: ॥२॥
दुदञ्चितं त्रिभुवनपावनं रज: ।
महर्षय: पुलकधरै: कलेबरै-
रुदूहिरे धृतभवदीक्षणोत्सवा: ॥२॥
विनिर्यत: तव | Thy having set out |
चरण-अम्बुज-द्वयात्- | from Thy two lotus like feet |
उदञ्चितं | risen up |
त्रिभुवन-पावनं रज: | (that which) sanctifies the three worlds, dust |
महर्षय: पुलकधरै: | the great sages with horripillation |
कलेबरै:-उदूहिरे | on their bodies received |
धृत-भवत्-ईक्षण- | holding Thy sight |
उत्सवा: | as celebration |
When Thou set out for the woods, from Thy lotus like two feet the dust
arose which sanctifies the three worlds. The great sages received that
dust on their bodies with great joy and horripilation as they feasted
their eyes on Thy sight.
प्रचारयत्यविरलशाद्वले तले
पशून् विभो भवति समं कुमारकै: ।
अघासुरो न्यरुणदघाय वर्तनी
भयानक: सपदि शयानकाकृति: ॥३॥
पशून् विभो भवति समं कुमारकै: ।
अघासुरो न्यरुणदघाय वर्तनी
भयानक: सपदि शयानकाकृति: ॥३॥
प्रचारयति- | grazing |
अविरल-शाद्वले तले | on the thick grass land |
पशून् विभो | the cattle, O Lord! |
भवति समं कुमारकै: | Thee with the lads |
अघासुर: न्यरुणत्- | Aghaasura blocked |
अघाय वर्तनी | for an evil deed the path |
भयानक: सपदि | most terrifying, suddenly |
शयानक-आकृति: | in a python form |
Thou and the lads were grazing the cattle on the thick grass lands.
Suddenly the most terrifying demon Aghaasura, in the form of a
formidable python, with an evil intention blocked the way.
महाचलप्रतिमतनोर्गुहानिभ-
प्रसारितप्रथितमुखस्य कानने ।
मुखोदरं विहरणकौतुकाद्गता:
कुमारका: किमपि विदूरगे त्वयि ॥४॥
प्रसारितप्रथितमुखस्य कानने ।
मुखोदरं विहरणकौतुकाद्गता:
कुमारका: किमपि विदूरगे त्वयि ॥४॥
महाचल-प्रतिम-तनो:- | with a mountain like body |
गुहा-निभ-प्रसारित- | cave like spread out |
प्रथित-मुखस्य | extended mouth |
कानने | in the forest |
मुख-उदरं | in the mouth cavity |
विहरण-कौतुकात्- | to explore in eagerness |
गता: कुमारका: | entered the lads |
किम्-अपि | (when) somewhat |
विदूरगे त्वयि | ahead had gone, Thee |
Thou had gone a little ahead. The lads mistook the huge body of the
Asura for a mountain and its large spread out mouth for a cave. In their
eagerness to explore the woods, they entered the python's open mouth.
प्रमादत: प्रविशति पन्नगोदरं
क्वथत्तनौ पशुपकुले सवात्सके ।
विदन्निदं त्वमपि विवेशिथ प्रभो
सुहृज्जनं विशरणमाशु रक्षितुम् ॥५॥
क्वथत्तनौ पशुपकुले सवात्सके ।
विदन्निदं त्वमपि विवेशिथ प्रभो
सुहृज्जनं विशरणमाशु रक्षितुम् ॥५॥
प्रमादत: प्रविशति | by mistake, had entered |
पन्नग-उदरं | the snake's belly |
क्वथत्-तनौ | (they) felt heat on their bodies |
पशुपकुले सवात्सके | the Gopa boys along with the calves |
विदन्-इदम् त्वम्-अपि | knowing this, Thou also |
विवेशिथ प्रभो | entered O Lord! |
सुहृत्-जनं | the friend folk |
विशरणम्- | who were helpless |
आशु रक्षितुम् | immediately to save |
The Gopa boys along with the calves had entered the belly of the snake
by mistake and started to feel the heat therein. O Lord! Apprehending
the situation, Thou also entered immediately to save the helpless
friends.
गलोदरे विपुलितवर्ष्मणा त्वया
महोरगे लुठति निरुद्धमारुते ।
द्रुतं भवान् विदलितकण्ठमण्डलो
विमोचयन् पशुपपशून् विनिर्ययौ ॥६॥
महोरगे लुठति निरुद्धमारुते ।
द्रुतं भवान् विदलितकण्ठमण्डलो
विमोचयन् पशुपपशून् विनिर्ययौ ॥६॥
गल-उदरे | in the throat's cavity |
विपुलित-वर्ष्मणा | with (Thy) increased body |
त्वया | by Thee |
महोरगे लुठति | (when) the python was wreething |
निरुद्ध-मारुते | because of the obstruction of the breath |
द्रुतं भवान् | quickly Thou |
विदलित-कण्ठ-मण्डल: | tearing asunder the neck portion |
विमोचयन् पशुप-पशून् | released the Gopa boys and the calves |
विनिर्ययौ | and came out |
In the cavity of the throat of the python, Thou increased Thy size of
Thy body, thus obstructing its breath. It began to wreeth in agony, then
Thou tore open its neck portion and releasing the Gopa boys and the
calves, Thou also came out.
क्षणं दिवि त्वदुपगमार्थमास्थितं
महासुरप्रभवमहो महो महत् ।
विनिर्गते त्वयि तु निलीनमञ्जसा
नभ:स्थले ननृतुरथो जगु: सुरा: ॥७॥
महासुरप्रभवमहो महो महत् ।
विनिर्गते त्वयि तु निलीनमञ्जसा
नभ:स्थले ननृतुरथो जगु: सुरा: ॥७॥
क्षणं दिवि | for an instant, in the sky |
त्वत्-उपगम-अर्थम्-आस्थितं | Thy emergence awaiting |
महा-असुर-प्रभवम्- | from the great Asura emerging |
अहो मह: महत् | Oh! A brilliance great |
विनिर्गते त्वयि तु | came out as Thou |
निलीनम्-अञ्जसा | merged immediately (into Thee only) |
नभ:-स्थले | in the skies |
ननृतु:-अथ: | danced and then |
जगु: सुरा: | sang the gods |
A great brilliance emerged from the Asura and rose, in the sky and
awaited Thy emerging from the body of the python. Oh! What a wonder, as
soon as Thou came out the brilliance merged into Thee, while the gods
danced and sang.
सविस्मयै: कमलभवादिभि: सुरै-
रनुद्रुतस्तदनु गत: कुमारकै: ।
दिने पुनस्तरुणदशामुपेयुषि
स्वकैर्भवानतनुत भोजनोत्सवम् ॥८॥
रनुद्रुतस्तदनु गत: कुमारकै: ।
दिने पुनस्तरुणदशामुपेयुषि
स्वकैर्भवानतनुत भोजनोत्सवम् ॥८॥
सविस्मयै: | wonderstruck |
कमलभव-आदिभि: | Brahamaa and other |
सुरै:-अनुद्रुत: | gods (watching and) following (Thee) |
तदनु गत: | after that (Thou) went |
कुमारकै: दिने पुन:- | with the Gopa boys (when) the day again |
तरुण-दशाम्-उपेयुषि | youthful state attained (it became noon) |
स्वकै: भवान्- | with (Thy) own people Thou |
अतनुत भोजन-उत्सवम् | carried out the food celebration (picnic lunch) |
Brahmaa and other gods were wonderstruck and watched Thee and followed
Thee in the skies. After that Thou went with the Gopa boys when the day
had reached noontime and with Thy own people Thou celebrated the food
festival, the picnic lunch.
विषाणिकामपि मुरलीं नितम्बके
निवेशयन् कबलधर: कराम्बुजे ।
प्रहासयन् कलवचनै: कुमारकान्
बुभोजिथ त्रिदशगणैर्मुदा नुत: ॥९॥
निवेशयन् कबलधर: कराम्बुजे ।
प्रहासयन् कलवचनै: कुमारकान्
बुभोजिथ त्रिदशगणैर्मुदा नुत: ॥९॥
विषाणिकाम्-अपि | the horn and also |
मुरलीं नितम्बके | the flute, in the waist band |
निवेशयन् | tucking |
कबलधर: कराम्बुजे | a ball of rice holding in the lotus like hand |
प्रहासयन् | making (them) laugh |
कलवचनै: | by humorous talks |
कुमारकान् बुभोजिथ | the boys, (Thou) ate |
त्रिदशगणै: | by the gods |
मुदा नुत: | joyfully praised |
The horn and the flute were tucked in Thy waist band. Thou were holding a
ball of rice in Thy lotus like hand and provoked peals of laughter
among the boys by Thy humorous talks. As Thou took Thy meal the gods
joyfully sang Thy praises.
सुखाशनं त्विह तव गोपमण्डले
मखाशनात् प्रियमिव देवमण्डले ।
इति स्तुतस्त्रिदशवरैर्जगत्पते
मरुत्पुरीनिलय गदात् प्रपाहि माम् ॥१०॥
मखाशनात् प्रियमिव देवमण्डले ।
इति स्तुतस्त्रिदशवरैर्जगत्पते
मरुत्पुरीनिलय गदात् प्रपाहि माम् ॥१०॥
सुख-अशनम् तु -इह | the happy meal indeed here |
तव गोप-मण्डले | to Thee amidst the Gopas |
मख-अशनात् | than the offerings of the sacrifices |
प्रियम्-इव | is more pleasing |
देव-मण्डले | amidst the gods |
इति स्तुत:-त्रिदशवरै:- | thus praised by the great gods |
जगत्पते | O Lord of the universe! |
मरुत्पुरीनिलय | residing in Guruvaayur |
गदात् प्रपाहि माम् | from ailments save me |
O Lord of the Universe! The great gods praised Thee saying that the meal
taken happily with the Gopa boys gave Thee more pleasure than the
sacrificial offerings which Thou had received with the gods. O Thou
Residing in Guruvaayur! Save me from my ailments.
दशक ५१
कदाचन व्रजशिशुभि: समं भवान्
वनाशने विहितमति: प्रगेतराम् ।
समावृतो बहुतरवत्समण्डलै:
सतेमनैर्निरगमदीश जेमनै: ॥१॥
वनाशने विहितमति: प्रगेतराम् ।
समावृतो बहुतरवत्समण्डलै:
सतेमनैर्निरगमदीश जेमनै: ॥१॥
कदाचन | एक बार |
व्रजशिशुभि: समं | व्रज के बालकों के साथ |
भवान् वन-अशने | आप वन में खाने के लिये |
विहित-मति: | निश्चय मन में कर के |
प्रगेतराम् समावृत: | भोर बेला में घिरे हुए |
बहुतर-वत्स-मण्डलै: | बहुत से गोवत्सों के समूह से |
सतेमनै:-निरगमत्- | (ले कर) खाद्य व्यञ्जन निकल पडे |
ईश जेमनै: | हे ईश! भात भी (ले कर) |
हे ईश! व्रज के बालकों के साथ वन में भोजन करने का मन में विचार कर के, एक
बार, भोर बेला में, बहुत से गोवत्सों के समूहों से घिरे हुए, स्वादु खाद्य
व्यञ्जन और भात ले कर निकल पडे।
विनिर्यतस्तव चरणाम्बुजद्वया-
दुदञ्चितं त्रिभुवनपावनं रज: ।
महर्षय: पुलकधरै: कलेबरै-
रुदूहिरे धृतभवदीक्षणोत्सवा: ॥२॥
दुदञ्चितं त्रिभुवनपावनं रज: ।
महर्षय: पुलकधरै: कलेबरै-
रुदूहिरे धृतभवदीक्षणोत्सवा: ॥२॥
विनिर्यत: तव | जाते हुए आपके |
चरण-अम्बुज-द्वयात्- | चरण कमल युगल से |
उदञ्चितं | उठी हुई |
त्रिभुवन-पावनं रज: | त्रिभुवन को पावन करने वाली धूल को |
महर्षय: पुलकधरै: | महर्षियों ने रोमञ्चित होते हुए |
कलेबरै:-उदूहिरे | (अपने) शरीरों पर ग्रहण किया |
धृत-भवत्-ईक्षण- | धारण कर के आपके दर्शन को |
उत्सवा: | उत्सव के समान |
चलने से आपके चरण कमल युगल से उठी हुई त्रिभुवन को पावन करने वाली धूल को
ऋषियों ने पुलकित हो कर अपने शरीरों पर धारण किया और आपके दर्शन का उत्सव
मनाया।
प्रचारयत्यविरलशाद्वले तले
पशून् विभो भवति समं कुमारकै: ।
अघासुरो न्यरुणदघाय वर्तनी
भयानक: सपदि शयानकाकृति: ॥३॥
पशून् विभो भवति समं कुमारकै: ।
अघासुरो न्यरुणदघाय वर्तनी
भयानक: सपदि शयानकाकृति: ॥३॥
प्रचारयति- | चराते हुए |
अविरल-शाद्वले तले | घनी घास वाले भूतल पर |
पशून् विभो | पशुओं को हे विभो! |
भवति समं कुमारकै: | आप के साथ कुमार भी |
अघासुर: न्यरुणत्- | अघासुर ने रोक लिया |
अघाय वर्तनी | पपाप कर्म करने के लिये मार्ग को (जब) |
भयानक: सपदि | भयंकर अचानक |
शयानक-आकृति: | अजगर की आकृति में |
हे विभो! जब आप कुमारों के साथ घनी घास वाले भूतल पर पशुओं को चरा रहे थे
उस समय अघासुर ने अजगर की भयंकर आकृति धारण कर पाप कर्म करने के लिये मार्ग
रोक लिया।
महाचलप्रतिमतनोर्गुहानिभ-
प्रसारितप्रथितमुखस्य कानने ।
मुखोदरं विहरणकौतुकाद्गता:
कुमारका: किमपि विदूरगे त्वयि ॥४॥
प्रसारितप्रथितमुखस्य कानने ।
मुखोदरं विहरणकौतुकाद्गता:
कुमारका: किमपि विदूरगे त्वयि ॥४॥
महाचल-प्रतिम-तनो:- | पर्वत के समान तन वाला |
गुहा-निभ-प्रसारित- | गुफा के समान फैलाये हुए |
प्रथित-मुखस्य | बडे मुख वाले उसको |
कानने | वन में |
मुख-उदरं | मुख के भीतर |
विहरण-कौतुकात्- | विहार करने के लिये उत्सुक |
गता: कुमारका: | गये कुमार गण |
किम्-अपि | कुछ भी |
विदूरगे त्वयि | दूर गये थे आप |
आप कुछ दूर आगे चले गये थे। उसके विशाल तन को पर्वत, और फैलाये हुए विशाल
मुख को कन्दरा समझ कर, वे वन में विचरण करने के कुतुहल से कुमार उसमें घुस
गये।
प्रमादत: प्रविशति पन्नगोदरं
क्वथत्तनौ पशुपकुले सवात्सके ।
विदन्निदं त्वमपि विवेशिथ प्रभो
सुहृज्जनं विशरणमाशु रक्षितुम् ॥५॥
क्वथत्तनौ पशुपकुले सवात्सके ।
विदन्निदं त्वमपि विवेशिथ प्रभो
सुहृज्जनं विशरणमाशु रक्षितुम् ॥५॥
प्रमादत: प्रविशति | प्रमाद से घुस जाने से |
पन्नग-उदरं | अजगर के पट में |
क्वथत्-तनौ | जलते हुए तन वाले |
पशुपकुले सवात्सके | गोपकुमारों के बछडों सहित |
विदन्-इदम् त्वम्-अपि | जानते हुए यह आप भी |
विवेशिथ प्रभो | घुस गये हे प्रभो! |
सुहृत्-जनं | मित्र जनों |
विशरणम्- | के शरण |
आशु रक्षितुम् | तुरन्त रक्षा करने के लिये |
बछडों के सहित गोपकुमारों के प्रमादवश अजगर के पेट में घुस जाने पर उनके तन
जलने लगे। मित्र जनों के शरण हे प्रभो! यह सब जानते हुए आप भी तुरन्त उनकी
रक्षा करने के लिये अन्दर घुस गये।
गलोदरे विपुलितवर्ष्मणा त्वया
महोरगे लुठति निरुद्धमारुते ।
द्रुतं भवान् विदलितकण्ठमण्डलो
विमोचयन् पशुपपशून् विनिर्ययौ ॥६॥
महोरगे लुठति निरुद्धमारुते ।
द्रुतं भवान् विदलितकण्ठमण्डलो
विमोचयन् पशुपपशून् विनिर्ययौ ॥६॥
गल-उदरे | गले के भीतर में |
विपुलित-वर्ष्मणा | बढाते हुए शरीर से |
त्वया | आपके द्वारा |
महोरगे लुठति | महान अजगर के छटपटाने से |
निरुद्ध-मारुते | रुक जाने से प्राण वायु के |
द्रुतं भवान् | शीघ्रता से आपने |
विदलित-कण्ठ-मण्डल: | चीरते हुए कण्ठ प्रदेश को |
विमोचयन् पशुप-पशून् | छुडा कर गोपों और बछडों को |
विनिर्ययौ | निकल आए |
उस विशाल अजगर के गले के भीतर आपने अपने शरीर को बढा लिया जिससे उसकी प्राण
वायु रुक गई और वह छटपटाने लगा। तब शीघ्रता से आपने उसके कण्ठ प्रदेश को
फाड डाला और गोपों और बछडों को छुडा कर निकल आए।
क्षणं दिवि त्वदुपगमार्थमास्थितं
महासुरप्रभवमहो महो महत् ।
विनिर्गते त्वयि तु निलीनमञ्जसा
नभ:स्थले ननृतुरथो जगु: सुरा: ॥७॥
महासुरप्रभवमहो महो महत् ।
विनिर्गते त्वयि तु निलीनमञ्जसा
नभ:स्थले ननृतुरथो जगु: सुरा: ॥७॥
क्षणं दिवि | क्षण मात्र के लिये आकाश में |
त्वत्-उपगम-अर्थम्-आस्थितं | आपके निकलने की प्रतीक्षा में रुका रहा |
महा-असुर-प्रभवम्- | महान असुर से निकला हुआ |
अहो मह: महत् | अहो! महान तेज |
विनिर्गते त्वयि तु | निकल जाने पर आपके तब फिर |
निलीनम्-अञ्जसा | विलीन हो गया तुरन्त (आप ही में) |
नभ:-स्थले | आकाश स्थल में |
ननृतु:-अथ: | नाचने लगे तब |
जगु: सुरा: | गाने लगे देवता |
अहो! उस विशाल असुर से निकला हुआ महान तेज क्षण मात्र के लिये आपके निकलने
की प्रतीक्षा में आकाश में रुका रहा। आपके निकलते ही वह आप ही में विलीन हो
गया। आकाश मे स्थित देवता नाचने और गाने लगे।
सविस्मयै: कमलभवादिभि: सुरै-
रनुद्रुतस्तदनु गत: कुमारकै: ।
दिने पुनस्तरुणदशामुपेयुषि
स्वकैर्भवानतनुत भोजनोत्सवम् ॥८॥
रनुद्रुतस्तदनु गत: कुमारकै: ।
दिने पुनस्तरुणदशामुपेयुषि
स्वकैर्भवानतनुत भोजनोत्सवम् ॥८॥
सविस्मयै: | विस्मय सहित |
कमलभव-आदिभि: | ब्रह्मा आदि |
सुरै:-अनुद्रुत: | देवताओं के द्वारा पीछा करते हुए |
तदनु गत: | उसके बाद आप चले गये |
कुमारकै: दिने पुन:- | गोप कुमारों के साथ जब दिन फिर से |
तरुण-दशाम्-उपेयुषि | तरुण दशा को प्राप्त हुआ (मध्याह्न हुआ) |
स्वकै: भवान्- | स्वजनों के साथ आपने |
अतनुत भोजन-उत्सवम् | प्रारम्भ किया भोजनोत्सव |
ब्रह्मा आदि देवता सविस्मय आपको देखते हुए आपके पीछे चलने लगे। दिन के तरुण
दशा प्राप्त करने पर, अर्थात, मध्याह्न होने पर, आप गोप कुमारों और
स्वजनों के साथ चले गये और भोजनोत्सव प्रारम्भ किया।
विषाणिकामपि मुरलीं नितम्बके
निवेशयन् कबलधर: कराम्बुजे ।
प्रहासयन् कलवचनै: कुमारकान्
बुभोजिथ त्रिदशगणैर्मुदा नुत: ॥९॥
निवेशयन् कबलधर: कराम्बुजे ।
प्रहासयन् कलवचनै: कुमारकान्
बुभोजिथ त्रिदशगणैर्मुदा नुत: ॥९॥
विषाणिकाम्-अपि | सींग और |
मुरलीं नितम्बके | मुरली को कटि प्रदेश में |
निवेशयन् | खोंस कर |
कबलधर: कराम्बुजे | ग्रास ले कर करकमल में |
प्रहासयन् | हंसाते हुए |
कलवचनै: | हास्यपूर्ण बातों से |
कुमारकान् बुभोजिथ | कुमारों को, आपने खाया |
त्रिदशगणै: | देवों के द्वारा |
मुदा नुत: | मोद से स्तुति किये जाते हुए |
आपने सींग और मुरली को अपने कटि प्रदेश में खोंस लिया और करकमल में ग्रास
ले कर हास्यपूर्ण बातों से कुमारों को हंसाते हुए खाना आरम्भ किया।
प्रमुदित देवगण आपकी स्तुति करने लगे।
सुखाशनं त्विह तव गोपमण्डले
मखाशनात् प्रियमिव देवमण्डले ।
इति स्तुतस्त्रिदशवरैर्जगत्पते
मरुत्पुरीनिलय गदात् प्रपाहि माम् ॥१०॥
मखाशनात् प्रियमिव देवमण्डले ।
इति स्तुतस्त्रिदशवरैर्जगत्पते
मरुत्पुरीनिलय गदात् प्रपाहि माम् ॥१०॥
सुख-अशनम् तु -इह | यहां तो सुख से भोजन करना |
तव गोप-मण्डले | आपका गोप मण्डली के बीच |
मख-अशनात् | यज्ञ भोजन से (अधिक) |
प्रियम्-इव | प्रिय ही है |
देव-मण्डले | देव मण्डल में |
इति स्तुत:-त्रिदशवरै:- | इस प्रकार स्तुतित देवों के द्वारा |
जगत्पते | हे जगत्पते! |
मरुत्पुरीनिलय | मरुत्पुरी निवासी! |
गदात् प्रपाहि माम् | रोगों से रक्षा करें मेरी |
' यहां गोप मण्डली के बीच भोजन करना ही आपको देव मण्डल में यज्ञ भोजन करने
से अधिक प्रिय है'। हे जगत्पति! इस प्रकार देवों ने आपकी स्तुति की। हे
मरुत्पुरी निवासिन! रोगों से मेरी सुरक्षा करें।
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