Narayaneeyam - Dasakam 66 (Delighting the Gopikas)
https://youtu.be/gJG4DDPargc
http://youtu.be/uiMyIr7bYAY
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Dashaka 66
उपयातानां सुदृशां कुसुमायुधबाणपातविवशानाम् ।
अभिवाञ्छितं विधातुं कृतमतिरपि ता जगाथ वाममिव ॥१॥
अभिवाञ्छितं विधातुं कृतमतिरपि ता जगाथ वाममिव ॥१॥
उपयातानां | who had come |
सुदृशां | the beautiful women |
कुसुमायुध- | (whom) Cupid's |
बाण-पात- | arrows strike |
विवशानाम् | (had made) helpless |
अभिवाञ्छितं | desire |
विधातुं | to fulfil |
कृतमति:-अपि | having decided though |
ता: जगाथ | to them spoke |
वामम्-इव | unfavourable like |
Thou had decided to fulfil the desire of the beautiful women who had
come to Thee. They were helpless as they were struck by Cupid's arrow
for Thee. Yet Thou first spoke to them in an unfavourable manner.
गगनगतं मुनिनिवहं श्रावयितुं जगिथ कुलवधूधर्मम् ।
धर्म्यं खलु ते वचनं कर्म तु नो निर्मलस्य विश्वास्यम् ॥२॥
धर्म्यं खलु ते वचनं कर्म तु नो निर्मलस्य विश्वास्यम् ॥२॥
गगन-गतं | waiting in the skies |
मुनि-निवहं | the host of sages |
श्रावयितुं | to make them hear |
जगिथ | (Thou) stated |
कुल-वधू-धर्मम् | the housewives' duties |
धर्म्यम् खलु | in accordance of Dharma indeed |
ते वचनं | Thy words |
कर्म तु नो | actions but not |
निर्मलस्य | of Thee who are pure |
विश्वास्यम् | (are) to be followed |
To the hearing of the sages assembled in the skies, Thou stated the
duties of the housewives, for the benefit of the world. Indeed, Thy
words are to be followed for they are in accordance with the Dharma. But
the actions of Thee who are ever pure, should not be practiced by
others, because Thy actions do not always conform to the good and bad
standards of the world.
आकर्ण्य ते प्रतीपां वाणीमेणीदृश: परं दीना: ।
मा मा करुणासिन्धो परित्यजेत्यतिचिरं विलेपुस्ता: ॥३॥
मा मा करुणासिन्धो परित्यजेत्यतिचिरं विलेपुस्ता: ॥३॥
आकर्ण्य ते | hearing Thy |
प्रतीपां वाणीम्- | unfavourable speech |
एणीदृश: | the doe eyed damsels |
परं दीना: | very much grief striken |
मा मा | do not O do not |
करुणासिन्धो | O Thou ocean of compassion |
परित्यज-इति- | foresake thus |
अचिरं | for long |
विलेपु:-ता: | pleaded they |
On hearing Thy unfavourable speech, those doe eyed women were very much
grief striken. For long did they plead saying 'O Thou ocean of
compassion, do not, O do not foresake us.'
तासां रुदितैर्लपितै: करुणाकुलमानसो मुरारे त्वम् ।
ताभिस्समं प्रवृत्तो यमुनापुलिनेषु काममभिरन्तुम् ॥४॥
ताभिस्समं प्रवृत्तो यमुनापुलिनेषु काममभिरन्तुम् ॥४॥
तासां रुदितै:- | by their weeping |
लपितै: | (and) pleading |
करुणा-आकुल- | with pity moved |
मानस: | Thy mind |
मुरारे त्वम् | O Slayer of Mur! Thou |
ताभि:-समम् | with them |
प्रवृत्त: | set out |
यमुना-पुलिनेषु | on the Yamunaa sand banks |
कामम्-अभिरन्तुम् | desiring to sport freely |
O Thou! Slayer of Mura! Moved with pity by their weeping and pleading,
Thou set out to sport freely with them on the sand banks of Yamunaa
river.
चन्द्रकरस्यन्दलसत्सुन्दरयमुना तटान्तवीथीषु ।
गोपीजनोत्तरीयैरापादितसंस्तरो न्यषीदस्त्वम् ॥५॥
गोपीजनोत्तरीयैरापादितसंस्तरो न्यषीदस्त्वम् ॥५॥
चन्द्रकर- | the moon light |
स्यन्द-लसत्- | flowing and shining |
सुन्दर- | beautifully |
यमुना-तटान्त- | on the Yamunaa banks |
वीथीषु | and the sand banks |
गोपीजन- | the Gopikaas |
उत्तरीयै:- | (by their) upper garment |
आपादित-संस्तर: | spread out bed |
न्यषीद:-त्वम् | sat down Thou |
The sand banks of Yamunaa was lit by beautifully flowing and shining
moon light. There Thou sat down on the bed which was made by the
Gopikaas by spreading out their upper garment.
सुमधुरनर्मालपनै: करसंग्रहणैश्च चुम्बनोल्लासै: ।
गाढालिङ्गनसङ्गैस्त्वमङ्गनालो कमाकुलीचकृषे ॥६॥
गाढालिङ्गनसङ्गैस्त्वमङ्गनालो
सुमधुर्- | (with) sweet |
नर्म-आलपनै: | playful talks |
कर-संग्रहणै:-च | and by hands holding |
चुम्बन-उल्लासै: | and by the joy of kisses |
गाढ-आलिङ्गन-सङ्गै:- | and by close hearty embraces |
त्वम्- | Thou |
अङ्गना-लोकम्- | the women folk |
आकुली-चकृषे | delighted immensely |
By Thy sweet and playful talks, by holding of hands, by the joy of
kisses, and by close hearty embraces, Thou delighted the women folk
immensely.
वासोहरणदिने यद्वासोहरणं प्रतिश्रुतं तासाम् ।
तदपि विभो रसविवशस्वान्तानां कान्त सुभ्रुवामदधा: ॥७॥
तदपि विभो रसविवशस्वान्तानां कान्त सुभ्रुवामदधा: ॥७॥
वासो-हरण-दिने | on the day when the clothes were stolen |
यत्-वासो-हरणम् | that stealing of clothes |
प्रतिश्रुतं तासाम् | was promised to them (to the gopis) |
तत्-अपि विभो | that also O Lord! |
रस-विवश-स्वान्तानां | to bliss overcome minds |
कान्त | O Charming One! |
सुभ्रुवाम्- | (to them) the beautiful eyed ones |
अदधा: | Thou gave (the promise) |
On the day of the stealing of clothes, O Lord! Thou had promised to them
the stealing of clothes (the removal of the sense of ego). That also, O
charming One! Thou gave to the beautiful eyed women, whose minds were
overcome with bliss.
कन्दलितघर्मलेशं कुन्दमृदुस्मेरवक्त्रपाथोजम् ।
नन्दसुत त्वां त्रिजगत्सुन्दरमुपगूह्य नन्दिता बाला: ॥८॥
नन्दसुत त्वां त्रिजगत्सुन्दरमुपगूह्य नन्दिता बाला: ॥८॥
कन्दलित- | sprouting of |
घर्म-लेशं | perspiration drops(and with) |
कुन्द-मृदु-स्मेर- | jasmine like soft smile |
वक्त्र-पाथोजम् | and face like a lotus |
नन्दसुत त्वां | O Thee the son of Nanda |
त्रिजगत्-सुन्दरम्- | the most resplendent one in the worlds |
उपगूह्य | embracing |
नन्दिता: बाला: | were very delighted, the damsels |
O Son of Nanda! The most resplendent one in the three worlds!
Perspiration drops sprouted on Thy body. Thy lotus face was soft with a
jasmine like smile. The damsels embracing Thee were very delighted.
विरहेष्वङ्गारमय: शृङ्गारमयश्च सङ्गमे हि त्वम् नितरामङ्गारमयस्तत्र पुनस्सङ्गमेऽपि चित्रमिदम् ॥९॥
विरहेषु- | in seperation |
अङ्गारमय: | (Thou) are like burning charcoal |
शृङ्गारमय:-च | (and) love embodied |
सङ्गमे | in union |
हि त्वम् | indeed are Thou |
नितराम्- | absolutely |
अङ्ग-अरमय: | O Dear One! (Thou) gave delight |
तत्र पुन:- | there again |
सङ्गमे-अपि | in union also |
चित्रम्-इदम् | wonderful it is |
In seperation with Thee, Thou are unbearable as a burning charcoal. In
union indeed Thou are an absolute embodiment of love. O Dear One!
Wonderful it indeed is that in union also, here again the women were
delighted.
राधातुङ्गपयोधरसाधुपरीरम्भलोलु पात्मानम् ।
आराधये भवन्तं पवनपुराधीश शमय सकलगदान् ॥१०॥
आराधये भवन्तं पवनपुराधीश शमय सकलगदान् ॥१०॥
राधा-तुङ्ग-पयोधर- | Raadhaa's bulging breasts |
साधु-परीरम्भ- | nicely (to) embrace |
लोलुप-आत्मानम् | eager with a mind |
आराधये भवन्तं | (I) worship Thee |
पवनपुराधीश | O Lord of Guruvaayur! |
शमय सकल-गदान् | eradicate all the ailments. |
O Lord of Guruvaayur! I worship Thee who are eager in mind to nicely
embrace the bulging breasts of Raadhaa. I pray to Thee to eradicate all
the ailments.
दशक ६६
उपयातानां सुदृशां कुसुमायुधबाणपातविवशानाम् ।
अभिवाञ्छितं विधातुं कृतमतिरपि ता जगाथ वाममिव ॥१॥
अभिवाञ्छितं विधातुं कृतमतिरपि ता जगाथ वाममिव ॥१॥
उपयातानां | आई हुई को |
सुदृशां | सुनयनाओं को |
कुसुमायुध- | कुसुमायुध (कामदेव) के |
बाण-पात- | बाणों के आघात से |
विवशानाम् | विवश हुई को |
अभिवाञ्छितं | मनोवाञ्छित |
विधातुं | करने के लिए |
कृतमति:-अपि | कर के निश्चय भी |
ता: जगाथ | उनको कहा |
वामम्-इव | विपरीत की भांति |
कामदेव के बाणों से आहत हो कर विवश हुई आपके पास आई हुई सुनयनाओं को उनका
मनोवाञ्छित करने के लिए आप कृत निश्चय थे। फिर भी आपने उनको विपरीत भाव
में कहा।
गगनगतं मुनिनिवहं श्रावयितुं जगिथ कुलवधूधर्मम् ।
धर्म्यं खलु ते वचनं कर्म तु नो निर्मलस्य विश्वास्यम् ॥२॥
धर्म्यं खलु ते वचनं कर्म तु नो निर्मलस्य विश्वास्यम् ॥२॥
गगन-गतं | गगन में स्थित |
मुनि-निवहं | मुनि गण को |
श्रावयितुं | सुनाने के लिए |
जगिथ | (आपने) कहा |
कुल-वधू-धर्मम् | कुल वधुओं का धर्म |
धर्म्यम् खलु | धर्म के अनूकूल ही |
ते वचनं | आपके वचनों का |
कर्म तु नो | कर्मों का तो नहीं |
निर्मलस्य | (आप) परम निर्मल का |
विश्वास्यम् | अनुकरणीय है |
गगन में स्थित मुनि गण को सुनाने के लिए आपने कुल वधुओं को उनके धर्म का
उपदेश दिया। परम निर्मल आपके वचन सर्वदा धर्म सङ्गत होते हैं इस लिए
अनुकरणीय हैं, किन्तु कर्म सर्वथा अलौकिक होने के कारण अनुकरणीय नहीं हैं।
आकर्ण्य ते प्रतीपां वाणीमेणीदृश: परं दीना: ।
मा मा करुणासिन्धो परित्यजेत्यतिचिरं विलेपुस्ता: ॥३॥
मा मा करुणासिन्धो परित्यजेत्यतिचिरं विलेपुस्ता: ॥३॥
आकर्ण्य ते | सुन कर आपकी |
प्रतीपां वाणीम्- | प्रतिकूल वाणी को |
एणीदृश: | मृगनयनी वे |
परं दीना: | अत्यन्त दु:खी (हो कर कहने लगीं) |
मा मा | नहीं नहीं |
करुणासिन्धो | हे करुणासिन्धो! |
परित्यज-इति- | परित्याग करें इस प्रकार |
अचिरं | बहुत समय तक |
विलेपु:-ता: | विलाप करते रहीं वे |
आपकी प्रतिकूल वाणी सुन कर वे मृगनयनी गोपियां, अत्यन्त दु:खी हो कर कहने
लगीं, 'हे करुणासिन्धो! हमारा परित्याग न करें, न करें।' इस प्रकार वे
दीर्घ समय तक विलाप करती रहीं।
तासां रुदितैर्लपितै: करुणाकुलमानसो मुरारे त्वम् ।
ताभिस्समं प्रवृत्तो यमुनापुलिनेषु काममभिरन्तुम् ॥४॥
ताभिस्समं प्रवृत्तो यमुनापुलिनेषु काममभिरन्तुम् ॥४॥
तासां रुदितै:- | उन (गोपिकाओं) के रुदन से |
लपितै: | (और) करुण आग्रह से |
करुणा-आकुल- | करुणा से व्याकुल |
मानस: | मन वाले (आप) |
मुरारे त्वम् | हे मुरारे! आप |
ताभि:-समम् | उनके सङ्ग |
प्रवृत्त: | प्रस्तुत हो गए |
यमुना-पुलिनेषु | यमुना के तटों पर |
कामम्-अभिरन्तुम् | स्वेच्छा से रमण करने के लिए |
हे मुरारे! उन गोपिकाओं के रुदन और करुण आग्रहों से करुणा द्रवित हुआ आपका
मन विचलित हो गया। यमुना के तटों पर उनके सङ्ग स्वेच्छा से रमण करने के लिए
आप प्रस्तुत हो गए।
चन्द्रकरस्यन्दलसत्सुन्दरयमुनातटान्तवीथीषु ।
गोपीजनोत्तरीयैरापादितसंस्तरो न्यषीदस्त्वम् ॥५॥
गोपीजनोत्तरीयैरापादितसंस्तरो न्यषीदस्त्वम् ॥५॥
चन्द्रकर- | चन्द्र किरणों की |
स्यन्द-लसत्- | स्निग्धता से सुशोभित |
सुन्दर- | सुन्दर |
यमुना-तटान्त- | यमुना के तट के किनारे की |
वीथीषु | वीथियों में |
गोपीजन- | गोपीजनों ने |
उत्तरीयै:- | अपने उत्तरीय से |
आपादित-संस्तर: | बिछा दिया बिस्तर |
न्यषीद:-त्वम् | (और) आप बैठ गए |
यमुना के तट चन्द्र किरणो की स्निग्ध सुन्दरता भरी शोभा से आच्छादित थे।
तटान्त की वीथियों मे गोपिजन ने अपने उत्तरीय से बिस्तर बिछा दिया। आप उस
पर बैठ गए।
सुमधुरनर्मालपनै: करसंग्रहणैश्च चुम्बनोल्लासै: ।
गाढालिङ्गनसङ्गैस्त्वमङ्गनालोकमाकुलीचकृषे ॥६॥
गाढालिङ्गनसङ्गैस्त्वमङ्गनालोकमाकुलीचकृषे ॥६॥
सुमधुर्- | अत्यन्त मधुर |
नर्म-आलपनै: | परिहास पूर्ण बातों से |
कर-संग्रहणै:-च | (परस्पर) हाथों के पकडने से |
चुम्बन-उल्लासै: | और चुम्बन के उल्लास से |
गाढ-आलिङ्गन-सङ्गै:- | प्रगाढ आलिङ्गनों से |
त्वम्- | आपने |
अङ्गना-लोकम्- | गोपिकाओं को |
आकुली-चकृषे | अत्यन्त आकुलित कर दिया |
आपने गोपाङ्गनाओं को अपनी मधुर और हास्यपूर्ण बातों से, परस्पर हाथ पकडने
से, चुम्बन के उत्साह से और प्रगाढ आलिङ्गनों से अत्यन्त आकुलित कर दिया।
वासोहरणदिने यद्वासोहरणं प्रतिश्रुतं तासाम् ।
तदपि विभो रसविवशस्वान्तानां कान्त सुभ्रुवामदधा: ॥७॥
तदपि विभो रसविवशस्वान्तानां कान्त सुभ्रुवामदधा: ॥७॥
वासो-हरण-दिने | वस्त्रों के हरण के दिन |
यत्-वासो-हरणम् | जो वस्त्रों का हरण हुआ था |
प्रतिश्रुतं तासाम् | प्रतिज्ञा की थी उनसे (गोपियों से) |
तत्-अपि विभो | वह भी हे विभो! |
रस-विवश-स्वान्तानां | (आनन्द) रस से विवश चित्त वाली |
कान्त | हे कान्त! |
सुभ्रुवाम्- | सुभ्रू उनको |
अदधा: | दिया |
हे विभो! वस्त्र हरण के दिन आपने, उन सुभ्रू गोपियों से, वस्त्र के हरण की
प्रतिज्ञा की थी। हे कान्त! आपने आनन्द रस से विवश चित्त वाली गोपिकाओं को
उस वस्त्र के (माया के आवरण का) हरण (का आनन्द) दिया।
कन्दलितघर्मलेशं कुन्दमृदुस्मेरवक्त्रपाथोजम् ।
नन्दसुत त्वां त्रिजगत्सुन्दरमुपगूह्य नन्दिता बाला: ॥८॥
नन्दसुत त्वां त्रिजगत्सुन्दरमुपगूह्य नन्दिता बाला: ॥८॥
कन्दलित- | उभरे हुए |
घर्म-लेशं | स्वेद बिन्दुओं वाले |
कुन्द-मृदु-स्मेर- | कुन्द (पुष्प) के समान मधुर मुस्कान वाले |
वक्त्र-पाथोजम् | मुख पद्म वाले |
नन्दसुत त्वां | हे नन्द पुत्र! आपको |
त्रिजगत्-सुन्दरम्- | त्रिजगत में सर्वोत्तम सुन्दर को |
उपगूह्य | आलिङ्गन कर के |
नन्दिता: बाला: | परम आनन्दित हुई बालाएं |
हे नन्द पुत्र! त्रिजगत में सर्वोच्च सुन्दर हैं। स्वेद बिन्दु युक्त,
कुन्द कुसुम के समान मुस्कान से सुशोभित मुख पद्म वाले आपका आलिङ्गन कर के
वे बालाएं अत्यन्त आनन्दित हुईं।
विरहेष्वङ्गारमय: शृङ्गारमयश्च सङ्गमे हि त्वम्
नितरामङ्गारमयस्तत्र पुनस्सङ्गमेऽपि चित्रमिदम् ॥९॥
नितरामङ्गारमयस्तत्र पुनस्सङ्गमेऽपि चित्रमिदम् ॥९॥
विरहेषु- | विरह के समय |
अङ्गारमय: | अङ्गारमय (दाहक) |
शृङ्गारमय:-च | और शृङ्गारमय |
सङ्गमे | समागम के समय (में) |
हि त्वम् | भी आप |
नितराम्- | सर्वथा |
अङ्ग-अरमय: | हे अङ्ग! रमण किया |
तत्र पुन:- | वहां फिर |
सङ्गमे-अपि | संगम में भी |
चित्रम्-इदम् | आश्चर्य है यह |
विरह में आप अङ्गार स्वरूप (दाहक) प्रतीत होते हैं। और समागम के समय आप
सर्वथा शृङ्गारमय (शीतल) प्रतीत होते हैं। हे अङ्ग! आप गोपियों से समागम के
समय रागमय प्रतीत हुए। क्या आश्चर्य है?
राधातुङ्गपयोधरसाधुपरीरम्भलोलुपात्मानम् ।
आराधये भवन्तं पवनपुराधीश शमय सकलगदान् ॥१०॥
आराधये भवन्तं पवनपुराधीश शमय सकलगदान् ॥१०॥
राधा-तुङ्ग-पयोधर- | राधा के उतुङ्ग स्तनों का |
साधु-परीरम्भ- | भलि भांति आलिङ्गन करने के लिए |
लोलुप-आत्मानम् | लोलुप मन वाले (आपकी) |
आराधये भवन्तं | आराधना (करता हूं) आपकी |
पवनपुराधीश | हे पवनपुराधीश! |
शमय सकल-गदान् | शान्त करें व्याधियों को |
राधा के उतुङ्ग पयोधरों का भलि भांति आलिङ्गन करने के लिए उतावले मन वाले
हे पवनपुराधीश! मैं आपकी आराधना करता हूं। मेरी व्याधियों का शमन करें।
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