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Monday, September 19, 2016

Narayaneeyam - Dasakam 84 (Samanta Panchaka)

Narayaneeyam - Dasakam 84 (Samanta Panchaka) 

 https://youtu.be/ZG_hLMfUpR8

 

http://youtu.be/LyWV8Wl7dj8



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Dashaka 84
क्वचिदथ तपनोपरागकाले पुरि निदधत् कृतवर्मकामसूनू ।
यदुकुलमहिलावृत: सुतीर्थं समुपगतोऽसि समन्तपञ्चकाख्यम् ॥१॥
क्वचित्-अथ once then
तपन-उपराग-काले in the solar eclipse time
पुरि निदधत् in the city leaving
कृतवर्म-कामसूनू Kritavarma and Aniruddha
यदुकुल्-महिला-आवृत: the Yadus and their women folk along with
सुतीर्थं समुपगत:-असि to the holy spot (Thou) went
समन्तपञ्चक-आख्यम् Samantapanchaka known as
Once then during the time of Solar eclipse, leaving behind Kritvarma and Anirudhdha in charge of Dwaarika, Thou went to the holy spot known as Samantapanchaka, along with the Yaadava clan and their womenfolk.
बहुतरजनताहिताय तत्र त्वमपि पुनन् विनिमज्य तीर्थतोयम् ।
द्विजगणपरिमुक्तवित्तराशि: सममिलथा: कुरुपाण्डवादिमित्रै: ॥२॥
बहुतर-जनता-हिताय for the large number of peoples benefit
तत्र त्वम्-अपि there Thou also
पुनन् sanctifying
विनिमज्य तीर्थ-तोयम् dipping into the holy waters
द्विज-गण-परिमुक्त- for the Braahmin groups giving away
वित्त-राशि: money in large quantity
सममिलथा: (Thou) interacted
कुरु-पाण्डव-आदि-मित्रै: with the Kauravas and Pandavas and other friends
Thou also took a dip in the holy waters and thereby sanctified the waters for the benefit of the large number of people. Thou also gave away money in good amount to the group of the Braahmins. Then Thou interacted with Thy friends the Kauravas and the Paandavas and others.
तव खलु दयिताजनै: समेता द्रुपदसुता त्वयि गाढभक्तिभारा ।
तदुदितभवदाहृतिप्रकारै: अतिमुमुदे सममन्यभामिनीभि: ॥३॥
तव खलु दयिता-जनै: Thy indeed with the wives
समेता mixing
द्रुपदसुता त्वयि Draupadi in Thee
गाढ-भक्ति-भारा deep devotion carrying
तत्-उदित- by them said
भवत्-आहृति-प्रकारै: Thy carrying (them) away methods
अति-मुमुदे was very delighted
समम्-अन्य-भामिनीभि: with other women
Draupadi who was deeply devoted to Thee, freely mixed with Thy wives. She was very much delighted when they narrated the various methods by which they were abducted and married by Thee. The other women also enjoyed the narrations.
तदनु च भगवन् निरीक्ष्य गोपानतिकुतुकादुपगम्य मानयित्वा।
चिरतरविरहातुराङ्गरेखा: पशुपवधू: सरसं त्वमन्वयासी: ॥४॥
तदनु च भगवन् and after that O Lord!
निरीक्ष्य गोपान्- seeing the gopas
अति-कुतुकात्- with great joy
उपगम्य मानयित्वा approaching and honoring them
चिरतर-विरह-आतुर- for very long seperation (from Thee) suffering
अङ्ग-रेखा: body frailed
पशुप-वधू: the gopikas
सरसं त्वम्-अन्वयासी: joyfully Thee approached
After that O Lord! Seeing the gopas Thou approached and honoured them with great joy. The gopikas had become frail in body due to the sorrow of seperation from Thee for a very long time. Thou joyfully went to them also.
सपदि च भवदीक्षणोत्सवेन प्रमुषितमानहृदां नितम्बिनीनाम् ।
अतिरसपरिमुक्तकञ्चुलीके परिचयहृद्यतरे कुचे न्यलैषी: ॥५॥
सपदि च and soon
भवत्-ईक्षण-उत्सवेन Thee seein celebration
प्रमुषित-मान-हृदाम् wiped away the complaints from their hearts
नितम्बिनीनाम् of the beautiful women
अति-रस-परिमुक्त- intense love giving away
कञ्चुलीके their bodices
परिचय-हृद्यतरे in the familiar and very dear
कुचे न्यलैषी: breasts (Thou) got absorbed
Instantly then, celebrating the joy of Thy sight all complaints from the hearts of the beautiful women were wiped away. With the intense love welled up, their bodices burst open revealing their very dear familiar breasts where Thou got absorbed.
रिपुजनकलहै: पुन: पुनर्मे समुपगतैरियती विलम्बनाऽभूत् ।
इति कृतपरिरम्भणेत्वयि द्राक् अतिविवशा खलु राधिका निलिल्ये ॥६॥
रिपु-जन-कलहै: enemies in conflict
पुन: पुन:- again and again
मे समुपगतै:- my, by happening
इयती विलम्बना- so much delay
अभूत् became
इति कृत-परिरम्भणे- thus making embrace
त्वयि द्राक् by Thee immediately
अतिविवशा very overwhelmed
खलु राधिका indeed Raadhika
निलिल्ये became absorbed
Raadhikaa was totally absorbed in Thee when Thou embraced her and told her that so much delay was caused in meeting her and the gopikas because of frequent clashes with the enemies.
अपगतविरहव्यथास्तदा ता रहसि विधाय ददाथ तत्त्वबोधम् ।
परमसुखचिदात्मकोऽहमात्मेत्युदयतु व: स्फुटमेव चेतसीति ॥७॥
अपगत-विरह-व्यथा:- (who were) free of the seperation pangs
तदा ता: then they (the gopikas)
रहसि विधाय privately making
ददाथ तत्त्व-बोधम् gave the knowledge of Reality
परम-सुख-चित्- Supreme Bliss Conciousness
आत्मक:-अहम्-आत्मा- Brahamana am I, the self
इति-उदयतु व: thus may dawn in you
स्फुटम्-एव very clearly only
चेतसि-इति in your hearts, thus
Then the gopikas were rendered free from the pangs of seperation as Thou gave them the knowledge of Supreme self privately. Thou instilled into their hearts that Thou were the Supreme Bliss Consciousness and the Supreme Brahaman, their inner most self.
सुखरसपरिमिश्रितो वियोग: किमपि पुराऽभवदुद्धवोपदेशै: ।
समभवदमुत: परं तु तासां परमसुखैक्यमयी भवद्विचिन्ता ॥८॥
सुख-रस-परिमिश्रित: with joy mixed
वियोग: किम्-अपि seperarion somehow
पुरा-अभवत्- formerly happened
उद्धव-उपदेशै: by Uddhava's preachings
समभवत्-अमुत: (but0 happened by this
परं तु तासाम् after (this) indeed to them
परम्-सुख-ऐक्यमयी Supreme Blissful Union
भवत्-विचिन्ता (with Thee by) Thy (mere) thought
There remained a feeling of joy mixed with the sorrow of seperation when long back the gopikas were adviced by Uddhava. But after this instruction by Thee, they indeed were experiencing Supreme Blissful Union with Thee by a mere thought of Thee.
मुनिवरनिवहैस्तवाथ पित्रा दुरितशमाय शुभानि पृच्छ्यमानै: ।
त्वयि सति किमिदं शुभान्तरै: रित्युरुहसितैरपि याजितस्तदाऽसौ ॥९॥
मुनि-वर-निवहै:- by the great sages groups
तव-अथ पित्रा Thy then father
दुरित-शमाय for son's atonement
शुभानि auspicious rites
पृच्छ्यमानै: were being asked
त्वयि सति Thou being there
किम्-इदम्-शुभ-अन्तरै:- what this auspicious rite others
इति-उरु-हसितै:-अपि thus loudly laughing also
याजित:-तदा-असौ made to perform sacrifices then he (Vasudeva)
Vasudeva asked the assembly of the great sages about the auspicious rites to be performed for the atonement for the sins. Even though the sages were very amused and laughed at such an enquiry, because having Thee as a son there was no need for any atonements. But they made him perform the required rites all the same.
सुमहति यजने वितायमाने प्रमुदितमित्रजने सहैव गोपा: ।
यदुजनमहितास्त्रिमासमात्रं भवदनुषङ्गरसं पुरेव भेजु : ॥१०॥
सुमहति यजने during the very big sacrifice
वितायमाने which was being performed
प्रमुदित-मित्र-जने with the delighted friends
सह-एव गोपा: also along with the gopas
यदु-जन-महिता: by the Yaadavas honoured
त्रि-मास-मात्रं for three months
भवत्-अनुषङ्ग-रसं Thy company's pleasure
पुरा-एव भेजु: like the olden times enjoyed
The very big sacrifice was performed which lasted for three months. During that time Thy friends and the gopas were honoured by the Yaadavas and they enjoyed Thy company's pleasure like in the olden days.
व्यपगमसमये समेत्य राधां दृढमुपगूह्य निरीक्ष्य वीतखेदाम् ।
प्रमुदितहृदय: पुरं प्रयात: पवनपुरेश्वर पाहि मां गदेभ्य: ॥११॥
व्यपगम-समये at the departing time
समेत्य राधाम् approaching Raadhaa
दृढम्-उपगूह्य tightly embracing
निरीक्ष्य वीत-खेदाम् seeing (her) free from sorrow
प्रमुदित-हृदय: with a happy heart
पुरम्-प्रयात: Thou went back (to Dwaarika)
पवनपुरेश्वर O Lord of Guruvaayur!
पाहि मां गदेभ्य: save me from ailments
At the time of departing Thou approached Raadhaa. As Thou held her in a tight embrace Thou were happy to see her free from all sorrow of separation or otherwise. Thou returned to Dwaarikaa with a happy heart. O Lord of Guruvaayur! Save me from all ailments.




दशक ८४
क्वचिदथ तपनोपरागकाले पुरि निदधत् कृतवर्मकामसूनू ।
यदुकुलमहिलावृत: सुतीर्थं समुपगतोऽसि समन्तपञ्चकाख्यम् ॥१॥
क्वचित्-अथ किसी तब
तपन-उपराग-काले सूर्य ग्रहण के समय
पुरि निदधत् (द्वारका) पुरी मे छोड कर
कृतवर्म-कामसूनू कृतवर्मा और अनिरुद्ध को
यदुकुल्-महिला-आवृत: यदुकुल की महिलाओं के संग
सुतीर्थं समुपगत:-असि उत्तम तीर्थ को गए थे (आप)
समन्तपञ्चक-आख्यम् समन्तपञचक नामक
तदनन्तर एक बार सूर्यग्रहण के समय, द्वारका पुरी में कृतवर्मा और अनिरुद्ध को छोड कर, यदुकुल की महिलाओं के साथ आप समन्तपञ्चक नामक उत्तम तीर्थ को गए थे।
बहुतरजनताहिताय तत्र त्वमपि पुनन् विनिमज्य तीर्थतोयम् ।
द्विजगणपरिमुक्तवित्तराशि: सममिलथा: कुरुपाण्डवादिमित्रै: ॥२॥
बहुतर-जनता-हिताय जन सामान्य के हित के लिए
तत्र त्वम्-अपि वहां आपने भी
पुनन् पवित्र करते हुए
विनिमज्य तीर्थ-तोयम् डुबकी लगा कर तीर्थ जल में
द्विज-गण-परिमुक्त- ब्राह्मण जनों को देते हुए
वित्त-राशि: धन राशि
सममिलथा: भेंट की
कुरु-पाण्डव-आदि-मित्रै: कौरव पाण्डव और अन्य मित्रों से
जन सामान्य के हित के लिए उस तीर्थ जल को पवित्र करते हुए, आपने भी उसमें डुबकी लगाई। उक्त अवसर पर ब्राह्मण जनों के लिए प्रचूर धन राशि वितरित की तथा कौरव पाण्डव आदि अन्य मित्रों से भेंट भी की।
तव खलु दयिताजनै: समेता द्रुपदसुता त्वयि गाढभक्तिभारा ।
तदुदितभवदाहृतिप्रकारै: अतिमुमुदे सममन्यभामिनीभि: ॥३॥
तव खलु दयिता-जनै: आपकी निश्चय ही पत्नियों के संग
समेता परस्पर मिल कर
द्रुपदसुता त्वयि द्रौपदी (जो) आपमें
गाढ-भक्ति-भारा दृढ भक्ति रखती थी
तत्-उदित- उन लोगों के कहे हुए
भवत्-आहृति-प्रकारै: आपके (उनको) हरण करने के तरीकों को
अति-मुमुदे अत्यन्त प्रसन्न हुई
समम्-अन्य-भामिनीभि: अन्य महिलाओं के संग
आपमें दृढ भक्ति रखने वाली द्रौपदी, वहां आपकी पत्नियों से मिलीलि। अन्य महिलाओं के साथ आपकी पत्नियों के द्वारा बताए हुए उनके हरण के विविध वृतान्त सुन कर वह अत्यन्त प्रसन्न हुई।
तदनु च भगवन् निरीक्ष्य गोपानतिकुतुकादुपगम्य मानयित्वा।
चिरतरविरहातुराङ्गरेखा: पशुपवधू: सरसं त्वमन्वयासी: ॥४॥
तदनु च भगवन् और फिर हे भगवन!
निरीक्ष्य गोपान्- देख कर गोपों को
अति-कुतुकात्- अत्यन्त हर्ष से
उपगम्य मानयित्वा पास जा कर और आदर दे कर (मिले)
चिरतर-विरह-आतुर- दीर्घ काल से विरह संतप्त (होने के कारण)
अङ्ग-रेखा: शरीर क्षीण वाली
पशुप-वधू: गोपिकाओं से
सरसं त्वम्-अन्वयासी: मधुरता से आप मिले
हे भगवन! फिर आपने गोपों को देखा और अत्यन्त हर्ष से उनके पास जा कर आदर से उन सब से मिले। दीर्घ काल से आपके विरह से संतप्त कृष शरीर वाली गोपांगनाओं से भी आप मधुरता से मिले।
सपदि च भवदीक्षणोत्सवेन प्रमुषितमानहृदां नितम्बिनीनाम् ।
अतिरसपरिमुक्तकञ्चुलीके परिचयहृद्यतरे कुचे न्यलैषी: ॥५॥
सपदि च तुरन्त ही
भवत्-ईक्षण-उत्सवेन आपको देखने के उत्सव से
प्रमुषित-मान-हृदाम् मिट गया मान हृदय से (गोपियों का)
नितम्बिनीनाम् सुन्दर स्तनों वाली का
अति-रस-परिमुक्त- अत्यधिक रस के भाव से निस्सरित
कञ्चुलीके चोलियों के
परिचय-हृद्यतरे परिचित मनोहर
कुचे न्यलैषी: स्तनों में निलीन हो गए
आपको देखने के सुख के उत्सव से उन पीनपयोधर गोपिकाओं के मन का मान तुरन्त ही मिट गया। अत्यधिक प्रेम रस के भाव से उनकी चोलियां सरक गईं और उन मनोहर परिचित स्तनों में आप विलीन हो गए।
रिपुजनकलहै: पुन: पुनर्मे समुपगतैरियती विलम्बनाऽभूत् ।
इति कृतपरिरम्भणेत्वयि द्राक् अतिविवशा खलु राधिका निलिल्ये ॥६॥
रिपु-जन-कलहै: शत्रुओं से युद्ध के कारण
पुन: पुन:- बारम्बार
मे समुपगतै:- मेरे आने में
इयती विलम्बना- इतना विलम्ब
अभूत् हो गया
इति कृत-परिरम्भणे- इस प्रकार (कह कर) आलिङ्गन करने पर
त्वयि द्राक् आपके, तुरन्त ही
अतिविवशा अत्यन्त विवश हो गई
खलु राधिका निस्सन्देह राधिका
निलिल्ये (और) निलीन हो गई
बारम्बार शत्रुओं से युद्ध के कारण मेरे आने में इतना विलम्ब हो गया।' इस प्रकार कह कर आपने राधिका का आलिङ्गन किया। निस्सन्देह राधिका अत्यधिक विवश हो कर आपमें ही विलीन हो गई।
अपगतविरहव्यथास्तदा ता रहसि विधाय ददाथ तत्त्वबोधम् ।
परमसुखचिदात्मकोऽहमात्मेत्युदयतु व: स्फुटमेव चेतसीति ॥७॥
अपगत-विरह-व्यथा:- दूर हो जाने से विरह व्यथा
तदा ता: तब उन (गोपिकाओं) ने
रहसि विधाय एकान्त में करके
ददाथ तत्त्व-बोधम् देदिया (आपने) तत्त्व का ज्ञान
परम-सुख-चित्- परम सुख आनन्द
आत्मक:-अहम्-आत्मा- ब्रह्मन मै आत्मा हूं
इति-उदयतु व: यह (ज्ञान) जागे तुम लोगों में
स्फुटम्-एव स्पष्टतया ही
चेतसि-इति (तुम्हारे) हृदय में, इस प्रकार
एकान्त में गोपिकाओं की विरह व्यथा दूर कर के आपने उन्हे तत्त्व ज्ञान दिया। 'यह ज्ञान स्पष्टता से तुम लोगों के हृदय में जागे कि "मैं आत्मा रूप में परम सुख आनन्दमय ब्रह्मन ही हूं"।
सुखरसपरिमिश्रितो वियोग: किमपि पुराऽभवदुद्धवोपदेशै: ।
समभवदमुत: परं तु तासां परमसुखैक्यमयी भवद्विचिन्ता ॥८॥
सुख-रस-परिमिश्रित: सुख के रस से मिला हुआ
वियोग: किम्-अपि वियोग सम्भवत:
पुरा-अभवत्- पहले हुआ था
उद्धव-उपदेशै: उद्धव के उपदेश से
समभवत्-अमुत: (किन्तु) हो गया इस (उपदेश) से
परं तु तासाम् अत्यन्त ही उनके लिए
परम्-सुख-ऐक्यमयी परम सुखमय ऐक्य भाव (से युक्त)
भवत्-विचिन्ता (आपसे) आपके स्मरण से ही
गोपिकाओं को सम्भवत: उद्धव के उपदेश से ही पहले वियोग में भी सुख का आभास हुआ था। अब आपके दिए हुए इस उपदेश से, आपका स्मरण ही, उनके लिए परम सुखमय ऐक्य भाव से आपसे युक्त हो गया।
मुनिवरनिवहैस्तवाथ पित्रा दुरितशमाय शुभानि पृच्छ्यमानै: ।
त्वयि सति किमिदं शुभान्तरै: रित्युरुहसितैरपि याजितस्तदाऽसौ ॥९॥
मुनि-वर-निवहै:- मुनिवर समाहितों से
तव-अथ पित्रा आपके तब पिता के
दुरित-शमाय दुष्कर्मों की शन्ति के लिए
शुभानि अनुष्ठानों के लिए
पृच्छ्यमानै: पूछने पर
त्वयि सति आपके रहते हुए
किम्-इदम्-शुभ-अन्तरै:- क्या प्रयोजन अनुष्ठानों का दूसरे
इति-उरु-हसितै:-अपि इस प्रकार हृदय में हंसते हुए भी
याजित:-तदा-असौ यज्ञ करवाया तब इनसे
तब आपके पिता ने समाहित मुनिवरों से दुष्कर्मों की शान्ति के लिए किये जाने योग्य अनुष्ठानों के विषय में पूछा। 'आपके रहते हुए अन्य अनुष्ठानों का क्या प्रयोजन है', इस प्रकार सोच कर मन ही मन में हंसते हुए भी मुनियों ने वसुदेव से यज्ञ करवाया।
सुमहति यजने वितायमाने प्रमुदितमित्रजने सहैव गोपा: ।
यदुजनमहितास्त्रिमासमात्रं भवदनुषङ्गरसं पुरेव भेजु : ॥१०॥
सुमहति यजने (उस) महान यज्ञ के
वितायमाने अनुष्ठान के समय
प्रमुदित-मित्र-जने प्रसन्न मित्र जनों
सह-एव गोपा: के साथ ही गोप जन भी
यदु-जन-महिता: यादवों से सम्मानित
त्रि-मास-मात्रं तीन मासों के लिए
भवत्-अनुषङ्ग-रसं आपके संग के रस का सुख
पुरा-एव भेजु: पहले के समान भोगते रहे
उस महान यज्ञ के अनुष्ठान के समय, प्रसन्न मित्र जनों के साथ ही साथ गोप जन भी यादवों का सम्मान पाते रहे और तीन मास तक पहले के ही समान आपके संग के आनन्द रस का उपभोग करते रहे।
व्यपगमसमये समेत्य राधां दृढमुपगूह्य निरीक्ष्य वीतखेदाम् ।
प्रमुदितहृदय: पुरं प्रयात: पवनपुरेश्वर पाहि मां गदेभ्य: ॥११॥
व्यपगम-समये विदा होने के समय
समेत्य राधाम् पास जा कर राधा के
दृढम्-उपगूह्य गाढालिङ्गन करके
निरीक्ष्य वीत-खेदाम् देख कर (उसको) रहित व्यथा के
प्रमुदित-हृदय: प्रसन्न चिता से
पुरम्-प्रयात: (आप) (द्वारका) पुरी को चले गए
पवनपुरेश्वर हे पवनपुरेश्वर!
पाहि मां गदेभ्य: रक्षा करें मेरी कष्टों से
विदा होने के समय आपने राधा के पास जा कर उसका गाढालिङ्गन किया। उसे विरह व्यथा रहित देख कर आप प्रसन्न चित्त से द्वारका पुरी लौट गए। हे पवनपुरेश्वर! कष्टों से मेरी रक्षा करें।
दशक ८४
क्वचिदथ तपनोपरागकाले पुरि निदधत् कृतवर्मकामसूनू ।
यदुकुलमहिलावृत: सुतीर्थं समुपगतोऽसि समन्तपञ्चकाख्यम् ॥१॥
क्वचित्-अथ किसी तब
तपन-उपराग-काले सूर्य ग्रहण के समय
पुरि निदधत् (द्वारका) पुरी मे छोड कर
कृतवर्म-कामसूनू कृतवर्मा और अनिरुद्ध को
यदुकुल्-महिला-आवृत: यदुकुल की महिलाओं के संग
सुतीर्थं समुपगत:-असि उत्तम तीर्थ को गए थे (आप)
समन्तपञ्चक-आख्यम् समन्तपञचक नामक
तदनन्तर एक बार सूर्यग्रहण के समय, द्वारका पुरी में कृतवर्मा और अनिरुद्ध को छोड कर, यदुकुल की महिलाओं के साथ आप समन्तपञ्चक नामक उत्तम तीर्थ को गए थे।
बहुतरजनताहिताय तत्र त्वमपि पुनन् विनिमज्य तीर्थतोयम् ।
द्विजगणपरिमुक्तवित्तराशि: सममिलथा: कुरुपाण्डवादिमित्रै: ॥२॥
बहुतर-जनता-हिताय जन सामान्य के हित के लिए
तत्र त्वम्-अपि वहां आपने भी
पुनन् पवित्र करते हुए
विनिमज्य तीर्थ-तोयम् डुबकी लगा कर तीर्थ जल में
द्विज-गण-परिमुक्त- ब्राह्मण जनों को देते हुए
वित्त-राशि: धन राशि
सममिलथा: भेंट की
कुरु-पाण्डव-आदि-मित्रै: कौरव पाण्डव और अन्य मित्रों से
जन सामान्य के हित के लिए उस तीर्थ जल को पवित्र करते हुए, आपने भी उसमें डुबकी लगाई। उक्त अवसर पर ब्राह्मण जनों के लिए प्रचूर धन राशि वितरित की तथा कौरव पाण्डव आदि अन्य मित्रों से भेंट भी की।
तव खलु दयिताजनै: समेता द्रुपदसुता त्वयि गाढभक्तिभारा ।
तदुदितभवदाहृतिप्रकारै: अतिमुमुदे सममन्यभामिनीभि: ॥३॥
तव खलु दयिता-जनै: आपकी निश्चय ही पत्नियों के संग
समेता परस्पर मिल कर
द्रुपदसुता त्वयि द्रौपदी (जो) आपमें
गाढ-भक्ति-भारा दृढ भक्ति रखती थी
तत्-उदित- उन लोगों के कहे हुए
भवत्-आहृति-प्रकारै: आपके (उनको) हरण करने के तरीकों को
अति-मुमुदे अत्यन्त प्रसन्न हुई
समम्-अन्य-भामिनीभि: अन्य महिलाओं के संग
आपमें दृढ भक्ति रखने वाली द्रौपदी, वहां आपकी पत्नियों से मिलीलि। अन्य महिलाओं के साथ आपकी पत्नियों के द्वारा बताए हुए उनके हरण के विविध वृतान्त सुन कर वह अत्यन्त प्रसन्न हुई।
तदनु च भगवन् निरीक्ष्य गोपानतिकुतुकादुपगम्य मानयित्वा।
चिरतरविरहातुराङ्गरेखा: पशुपवधू: सरसं त्वमन्वयासी: ॥४॥
तदनु च भगवन् और फिर हे भगवन!
निरीक्ष्य गोपान्- देख कर गोपों को
अति-कुतुकात्- अत्यन्त हर्ष से
उपगम्य मानयित्वा पास जा कर और आदर दे कर (मिले)
चिरतर-विरह-आतुर- दीर्घ काल से विरह संतप्त (होने के कारण)
अङ्ग-रेखा: शरीर क्षीण वाली
पशुप-वधू: गोपिकाओं से
सरसं त्वम्-अन्वयासी: मधुरता से आप मिले
हे भगवन! फिर आपने गोपों को देखा और अत्यन्त हर्ष से उनके पास जा कर आदर से उन सब से मिले। दीर्घ काल से आपके विरह से संतप्त कृष शरीर वाली गोपांगनाओं से भी आप मधुरता से मिले।
सपदि च भवदीक्षणोत्सवेन प्रमुषितमानहृदां नितम्बिनीनाम् ।
अतिरसपरिमुक्तकञ्चुलीके परिचयहृद्यतरे कुचे न्यलैषी: ॥५॥
सपदि च तुरन्त ही
भवत्-ईक्षण-उत्सवेन आपको देखने के उत्सव से
प्रमुषित-मान-हृदाम् मिट गया मान हृदय से (गोपियों का)
नितम्बिनीनाम् सुन्दर स्तनों वाली का
अति-रस-परिमुक्त- अत्यधिक रस के भाव से निस्सरित
कञ्चुलीके चोलियों के
परिचय-हृद्यतरे परिचित मनोहर
कुचे न्यलैषी: स्तनों में निलीन हो गए
आपको देखने के सुख के उत्सव से उन पीनपयोधर गोपिकाओं के मन का मान तुरन्त ही मिट गया। अत्यधिक प्रेम रस के भाव से उनकी चोलियां सरक गईं और उन मनोहर परिचित स्तनों में आप विलीन हो गए।
रिपुजनकलहै: पुन: पुनर्मे समुपगतैरियती विलम्बनाऽभूत् ।
इति कृतपरिरम्भणेत्वयि द्राक् अतिविवशा खलु राधिका निलिल्ये ॥६॥
रिपु-जन-कलहै: शत्रुओं से युद्ध के कारण
पुन: पुन:- बारम्बार
मे समुपगतै:- मेरे आने में
इयती विलम्बना- इतना विलम्ब
अभूत् हो गया
इति कृत-परिरम्भणे- इस प्रकार (कह कर) आलिङ्गन करने पर
त्वयि द्राक् आपके, तुरन्त ही
अतिविवशा अत्यन्त विवश हो गई
खलु राधिका निस्सन्देह राधिका
निलिल्ये (और) निलीन हो गई
बारम्बार शत्रुओं से युद्ध के कारण मेरे आने में इतना विलम्ब हो गया।' इस प्रकार कह कर आपने राधिका का आलिङ्गन किया। निस्सन्देह राधिका अत्यधिक विवश हो कर आपमें ही विलीन हो गई।
अपगतविरहव्यथास्तदा ता रहसि विधाय ददाथ तत्त्वबोधम् ।
परमसुखचिदात्मकोऽहमात्मेत्युदयतु व: स्फुटमेव चेतसीति ॥७॥
अपगत-विरह-व्यथा:- दूर हो जाने से विरह व्यथा
तदा ता: तब उन (गोपिकाओं) ने
रहसि विधाय एकान्त में करके
ददाथ तत्त्व-बोधम् देदिया (आपने) तत्त्व का ज्ञान
परम-सुख-चित्- परम सुख आनन्द
आत्मक:-अहम्-आत्मा- ब्रह्मन मै आत्मा हूं
इति-उदयतु व: यह (ज्ञान) जागे तुम लोगों में
स्फुटम्-एव स्पष्टतया ही
चेतसि-इति (तुम्हारे) हृदय में, इस प्रकार
एकान्त में गोपिकाओं की विरह व्यथा दूर कर के आपने उन्हे तत्त्व ज्ञान दिया। 'यह ज्ञान स्पष्टता से तुम लोगों के हृदय में जागे कि "मैं आत्मा रूप में परम सुख आनन्दमय ब्रह्मन ही हूं"।
सुखरसपरिमिश्रितो वियोग: किमपि पुराऽभवदुद्धवोपदेशै: ।
समभवदमुत: परं तु तासां परमसुखैक्यमयी भवद्विचिन्ता ॥८॥
सुख-रस-परिमिश्रित: सुख के रस से मिला हुआ
वियोग: किम्-अपि वियोग सम्भवत:
पुरा-अभवत्- पहले हुआ था
उद्धव-उपदेशै: उद्धव के उपदेश से
समभवत्-अमुत: (किन्तु) हो गया इस (उपदेश) से
परं तु तासाम् अत्यन्त ही उनके लिए
परम्-सुख-ऐक्यमयी परम सुखमय ऐक्य भाव (से युक्त)
भवत्-विचिन्ता (आपसे) आपके स्मरण से ही
गोपिकाओं को सम्भवत: उद्धव के उपदेश से ही पहले वियोग में भी सुख का आभास हुआ था। अब आपके दिए हुए इस उपदेश से, आपका स्मरण ही, उनके लिए परम सुखमय ऐक्य भाव से आपसे युक्त हो गया।
मुनिवरनिवहैस्तवाथ पित्रा दुरितशमाय शुभानि पृच्छ्यमानै: ।
त्वयि सति किमिदं शुभान्तरै: रित्युरुहसितैरपि याजितस्तदाऽसौ ॥९॥
मुनि-वर-निवहै:- मुनिवर समाहितों से
तव-अथ पित्रा आपके तब पिता के
दुरित-शमाय दुष्कर्मों की शन्ति के लिए
शुभानि अनुष्ठानों के लिए
पृच्छ्यमानै: पूछने पर
त्वयि सति आपके रहते हुए
किम्-इदम्-शुभ-अन्तरै:- क्या प्रयोजन अनुष्ठानों का दूसरे
इति-उरु-हसितै:-अपि इस प्रकार हृदय में हंसते हुए भी
याजित:-तदा-असौ यज्ञ करवाया तब इनसे
तब आपके पिता ने समाहित मुनिवरों से दुष्कर्मों की शान्ति के लिए किये जाने योग्य अनुष्ठानों के विषय में पूछा। 'आपके रहते हुए अन्य अनुष्ठानों का क्या प्रयोजन है', इस प्रकार सोच कर मन ही मन में हंसते हुए भी मुनियों ने वसुदेव से यज्ञ करवाया।
सुमहति यजने वितायमाने प्रमुदितमित्रजने सहैव गोपा: ।
यदुजनमहितास्त्रिमासमात्रं भवदनुषङ्गरसं पुरेव भेजु : ॥१०॥
सुमहति यजने (उस) महान यज्ञ के
वितायमाने अनुष्ठान के समय
प्रमुदित-मित्र-जने प्रसन्न मित्र जनों
सह-एव गोपा: के साथ ही गोप जन भी
यदु-जन-महिता: यादवों से सम्मानित
त्रि-मास-मात्रं तीन मासों के लिए
भवत्-अनुषङ्ग-रसं आपके संग के रस का सुख
पुरा-एव भेजु: पहले के समान भोगते रहे
उस महान यज्ञ के अनुष्ठान के समय, प्रसन्न मित्र जनों के साथ ही साथ गोप जन भी यादवों का सम्मान पाते रहे और तीन मास तक पहले के ही समान आपके संग के आनन्द रस का उपभोग करते रहे।
व्यपगमसमये समेत्य राधां दृढमुपगूह्य निरीक्ष्य वीतखेदाम् ।
प्रमुदितहृदय: पुरं प्रयात: पवनपुरेश्वर पाहि मां गदेभ्य: ॥११॥
व्यपगम-समये विदा होने के समय
समेत्य राधाम् पास जा कर राधा के
दृढम्-उपगूह्य गाढालिङ्गन करके
निरीक्ष्य वीत-खेदाम् देख कर (उसको) रहित व्यथा के
प्रमुदित-हृदय: प्रसन्न चिता से
पुरम्-प्रयात: (आप) (द्वारका) पुरी को चले गए
पवनपुरेश्वर हे पवनपुरेश्वर!
पाहि मां गदेभ्य: रक्षा करें मेरी कष्टों से
विदा होने के समय आपने राधा के पास जा कर उसका गाढालिङ्गन किया। उसे विरह व्यथा रहित देख कर आप प्रसन्न चित्त से द्वारका पुरी लौट गए। हे पवनपुरेश्वर! कष्टों से मेरी रक्षा करें।

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