Narayaneeyam - Dasakam 84 (Samanta Panchaka)
https://youtu.be/ZG_hLMfUpR8
http://youtu.be/LyWV8Wl7dj8
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दशक ८४
क्वचिदथ तपनोपरागकाले पुरि निदधत् कृतवर्मकामसूनू ।
यदुकुलमहिलावृत: सुतीर्थं समुपगतोऽसि समन्तपञ्चकाख्यम् ॥१॥
यदुकुलमहिलावृत: सुतीर्थं समुपगतोऽसि समन्तपञ्चकाख्यम् ॥१॥
क्वचित्-अथ | किसी तब |
तपन-उपराग-काले | सूर्य ग्रहण के समय |
पुरि निदधत् | (द्वारका) पुरी मे छोड कर |
कृतवर्म-कामसूनू | कृतवर्मा और अनिरुद्ध को |
यदुकुल्-महिला-आवृत: | यदुकुल की महिलाओं के संग |
सुतीर्थं समुपगत:-असि | उत्तम तीर्थ को गए थे (आप) |
समन्तपञ्चक-आख्यम् | समन्तपञचक नामक |
तदनन्तर एक बार सूर्यग्रहण के समय, द्वारका पुरी में कृतवर्मा और अनिरुद्ध
को छोड कर, यदुकुल की महिलाओं के साथ आप समन्तपञ्चक नामक उत्तम तीर्थ को गए
थे।
बहुतरजनताहिताय तत्र त्वमपि पुनन् विनिमज्य तीर्थतोयम् ।
द्विजगणपरिमुक्तवित्तराशि: सममिलथा: कुरुपाण्डवादिमित्रै: ॥२॥
द्विजगणपरिमुक्तवित्तराशि: सममिलथा: कुरुपाण्डवादिमित्रै: ॥२॥
बहुतर-जनता-हिताय | जन सामान्य के हित के लिए |
तत्र त्वम्-अपि | वहां आपने भी |
पुनन् | पवित्र करते हुए |
विनिमज्य तीर्थ-तोयम् | डुबकी लगा कर तीर्थ जल में |
द्विज-गण-परिमुक्त- | ब्राह्मण जनों को देते हुए |
वित्त-राशि: | धन राशि |
सममिलथा: | भेंट की |
कुरु-पाण्डव-आदि-मित्रै: | कौरव पाण्डव और अन्य मित्रों से |
जन सामान्य के हित के लिए उस तीर्थ जल को पवित्र करते हुए, आपने भी उसमें
डुबकी लगाई। उक्त अवसर पर ब्राह्मण जनों के लिए प्रचूर धन राशि वितरित की
तथा कौरव पाण्डव आदि अन्य मित्रों से भेंट भी की।
तव खलु दयिताजनै: समेता द्रुपदसुता त्वयि गाढभक्तिभारा ।
तदुदितभवदाहृतिप्रकारै: अतिमुमुदे सममन्यभामिनीभि: ॥३॥
तदुदितभवदाहृतिप्रकारै: अतिमुमुदे सममन्यभामिनीभि: ॥३॥
तव खलु दयिता-जनै: | आपकी निश्चय ही पत्नियों के संग |
समेता | परस्पर मिल कर |
द्रुपदसुता त्वयि | द्रौपदी (जो) आपमें |
गाढ-भक्ति-भारा | दृढ भक्ति रखती थी |
तत्-उदित- | उन लोगों के कहे हुए |
भवत्-आहृति-प्रकारै: | आपके (उनको) हरण करने के तरीकों को |
अति-मुमुदे | अत्यन्त प्रसन्न हुई |
समम्-अन्य-भामिनीभि: | अन्य महिलाओं के संग |
आपमें दृढ भक्ति रखने वाली द्रौपदी, वहां आपकी पत्नियों से मिलीलि। अन्य
महिलाओं के साथ आपकी पत्नियों के द्वारा बताए हुए उनके हरण के विविध
वृतान्त सुन कर वह अत्यन्त प्रसन्न हुई।
तदनु च भगवन् निरीक्ष्य गोपानतिकुतुकादुपगम्य मानयित्वा।
चिरतरविरहातुराङ्गरेखा: पशुपवधू: सरसं त्वमन्वयासी: ॥४॥
चिरतरविरहातुराङ्गरेखा: पशुपवधू: सरसं त्वमन्वयासी: ॥४॥
तदनु च भगवन् | और फिर हे भगवन! |
निरीक्ष्य गोपान्- | देख कर गोपों को |
अति-कुतुकात्- | अत्यन्त हर्ष से |
उपगम्य मानयित्वा | पास जा कर और आदर दे कर (मिले) |
चिरतर-विरह-आतुर- | दीर्घ काल से विरह संतप्त (होने के कारण) |
अङ्ग-रेखा: | शरीर क्षीण वाली |
पशुप-वधू: | गोपिकाओं से |
सरसं त्वम्-अन्वयासी: | मधुरता से आप मिले |
हे भगवन! फिर आपने गोपों को देखा और अत्यन्त हर्ष से उनके पास जा कर आदर से
उन सब से मिले। दीर्घ काल से आपके विरह से संतप्त कृष शरीर वाली
गोपांगनाओं से भी आप मधुरता से मिले।
सपदि च भवदीक्षणोत्सवेन प्रमुषितमानहृदां नितम्बिनीनाम् ।
अतिरसपरिमुक्तकञ्चुलीके परिचयहृद्यतरे कुचे न्यलैषी: ॥५॥
अतिरसपरिमुक्तकञ्चुलीके परिचयहृद्यतरे कुचे न्यलैषी: ॥५॥
सपदि च | तुरन्त ही |
भवत्-ईक्षण-उत्सवेन | आपको देखने के उत्सव से |
प्रमुषित-मान-हृदाम् | मिट गया मान हृदय से (गोपियों का) |
नितम्बिनीनाम् | सुन्दर स्तनों वाली का |
अति-रस-परिमुक्त- | अत्यधिक रस के भाव से निस्सरित |
कञ्चुलीके | चोलियों के |
परिचय-हृद्यतरे | परिचित मनोहर |
कुचे न्यलैषी: | स्तनों में निलीन हो गए |
आपको देखने के सुख के उत्सव से उन पीनपयोधर गोपिकाओं के मन का मान तुरन्त
ही मिट गया। अत्यधिक प्रेम रस के भाव से उनकी चोलियां सरक गईं और उन मनोहर
परिचित स्तनों में आप विलीन हो गए।
रिपुजनकलहै: पुन: पुनर्मे समुपगतैरियती विलम्बनाऽभूत् ।
इति कृतपरिरम्भणेत्वयि द्राक् अतिविवशा खलु राधिका निलिल्ये ॥६॥
इति कृतपरिरम्भणेत्वयि द्राक् अतिविवशा खलु राधिका निलिल्ये ॥६॥
रिपु-जन-कलहै: | शत्रुओं से युद्ध के कारण |
पुन: पुन:- | बारम्बार |
मे समुपगतै:- | मेरे आने में |
इयती विलम्बना- | इतना विलम्ब |
अभूत् | हो गया |
इति कृत-परिरम्भणे- | इस प्रकार (कह कर) आलिङ्गन करने पर |
त्वयि द्राक् | आपके, तुरन्त ही |
अतिविवशा | अत्यन्त विवश हो गई |
खलु राधिका | निस्सन्देह राधिका |
निलिल्ये | (और) निलीन हो गई |
बारम्बार शत्रुओं से युद्ध के कारण मेरे आने में इतना विलम्ब हो गया।' इस
प्रकार कह कर आपने राधिका का आलिङ्गन किया। निस्सन्देह राधिका अत्यधिक विवश
हो कर आपमें ही विलीन हो गई।
अपगतविरहव्यथास्तदा ता रहसि विधाय ददाथ तत्त्वबोधम् ।
परमसुखचिदात्मकोऽहमात्मेत्युदयतु व: स्फुटमेव चेतसीति ॥७॥
परमसुखचिदात्मकोऽहमात्मेत्युदयतु व: स्फुटमेव चेतसीति ॥७॥
अपगत-विरह-व्यथा:- | दूर हो जाने से विरह व्यथा |
तदा ता: | तब उन (गोपिकाओं) ने |
रहसि विधाय | एकान्त में करके |
ददाथ तत्त्व-बोधम् | देदिया (आपने) तत्त्व का ज्ञान |
परम-सुख-चित्- | परम सुख आनन्द |
आत्मक:-अहम्-आत्मा- | ब्रह्मन मै आत्मा हूं |
इति-उदयतु व: | यह (ज्ञान) जागे तुम लोगों में |
स्फुटम्-एव | स्पष्टतया ही |
चेतसि-इति | (तुम्हारे) हृदय में, इस प्रकार |
एकान्त में गोपिकाओं की विरह व्यथा दूर कर के आपने उन्हे तत्त्व ज्ञान
दिया। 'यह ज्ञान स्पष्टता से तुम लोगों के हृदय में जागे कि "मैं आत्मा रूप
में परम सुख आनन्दमय ब्रह्मन ही हूं"।
सुखरसपरिमिश्रितो वियोग: किमपि पुराऽभवदुद्धवोपदेशै: ।
समभवदमुत: परं तु तासां परमसुखैक्यमयी भवद्विचिन्ता ॥८॥
समभवदमुत: परं तु तासां परमसुखैक्यमयी भवद्विचिन्ता ॥८॥
सुख-रस-परिमिश्रित: | सुख के रस से मिला हुआ |
वियोग: किम्-अपि | वियोग सम्भवत: |
पुरा-अभवत्- | पहले हुआ था |
उद्धव-उपदेशै: | उद्धव के उपदेश से |
समभवत्-अमुत: | (किन्तु) हो गया इस (उपदेश) से |
परं तु तासाम् | अत्यन्त ही उनके लिए |
परम्-सुख-ऐक्यमयी | परम सुखमय ऐक्य भाव (से युक्त) |
भवत्-विचिन्ता | (आपसे) आपके स्मरण से ही |
गोपिकाओं को सम्भवत: उद्धव के उपदेश से ही पहले वियोग में भी सुख का आभास
हुआ था। अब आपके दिए हुए इस उपदेश से, आपका स्मरण ही, उनके लिए परम सुखमय
ऐक्य भाव से आपसे युक्त हो गया।
मुनिवरनिवहैस्तवाथ पित्रा दुरितशमाय शुभानि पृच्छ्यमानै: ।
त्वयि सति किमिदं शुभान्तरै: रित्युरुहसितैरपि याजितस्तदाऽसौ ॥९॥
त्वयि सति किमिदं शुभान्तरै: रित्युरुहसितैरपि याजितस्तदाऽसौ ॥९॥
मुनि-वर-निवहै:- | मुनिवर समाहितों से |
तव-अथ पित्रा | आपके तब पिता के |
दुरित-शमाय | दुष्कर्मों की शन्ति के लिए |
शुभानि | अनुष्ठानों के लिए |
पृच्छ्यमानै: | पूछने पर |
त्वयि सति | आपके रहते हुए |
किम्-इदम्-शुभ-अन्तरै:- | क्या प्रयोजन अनुष्ठानों का दूसरे |
इति-उरु-हसितै:-अपि | इस प्रकार हृदय में हंसते हुए भी |
याजित:-तदा-असौ | यज्ञ करवाया तब इनसे |
तब आपके पिता ने समाहित मुनिवरों से दुष्कर्मों की शान्ति के लिए किये जाने
योग्य अनुष्ठानों के विषय में पूछा। 'आपके रहते हुए अन्य अनुष्ठानों का
क्या प्रयोजन है', इस प्रकार सोच कर मन ही मन में हंसते हुए भी मुनियों ने
वसुदेव से यज्ञ करवाया।
सुमहति यजने वितायमाने प्रमुदितमित्रजने सहैव गोपा: ।
यदुजनमहितास्त्रिमासमात्रं भवदनुषङ्गरसं पुरेव भेजु : ॥१०॥
यदुजनमहितास्त्रिमासमात्रं भवदनुषङ्गरसं पुरेव भेजु : ॥१०॥
सुमहति यजने | (उस) महान यज्ञ के |
वितायमाने | अनुष्ठान के समय |
प्रमुदित-मित्र-जने | प्रसन्न मित्र जनों |
सह-एव गोपा: | के साथ ही गोप जन भी |
यदु-जन-महिता: | यादवों से सम्मानित |
त्रि-मास-मात्रं | तीन मासों के लिए |
भवत्-अनुषङ्ग-रसं | आपके संग के रस का सुख |
पुरा-एव भेजु: | पहले के समान भोगते रहे |
उस महान यज्ञ के अनुष्ठान के समय, प्रसन्न मित्र जनों के साथ ही साथ गोप जन
भी यादवों का सम्मान पाते रहे और तीन मास तक पहले के ही समान आपके संग के
आनन्द रस का उपभोग करते रहे।
व्यपगमसमये समेत्य राधां दृढमुपगूह्य निरीक्ष्य वीतखेदाम् ।
प्रमुदितहृदय: पुरं प्रयात: पवनपुरेश्वर पाहि मां गदेभ्य: ॥११॥
प्रमुदितहृदय: पुरं प्रयात: पवनपुरेश्वर पाहि मां गदेभ्य: ॥११॥
व्यपगम-समये | विदा होने के समय |
समेत्य राधाम् | पास जा कर राधा के |
दृढम्-उपगूह्य | गाढालिङ्गन करके |
निरीक्ष्य वीत-खेदाम् | देख कर (उसको) रहित व्यथा के |
प्रमुदित-हृदय: | प्रसन्न चिता से |
पुरम्-प्रयात: | (आप) (द्वारका) पुरी को चले गए |
पवनपुरेश्वर | हे पवनपुरेश्वर! |
पाहि मां गदेभ्य: | रक्षा करें मेरी कष्टों से |
विदा होने के समय आपने राधा के पास जा कर उसका गाढालिङ्गन किया। उसे विरह
व्यथा रहित देख कर आप प्रसन्न चित्त से द्वारका पुरी लौट गए। हे
पवनपुरेश्वर! कष्टों से मेरी रक्षा करें।
दशक ८४
क्वचिदथ तपनोपरागकाले पुरि निदधत् कृतवर्मकामसूनू ।
यदुकुलमहिलावृत: सुतीर्थं समुपगतोऽसि समन्तपञ्चकाख्यम् ॥१॥
यदुकुलमहिलावृत: सुतीर्थं समुपगतोऽसि समन्तपञ्चकाख्यम् ॥१॥
क्वचित्-अथ | किसी तब |
तपन-उपराग-काले | सूर्य ग्रहण के समय |
पुरि निदधत् | (द्वारका) पुरी मे छोड कर |
कृतवर्म-कामसूनू | कृतवर्मा और अनिरुद्ध को |
यदुकुल्-महिला-आवृत: | यदुकुल की महिलाओं के संग |
सुतीर्थं समुपगत:-असि | उत्तम तीर्थ को गए थे (आप) |
समन्तपञ्चक-आख्यम् | समन्तपञचक नामक |
तदनन्तर एक बार सूर्यग्रहण के समय, द्वारका पुरी में कृतवर्मा और अनिरुद्ध
को छोड कर, यदुकुल की महिलाओं के साथ आप समन्तपञ्चक नामक उत्तम तीर्थ को गए
थे।
बहुतरजनताहिताय तत्र त्वमपि पुनन् विनिमज्य तीर्थतोयम् ।
द्विजगणपरिमुक्तवित्तराशि: सममिलथा: कुरुपाण्डवादिमित्रै: ॥२॥
द्विजगणपरिमुक्तवित्तराशि: सममिलथा: कुरुपाण्डवादिमित्रै: ॥२॥
बहुतर-जनता-हिताय | जन सामान्य के हित के लिए |
तत्र त्वम्-अपि | वहां आपने भी |
पुनन् | पवित्र करते हुए |
विनिमज्य तीर्थ-तोयम् | डुबकी लगा कर तीर्थ जल में |
द्विज-गण-परिमुक्त- | ब्राह्मण जनों को देते हुए |
वित्त-राशि: | धन राशि |
सममिलथा: | भेंट की |
कुरु-पाण्डव-आदि-मित्रै: | कौरव पाण्डव और अन्य मित्रों से |
जन सामान्य के हित के लिए उस तीर्थ जल को पवित्र करते हुए, आपने भी उसमें
डुबकी लगाई। उक्त अवसर पर ब्राह्मण जनों के लिए प्रचूर धन राशि वितरित की
तथा कौरव पाण्डव आदि अन्य मित्रों से भेंट भी की।
तव खलु दयिताजनै: समेता द्रुपदसुता त्वयि गाढभक्तिभारा ।
तदुदितभवदाहृतिप्रकारै: अतिमुमुदे सममन्यभामिनीभि: ॥३॥
तदुदितभवदाहृतिप्रकारै: अतिमुमुदे सममन्यभामिनीभि: ॥३॥
तव खलु दयिता-जनै: | आपकी निश्चय ही पत्नियों के संग |
समेता | परस्पर मिल कर |
द्रुपदसुता त्वयि | द्रौपदी (जो) आपमें |
गाढ-भक्ति-भारा | दृढ भक्ति रखती थी |
तत्-उदित- | उन लोगों के कहे हुए |
भवत्-आहृति-प्रकारै: | आपके (उनको) हरण करने के तरीकों को |
अति-मुमुदे | अत्यन्त प्रसन्न हुई |
समम्-अन्य-भामिनीभि: | अन्य महिलाओं के संग |
आपमें दृढ भक्ति रखने वाली द्रौपदी, वहां आपकी पत्नियों से मिलीलि। अन्य
महिलाओं के साथ आपकी पत्नियों के द्वारा बताए हुए उनके हरण के विविध
वृतान्त सुन कर वह अत्यन्त प्रसन्न हुई।
तदनु च भगवन् निरीक्ष्य गोपानतिकुतुकादुपगम्य मानयित्वा।
चिरतरविरहातुराङ्गरेखा: पशुपवधू: सरसं त्वमन्वयासी: ॥४॥
चिरतरविरहातुराङ्गरेखा: पशुपवधू: सरसं त्वमन्वयासी: ॥४॥
तदनु च भगवन् | और फिर हे भगवन! |
निरीक्ष्य गोपान्- | देख कर गोपों को |
अति-कुतुकात्- | अत्यन्त हर्ष से |
उपगम्य मानयित्वा | पास जा कर और आदर दे कर (मिले) |
चिरतर-विरह-आतुर- | दीर्घ काल से विरह संतप्त (होने के कारण) |
अङ्ग-रेखा: | शरीर क्षीण वाली |
पशुप-वधू: | गोपिकाओं से |
सरसं त्वम्-अन्वयासी: | मधुरता से आप मिले |
हे भगवन! फिर आपने गोपों को देखा और अत्यन्त हर्ष से उनके पास जा कर आदर से
उन सब से मिले। दीर्घ काल से आपके विरह से संतप्त कृष शरीर वाली
गोपांगनाओं से भी आप मधुरता से मिले।
सपदि च भवदीक्षणोत्सवेन प्रमुषितमानहृदां नितम्बिनीनाम् ।
अतिरसपरिमुक्तकञ्चुलीके परिचयहृद्यतरे कुचे न्यलैषी: ॥५॥
अतिरसपरिमुक्तकञ्चुलीके परिचयहृद्यतरे कुचे न्यलैषी: ॥५॥
सपदि च | तुरन्त ही |
भवत्-ईक्षण-उत्सवेन | आपको देखने के उत्सव से |
प्रमुषित-मान-हृदाम् | मिट गया मान हृदय से (गोपियों का) |
नितम्बिनीनाम् | सुन्दर स्तनों वाली का |
अति-रस-परिमुक्त- | अत्यधिक रस के भाव से निस्सरित |
कञ्चुलीके | चोलियों के |
परिचय-हृद्यतरे | परिचित मनोहर |
कुचे न्यलैषी: | स्तनों में निलीन हो गए |
आपको देखने के सुख के उत्सव से उन पीनपयोधर गोपिकाओं के मन का मान तुरन्त
ही मिट गया। अत्यधिक प्रेम रस के भाव से उनकी चोलियां सरक गईं और उन मनोहर
परिचित स्तनों में आप विलीन हो गए।
रिपुजनकलहै: पुन: पुनर्मे समुपगतैरियती विलम्बनाऽभूत् ।
इति कृतपरिरम्भणेत्वयि द्राक् अतिविवशा खलु राधिका निलिल्ये ॥६॥
इति कृतपरिरम्भणेत्वयि द्राक् अतिविवशा खलु राधिका निलिल्ये ॥६॥
रिपु-जन-कलहै: | शत्रुओं से युद्ध के कारण |
पुन: पुन:- | बारम्बार |
मे समुपगतै:- | मेरे आने में |
इयती विलम्बना- | इतना विलम्ब |
अभूत् | हो गया |
इति कृत-परिरम्भणे- | इस प्रकार (कह कर) आलिङ्गन करने पर |
त्वयि द्राक् | आपके, तुरन्त ही |
अतिविवशा | अत्यन्त विवश हो गई |
खलु राधिका | निस्सन्देह राधिका |
निलिल्ये | (और) निलीन हो गई |
बारम्बार शत्रुओं से युद्ध के कारण मेरे आने में इतना विलम्ब हो गया।' इस
प्रकार कह कर आपने राधिका का आलिङ्गन किया। निस्सन्देह राधिका अत्यधिक विवश
हो कर आपमें ही विलीन हो गई।
अपगतविरहव्यथास्तदा ता रहसि विधाय ददाथ तत्त्वबोधम् ।
परमसुखचिदात्मकोऽहमात्मेत्युदयतु व: स्फुटमेव चेतसीति ॥७॥
परमसुखचिदात्मकोऽहमात्मेत्युदयतु व: स्फुटमेव चेतसीति ॥७॥
अपगत-विरह-व्यथा:- | दूर हो जाने से विरह व्यथा |
तदा ता: | तब उन (गोपिकाओं) ने |
रहसि विधाय | एकान्त में करके |
ददाथ तत्त्व-बोधम् | देदिया (आपने) तत्त्व का ज्ञान |
परम-सुख-चित्- | परम सुख आनन्द |
आत्मक:-अहम्-आत्मा- | ब्रह्मन मै आत्मा हूं |
इति-उदयतु व: | यह (ज्ञान) जागे तुम लोगों में |
स्फुटम्-एव | स्पष्टतया ही |
चेतसि-इति | (तुम्हारे) हृदय में, इस प्रकार |
एकान्त में गोपिकाओं की विरह व्यथा दूर कर के आपने उन्हे तत्त्व ज्ञान
दिया। 'यह ज्ञान स्पष्टता से तुम लोगों के हृदय में जागे कि "मैं आत्मा रूप
में परम सुख आनन्दमय ब्रह्मन ही हूं"।
सुखरसपरिमिश्रितो वियोग: किमपि पुराऽभवदुद्धवोपदेशै: ।
समभवदमुत: परं तु तासां परमसुखैक्यमयी भवद्विचिन्ता ॥८॥
समभवदमुत: परं तु तासां परमसुखैक्यमयी भवद्विचिन्ता ॥८॥
सुख-रस-परिमिश्रित: | सुख के रस से मिला हुआ |
वियोग: किम्-अपि | वियोग सम्भवत: |
पुरा-अभवत्- | पहले हुआ था |
उद्धव-उपदेशै: | उद्धव के उपदेश से |
समभवत्-अमुत: | (किन्तु) हो गया इस (उपदेश) से |
परं तु तासाम् | अत्यन्त ही उनके लिए |
परम्-सुख-ऐक्यमयी | परम सुखमय ऐक्य भाव (से युक्त) |
भवत्-विचिन्ता | (आपसे) आपके स्मरण से ही |
गोपिकाओं को सम्भवत: उद्धव के उपदेश से ही पहले वियोग में भी सुख का आभास
हुआ था। अब आपके दिए हुए इस उपदेश से, आपका स्मरण ही, उनके लिए परम सुखमय
ऐक्य भाव से आपसे युक्त हो गया।
मुनिवरनिवहैस्तवाथ पित्रा दुरितशमाय शुभानि पृच्छ्यमानै: ।
त्वयि सति किमिदं शुभान्तरै: रित्युरुहसितैरपि याजितस्तदाऽसौ ॥९॥
त्वयि सति किमिदं शुभान्तरै: रित्युरुहसितैरपि याजितस्तदाऽसौ ॥९॥
मुनि-वर-निवहै:- | मुनिवर समाहितों से |
तव-अथ पित्रा | आपके तब पिता के |
दुरित-शमाय | दुष्कर्मों की शन्ति के लिए |
शुभानि | अनुष्ठानों के लिए |
पृच्छ्यमानै: | पूछने पर |
त्वयि सति | आपके रहते हुए |
किम्-इदम्-शुभ-अन्तरै:- | क्या प्रयोजन अनुष्ठानों का दूसरे |
इति-उरु-हसितै:-अपि | इस प्रकार हृदय में हंसते हुए भी |
याजित:-तदा-असौ | यज्ञ करवाया तब इनसे |
तब आपके पिता ने समाहित मुनिवरों से दुष्कर्मों की शान्ति के लिए किये जाने
योग्य अनुष्ठानों के विषय में पूछा। 'आपके रहते हुए अन्य अनुष्ठानों का
क्या प्रयोजन है', इस प्रकार सोच कर मन ही मन में हंसते हुए भी मुनियों ने
वसुदेव से यज्ञ करवाया।
सुमहति यजने वितायमाने प्रमुदितमित्रजने सहैव गोपा: ।
यदुजनमहितास्त्रिमासमात्रं भवदनुषङ्गरसं पुरेव भेजु : ॥१०॥
यदुजनमहितास्त्रिमासमात्रं भवदनुषङ्गरसं पुरेव भेजु : ॥१०॥
सुमहति यजने | (उस) महान यज्ञ के |
वितायमाने | अनुष्ठान के समय |
प्रमुदित-मित्र-जने | प्रसन्न मित्र जनों |
सह-एव गोपा: | के साथ ही गोप जन भी |
यदु-जन-महिता: | यादवों से सम्मानित |
त्रि-मास-मात्रं | तीन मासों के लिए |
भवत्-अनुषङ्ग-रसं | आपके संग के रस का सुख |
पुरा-एव भेजु: | पहले के समान भोगते रहे |
उस महान यज्ञ के अनुष्ठान के समय, प्रसन्न मित्र जनों के साथ ही साथ गोप जन
भी यादवों का सम्मान पाते रहे और तीन मास तक पहले के ही समान आपके संग के
आनन्द रस का उपभोग करते रहे।
व्यपगमसमये समेत्य राधां दृढमुपगूह्य निरीक्ष्य वीतखेदाम् ।
प्रमुदितहृदय: पुरं प्रयात: पवनपुरेश्वर पाहि मां गदेभ्य: ॥११॥
प्रमुदितहृदय: पुरं प्रयात: पवनपुरेश्वर पाहि मां गदेभ्य: ॥११॥
व्यपगम-समये | विदा होने के समय |
समेत्य राधाम् | पास जा कर राधा के |
दृढम्-उपगूह्य | गाढालिङ्गन करके |
निरीक्ष्य वीत-खेदाम् | देख कर (उसको) रहित व्यथा के |
प्रमुदित-हृदय: | प्रसन्न चिता से |
पुरम्-प्रयात: | (आप) (द्वारका) पुरी को चले गए |
पवनपुरेश्वर | हे पवनपुरेश्वर! |
पाहि मां गदेभ्य: | रक्षा करें मेरी कष्टों से |
विदा होने के समय आपने राधा के पास जा कर उसका गाढालिङ्गन किया। उसे विरह
व्यथा रहित देख कर आप प्रसन्न चित्त से द्वारका पुरी लौट गए। हे
पवनपुरेश्वर! कष्टों से मेरी रक्षा करें।
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