Narayaneeyam - Dasakam 59 (Krishna playing the flute)
https://youtu.be/nICaJWTBFBM
http://youtu.be/1n4c05JhGaw
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Dashaka 59
त्वद्वपुर्नवकलायकोमलं प्रेमदोहनमशेषमोहनम् ।
ब्रह्म तत्त्वपरचिन्मुदात्मकं वीक्ष्य सम्मुमुहुरन्वहं स्त्रिय: ॥१॥
ब्रह्म तत्त्वपरचिन्मुदात्मकं वीक्ष्य सम्मुमुहुरन्वहं स्त्रिय: ॥१॥
त्वत्-वपु:- | Thy form |
नव-कलाय-कोमलं | fresh Kalaaya flower like soft |
प्रेम-दोहनम्- | evoking love |
अशेष-मोहनम् | (and) to everyone charming |
ब्रह्म तत्त्व- | Brahman in essence |
परचित्-मुद्-आत्मकं | Supreme Consciousness, Bliss personifying |
वीक्ष्य सम्मुमुहु:- | seeing, were captivated |
अन्वहं स्त्रिय: | day by day, the Gopikas |
Day after day the Gopikas saw Thy form and were captivated. Thy form
beautiful and fresh and soft like the Kalaaya flower, evoking the
sentiment of love. Thy form charmingly enchanting everyone. Thy form,
Brahman indeed, the personification of Existence, Reality, Supreme
Consciousness and Bliss (Sat-Chit-Aananda).
मन्मथोन्मथितमानसा: क्रमात्त्वद्विलोकनरतास्ततस्तत: ।
गोपिकास्तव न सेहिरे हरे काननोपगतिमप्यहर्मुखे ॥२॥
गोपिकास्तव न सेहिरे हरे काननोपगतिमप्यहर्मुखे ॥२॥
मन्मथ-उन्मथित- | (by) Cupid churned |
मानसा: क्रमात्- | minds, by and by |
त्वत्-विलोकन-रता:- | Thee to see eager |
तत:-तत: | again and again |
गोपिका:- | the Gopikaas |
तव | Thy |
न सेहिरे | did not bear |
हरे | O Lord |
कानन-उपगतिम्- | the proceeding to the forest |
अपि-अह:-मुखे | also at the beginning of the day |
O Lord! The minds of these Gopikaas were oppressed by Cupid and because
of their love for Thee, they were always eager to see Thee. O Hari! By
and by they were unable to bear the seperation caused by Thy going to
the forest early in the morning to tend the cows.
निर्गते भवति दत्तदृष्टयस्त्वद्गतेन मनसा मृगेक्षणा: ।
वेणुनादमुपकर्ण्य दूरतस्त्वद्विलासकथयाऽभिरेमिरे ॥३॥
वेणुनादमुपकर्ण्य दूरतस्त्वद्विलासकथयाऽभिरेमिरे ॥३॥
निर्गते भवति | (when) Thou had set out |
दत्त-दृष्टय:- | with fixed gaze (on Thee) |
त्वत्-गतेन | Thou unto |
मनसा | with (such) minds |
मृगेक्षणा: | the gazelle-eyed (women) |
वेणु-नादम्- | the flute sound |
उपकर्ण्य दूरत:- | hearing from far |
त्वत्- | Thy |
विलास-कथया- | sportive activities (narrating) |
अभिरेमिरे | experienced great joy |
When Thou set out, the gazelle-eyed Gopikaas had their eyes fixed on
Thee with their minds centred on Thee. They would listen to the sound of
Thy flute from afar and revel in narrating and recounting Thy various
sportive activities.
काननान्तमितवान् भवानपि स्निग्धपादपतले मनोरमे ।
व्यत्ययाकलितपादमास्थित: प्रत्यपूरयत वेणुनालिकाम् ॥४॥
व्यत्ययाकलितपादमास्थित: प्रत्यपूरयत वेणुनालिकाम् ॥४॥
कानन-अन्तम्- | into the forest |
इतवान् भवान्-अपि | having gone, Thou also |
स्निग्ध-पादप-तले | under the cool tree |
मनोरमे | (which was also) beautiful |
व्यत्यय-आकलित- | by crossing placed |
पादम्-आस्थित: | legs standing |
प्रत्यपूरयत | kept filling |
वेणुनालिकाम् | the flute pipe |
Having gone to the forest, Thou would stand cross-legged under a shady
beautiful tree and kept playing the flute and filling its pipe with
life-breath.
मारबाणधुतखेचरीकुलं निर्विकारपशुपक्षिमण्डलम् ।
द्रावणं च दृषदामपि प्रभो तावकं व्यजनि वेणुकूजितम् ॥५॥
द्रावणं च दृषदामपि प्रभो तावकं व्यजनि वेणुकूजितम् ॥५॥
मार-बाण-धुत- | by Cupid's arrows shaken |
खेचरी-कुलं | the celestial damsels |
निर्विकार- | motionless, |
पशु-पक्षि-मण्डलम् | animals and birds multitudes |
द्रावणं च | melting and |
दृषदाम्-अपि | stones even |
प्रभो तावकं | O Lord! Thy |
व्यजनि | was born |
वेणु-कूजितम् | flute music |
O Lord! The music born out of Thy flute shook the celestial damsels with
Cupid's arrows. It made the multitudes of animals and birds motionless,
and even melted the stones and rocks.
वेणुरन्ध्रतरलाङ्गुलीदलं तालसञ्चलितपादपल्लवम् ।
तत् स्थितं तव परोक्षमप्यहो संविचिन्त्य मुमुहुर्व्रजाङ्गना: ॥६॥
तत् स्थितं तव परोक्षमप्यहो संविचिन्त्य मुमुहुर्व्रजाङ्गना: ॥६॥
वेणु-रन्ध्र- | (on) the stops of the flute |
तरल-अङ्गुली-दलं | moving of the tender finger (tips) |
ताल-सञ्चलित- | to keep time tapping |
पाद-पल्लवम् | the tender feet |
तत् स्थितं तव | that pose of Thee |
परोक्षम्-अपि- | not directly seen, even though |
अहो | what a wonder |
संविचिन्त्य | thinking about again and again |
मुमुहु:- | fell into a state of ecstacy |
व्रजाङ्गना: | the women of Vraja |
Thy tender finger tips moved deftly on the stops of the flute, as Thou
kept time tapping Thy tender feet. This pose of Thine the Vraja women
visualised in their minds again and again and got into a state of
ecstacy. Oh how wonderful!
निर्विशङ्कभवदङ्गदर्शिनी: खेचरी: खगमृगान् पशूनपि ।
त्वत्पदप्रणयि काननं च ता: धन्यधन्यमिति नन्वमानयन् ॥७॥
त्वत्पदप्रणयि काननं च ता: धन्यधन्यमिति नन्वमानयन् ॥७॥
निर्विशङ्क- | without any restrictions |
भवत्-अङ्ग- | Thy form |
दर्शिनी: खेचरी: | being able to see, the celestial damsels |
खग-मृगान् | birds |
पशून्-अपि | and animals also |
त्वत्-पद-प्रणयि | (with) Thy feet having contact |
काननं च ता: | and the forest, they (the Gopikaas) |
धन्य-धन्यम्-इति | blessed blessed (they are) thus |
ननु-अमानयन् | indeed regarded (them to be) |
The celstial damsels were able to see Thy form without restrictions or
hinderence. The birds and animals and cows also could see Thy form
directly. Even the forest/earth was always having contact with Thy feet
and saw Thy form as Thou roamed about. The Gopikaas of Vraja regarded
all of them very fortunate and blessed.
आपिबेयमधरामृतं कदा वेणुभुक्तरसशेषमेकदा ।
दूरतो बत कृतं दुराशयेत्याकुला मुहुरिमा: समामुहन् ॥८॥
दूरतो बत कृतं दुराशयेत्याकुला मुहुरिमा: समामुहन् ॥८॥
आपिबेयम्- | (will) imbibe |
अधर-अमृतं कदा | the nectar of the lips, when |
वेणु-मुक्त- | by the flute left over |
रस-शेषम्- | the last of the nectar |
एकदा | even once |
दूरत: बत | far fetched indeed |
कृतं दुराशय- | is made this greed |
इति-आकुला | thus lamenting |
मुहु:-इमा: | again and again, these (Gopikaas) |
समामुहन् | were in great distress |
O when for once, we will imbibe the nectar of Thy lips, the last of it
left over by the flute? Far fetched indeed is this greed.' Thus the
Gopikaas lamented again and again and were in great distress and
despair.
प्रत्यहं च पुनरित्थमङ्गनाश्चित्तयोनिजनिता दनुग्रहात् ।
बद्धरागविवशास्त्वयि प्रभो नित्यमापुरिह कृत्यमूढताम् ॥९॥
बद्धरागविवशास्त्वयि प्रभो नित्यमापुरिह कृत्यमूढताम् ॥९॥
प्रत्यहं च पुन:- | every day and again |
इत्थम्-अङ्गना:- | thus the women |
चित्तयोनि-जनितात्- | the Cupid's caused |
अनुग्रहात् | blessings |
बद्ध-राग-विवशा:- | bonding into attachment and so helpless |
त्वयि प्रभो | towards Thee O Lord! |
नित्यम्-आपु:- | always attained |
इह कृत्य-मूढताम् | here (in the worldly) concerns, indifference |
Day after day and again and again, in this manner, the Cupid caused
promptings to the Gopikaas. This was, in a way, a blessing to them. As
it made them so bonded in attachment towards Thee, that they became
helpless and so always attained indifference in the worldly concerns.
रागस्तावज्जायते हि स्वभावा-
न्मोक्षोपायो यत्नत: स्यान्न वा स्यात् ।
तासां त्वेकं तद्द्वयं लब्धमासीत्
भाग्यं भाग्यं पाहि मां मारुतेश ॥१०॥
न्मोक्षोपायो यत्नत: स्यान्न वा स्यात् ।
तासां त्वेकं तद्द्वयं लब्धमासीत्
भाग्यं भाग्यं पाहि मां मारुतेश ॥१०॥
राग:-तावत्- | attachment indeed |
जायते हि | comes |
स्वभावात्- | in the natural course |
मोक्ष-उपाय: | the means of liberation |
यत्नत: स्यात्- | even with effort may be |
न वा स्यात् | or may not be |
तासां तु- | for them (the Gopikaas) indeed |
एकं तत्-द्वयं | one that (served as) both |
लब्धम्-आसीत् | were attained |
भाग्यम् भाग्यम् | fortunate, fortunate, indeed |
पाहि मां | save me |
मारुतेश | O Lord of Guruvaayur |
Indeed, attachment comes in the natural course. In spite of much effort
the means of liberation may or may not be achieved. For the Gopikaas
attachment to Thee served as both, as they attained liberation as a
result. Oh fortunate indeed they were. O Lord of Guruvaayur! save me.
दशक ५९
त्वद्वपुर्नवकलायकोमलं प्रेमदोहनमशेषमोहनम् ।
ब्रह्म तत्त्वपरचिन्मुदात्मकं वीक्ष्य सम्मुमुहुरन्वहं स्त्रिय: ॥१॥
नव पल्लवित कलाय कुसुमों के समान कोमल, प्रेम का स्फुरण करने वाले, ब्रह्म
तत्त्व स्वरूप और परमचिदानन्द स्वरूप आपके श्रीअङ्गों की अत्यन्त मनमोहक
शोभा को देख देख कर गोपियां प्रतिदिन सम्मोहित होती रहतीं।
मन्मथोन्मथितमानसा: क्रमात्त्वद्विलोकनरतास्ततस्तत: ।
गोपिकास्तव न सेहिरे हरे काननोपगतिमप्यहर्मुखे ॥२॥
प्रेमातिरेक से उन्मथित मनों वाली वे गोपिकायें बारम्बार आपको ही देखने के
लिए लालायित रहतीं। क्रमश: उन्हे आपका गोचारण के लिये प्रतिदिन प्रात:काल
वन को जाना भी असहनीय लगने लगा।
निर्गते भवति दत्तदृष्टयस्त्वद्गतेन मनसा मृगेक्षणा: ।
वेणुनादमुपकर्ण्य दूरतस्त्वद्विलासकथयाऽभिरेमिरे ॥३॥
आपके चले जाने पर उनकी दृष्टि आप ही के गमन की ओर बन्धी रहती। वे मृगनयनी
आपकी मुरली का स्वर मानसिक रूप से दूर से ही सुनती रहती और आपकी क्रीडा
पूर्ण कथाओं की परस्पर चर्चा करते हुए उन्हीं में रमी रहतीं।
काननान्तमितवान् भवानपि स्निग्धपादपतले मनोरमे ।
व्यत्ययाकलितपादमास्थित: प्रत्यपूरयत वेणुनालिकाम् ॥४॥
आप भी, विपिन के अन्त मे जा कर किसी सुन्दर शीतल वृक्ष के नीचे, एक दूसरे
के आमने सामने रखे हुए पैरों पर खडे हो कर मुरली की नालिका में स्वर भरते
रहते थे।
मारबाणधुतखेचरीकुलं निर्विकारपशुपक्षिमण्डलम् ।
द्रावणं च दृषदामपि प्रभो तावकं व्यजनि वेणुकूजितम् ॥५॥
हे प्रभो! जब आपकी बजाई हुई मुरली की तान गूंजती, तब आकाश में देवाङ्गनाएं
मानो कामदेव के बाणों से आहत हो त्रस्त और कम्पित हो (सिहर) उठतीं, पशु
पक्षिगण स्तब्ध हो जाते, और पत्थर भी द्रवीभूत हो जाते।
वेणुरन्ध्रतरलाङ्गुलीदलं तालसञ्चलितपादपल्लवम् ।
तत् स्थितं तव परोक्षमप्यहो संविचिन्त्य मुमुहुर्व्रजाङ्गना: ॥६॥
अहो! मुरली बजाते समय उसके छिद्रों पर चञ्चलता से घूमती हुई आपकी
अङ्गुलियां, तान के साथ साथ सञ्चालित आपके कोमल चरण, और बांके पन से आपका
खडा होना, यह सब परोक्ष में होते हुए भी, व्रजाङ्गनाएं निरन्तर इस स्वरूप
की मन ही मन कल्पना करके सम्मोहित होती रहतीं।
निर्विशङ्कभवदङ्गदर्शिनी: खेचरी: खगमृगान् पशूनपि ।
त्वत्पदप्रणयि काननं च ता: धन्यधन्यमिति नन्वमानयन् ॥७॥
वे देवाङ्गनाएं और पक्षि गण जो निर्बाध रूप से आपके श्रीअङ्गों को देखते
रहते हैं, तथा वे पशु गण और वन प्रदेश जो सदा आपके चरणों में अनुरक्त हैं,
व्रजाङ्गनाएं निश्चय ही उन सभी को धन्य धन्य मानती थी।
आपिबेयमधरामृतं कदा वेणुभुक्तरसशेषमेकदा ।
दूरतो बत कृतं दुराशयेत्याकुला मुहुरिमा: समामुहन् ॥८॥
हाय! एक बार मुरली के द्वारा उपभुक्त और उच्छिष्ट उस अधरामृत का पान कब
करूंगी? यह निश्चय ही मेरा दुराग्रह है क्योंकि यह दुष्प्राप्य है?' इस
प्रकार व्याकुल हो कर व्रजाङ्गनाएं बारम्बार सम्मोहित हो उठतीं।
प्रत्यहं च पुनरित्थमङ्गनाश्चित्तयोनिजनितादनुग्रहात् ।
बद्धरागविवशास्त्वयि प्रभो नित्यमापुरिह कृत्यमूढताम् ॥९॥
हे प्रभो! इस प्रकार, प्रतिदिन प्रतिपल, वे युवतियां आपके प्रति प्रेम के
कारण आपसे बन्ध कर विवश हुई सी, स्वयं को इह लोक के कर्तव्यों के प्रति
विमुख पाती थीं। यह एक प्रकार से उन सब पर कामदेव का अनुग्रह ही था।
रागस्तावज्जायते हि स्वभावा-
न्मोक्षोपायो यत्नत: स्यान्न वा स्यात् । तासां त्वेकं तद्द्वयं लब्धमासीत् भाग्यं भाग्यं पाहि मां मारुतेश ॥१०॥
मानव मात्र को राग (प्रेम) तो स्वाभाविक रूप से स्वत: ही हो जाता है।
किन्तु यत्न करने पर भी, मोक्ष प्राप्त हो भी जाय न भी हो। गोपियों को तो,
आपमें राग होने से, राग और मोक्ष दोनों ही उपलब्ध हो गये। कितनी
सौभाग्यशालिनी हैं वे! हे मरुतेश! मेरी रक्षा करें।
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