Narayaneeyam - Dasakam 28(Lakshmi Swayamvaram)
https://youtu.be/7VOFRMN6jhg
http://youtu.be/UMuWKFoaKYc
============
Dashaka 28
गरलं तरलानलं पुरस्ता-
ज्जलधेरुद्विजगाल कालकूटम् ।
अमरस्तुतिवादमोदनिघ्नो
गिरिशस्तन्निपपौ भवत्प्रियार्थम् ॥१॥
ज्जलधेरुद्विजगाल कालकूटम् ।
अमरस्तुतिवादमोदनिघ्नो
गिरिशस्तन्निपपौ भवत्प्रियार्थम् ॥१॥
गरलं | poison |
तरल-अनलं | as molten fire |
पुरस्तात्- | first and foremost |
जलधे:- | from the ocean |
उद्विजगाल | emerged |
कालकूटम् | (which was ) the Kaalkoota poison |
अमर-स्तुतिवाद्-मोदनिघ्न: | pleased by the praises sung by the Devas |
गिरिश:- | Shiva |
तत्-निपपौ | drank that |
भवत्-प्रियार्थम् | to please Thee |
First and foremost there emerged from the ocean the Kaalakoota poison
which was like molten fire. The gods propitiated Shiva by singing hymns
of praise to him. He then drank the poison to please Thee.
विमथत्सु सुरासुरेषु जाता
सुरभिस्तामृषिषु न्यधास्त्रिधामन् ।
हयरत्नमभूदथेभरत्नं
द्युतरुश्चाप्सरस: सुरेषु तानि ॥२॥
सुरभिस्तामृषिषु न्यधास्त्रिधामन् ।
हयरत्नमभूदथेभरत्नं
द्युतरुश्चाप्सरस: सुरेषु तानि ॥२॥
विमथत्सु सुर-असुरेषु | as were churnung, the Devas and Asuras |
जाता सुरभि:- | was born (came out) Kaamadhenu (the divine cow) |
ताम्-ऋषिषु न्यधा:- | to the rishis (Thou) gave her |
त्रिधामन् | O Lord of the three worlds! |
हय-रत्नम्-अभूत्- | the jewel of a horse (Uchchaishrava) emerged |
अथ-इभ-रत्नम् | then the great elephant (Airaavata) |
द्यु-तरु:- | the celestial tree (Kalpaka) |
च-अप्सरस: | and Apsaras (celestial nymphs) |
सुरेषु तानि | to the Devas (Thou gave) them |
As the Devas and Asuras were churning, the divine cow Kaamadhenu came
out.Thou gave it to the sages. O Lord of the three worlds! Then emerged
the jewel of a horse (Uchchaishrava), then the great elephant
(Airaavata), then the celestial tree (Kalpaka) and the Apsaras (divine
damsels) appeared. Thou gave them to the gods.
जगदीश भवत्परा तदानीं
कमनीया कमला बभूव देवी ।
अमलामवलोक्य यां विलोल:
सकलोऽपि स्पृहयाम्बभूव लोक: ॥३॥
कमनीया कमला बभूव देवी ।
अमलामवलोक्य यां विलोल:
सकलोऽपि स्पृहयाम्बभूव लोक: ॥३॥
जगदीश | O Lord of the Worlds! |
भवत्परा | devoted to Thee |
तदानीं | then |
कमनीया | enchanting |
कमला बभूव देवी | Lakshmi Devi emerged |
अमलाम्-अवलोक्य यां | by seeing her pure form |
विलोल: सकल:-अपि | fascinated everyone was |
स्पृहयाम्-बभूव लोक: | and agitated with desire became the whole world |
O Lord of the worlds! Devoted to Thee, then the enchanting Lakshmi Devi
emerged. Seeing her pure and perfect form everyone was fascinated and
the world got agitated with desire.
त्वयि दत्तहृदे तदैव देव्यै
त्रिदशेन्द्रो मणिपीठिकां व्यतारीत् ।
सकलोपहृताभिषेचनीयै:
ऋषयस्तां श्रुतिगीर्भिरभ्यषिञ्चन् ॥४॥
त्रिदशेन्द्रो मणिपीठिकां व्यतारीत् ।
सकलोपहृताभिषेचनीयै:
ऋषयस्तां श्रुतिगीर्भिरभ्यषिञ्चन् ॥४॥
त्वयि दत्तहृदये | having set her heart on Thee |
तदा-एव देव्यै | then alone, by the goddess |
त्रिदशेन्द्र: | Indra |
मणिपीठिकां | a bejewelled throne |
व्यतारीत् | gave |
सकल-उपहृत-अभिषेचनीयै: | with the objects of consecration which were brought by all |
ऋषय:- | the Rishis |
तां श्रुति-गीर्भि:-अभ्यषिञ्चन् | consecrated her, also with Vedic hymns |
The goddess who had set her heart on Thee was given a bejewelled throne
by Indra. With the objects which everyone had brought, the sages
consecrated her, while they sang Vedic hymns.
अभिषेकजलानुपातिमुग्ध-
त्वदपाङ्गैरवभूषिताङ्गवल्लीम् ।
मणिकुण्डलपीतचेलहार-
प्रमुखैस्ताममरादयोऽन्वभूषन् ॥५॥
त्वदपाङ्गैरवभूषिताङ्गवल्लीम् ।
मणिकुण्डलपीतचेलहार-
प्रमुखैस्ताममरादयोऽन्वभूषन् ॥५॥
अभिषेक-जल-अनुपाति- | with the holy waters pouring |
मुग्ध-त्वत्-अपाङ्गै:- | followed by Thy enamoured side glances |
अवभूषिता-अङ्ग-वल्लीम् | her creeper like body was adorned |
मणि-कुण्डल-पीत-चेल-हार-प्रमुखै :- | (and with) gem studded earings, yellow silk robe and necklaces |
ताम्-अमर-आदय:-अन्वभूषन् | the gods adorned her further |
As the holy waters were pouring on her, her creeper like body was
adorned by Thy enamoured side glances. The gods further bedecked her
with gem studded earrings, yellow silk robe and necklaces etc.
वरणस्रजमात्तभृङ्गनादां
दधती सा कुचकुम्भमन्दयाना ।
पदशिञ्जितमञ्जुनूपुरा त्वां
कलितव्रीलविलासमाससाद ॥६॥
दधती सा कुचकुम्भमन्दयाना ।
पदशिञ्जितमञ्जुनूपुरा त्वां
कलितव्रीलविलासमाससाद ॥६॥
वरण-स्रजम्- | the wedding garland |
आत्त-भृङ्ग-नादाम् | having humming bees on it |
दधती सा | holding she (Lakshmi Devi) |
कुच-कुम्भ-मन्द-याना | with a gait slowed by the weight of the pot like breasts |
पद-शिञ्जित-मञ्जु-नूपुरा | with beautiful anklets making a pleasant sound |
त्वाम् | (towards) Thee |
कलित-व्रील-विलासम्- | displaying a little coyness |
आससाद | approached |
Lakshmi Devi holding a wedding garland having humming bees on it,
approached Thee with a gait slowed down by the weight of her heavy
breasts. As she walked, the beautiful anklets adorning her shapely feet
spread a delightful sound and a touch of coyness on her face enhanced
her beauty.
गिरिशद्रुहिणादिसर्वदेवान्
गुणभाजोऽप्यविमुक्तदोषलेशान् ।
अवमृश्य सदैव सर्वरम्ये
निहिता त्वय्यनयाऽपि दिव्यमाला ॥७॥
गुणभाजोऽप्यविमुक्तदोषलेशान् ।
अवमृश्य सदैव सर्वरम्ये
निहिता त्वय्यनयाऽपि दिव्यमाला ॥७॥
गिरिश-द्रुहिण-आदि-सर्व-देवान् | Shiva Brahmaa and other gods |
गुण-भाज:-अपि- | though endowed with virtues |
अविमुक्त-दोष-लेशान् | were not free from slight discrepencies |
अवमृश्य सदा-एव | finding that always |
सर्व-रम्ये | (Thou) perfect in everyway |
निहिता त्वयि- | put on Thee |
अनया-अपि | by her also |
दिव्य-माला | the divine garland |
She realised that all other gods as Shiva Brahmaa and others though
endowed with virtues, were not free from all defects. Thou who are
perfect in every way, she put the divine garland on Thee.
उरसा तरसा ममानिथैनां
भुवनानां जननीमनन्यभावाम् ।
त्वदुरोविलसत्तदीक्षणश्री-
परिवृष्ट्या परिपुष्टमास विश्वम् ॥८॥
भुवनानां जननीमनन्यभावाम् ।
त्वदुरोविलसत्तदीक्षणश्री-
परिवृष्ट्या परिपुष्टमास विश्वम् ॥८॥
उरसा तरसा | by Thy bosom, quickly |
ममानिथ-ऐनाम् | (taking her) and honoring her |
भुवनानां जननीम् | the mother of the worlds |
अनन्य भावाम् | who is devoted to no other than Thee |
त्वत्-उरो-विलसत्- | on Thy bosom sporting |
त्वत्-ईक्षण-श्री-परिवृष्ट्या | by the showering of her auspicious glances |
परिपुष्टम्-आस विश्वम् | prosperity was every where |
Lakshmi Devi, the mother of the universe, was immediately taken by Thee
on Thy bosom giving her due respect and honor as she was solely devoted
to Thee. Shining on Thy bosom she showered compassionate glances all
around which brought prosperity to the whole world.
अतिमोहनविभ्रमा तदानीं
मदयन्ती खलु वारुणी निरागात् ।
तमस: पदवीमदास्त्वमेना-
मतिसम्माननया महासुरेभ्य: ॥९॥
मदयन्ती खलु वारुणी निरागात् ।
तमस: पदवीमदास्त्वमेना-
मतिसम्माननया महासुरेभ्य: ॥९॥
अति-मोहन-विभ्रमा | highly exciting and deluding |
तदानीं | then |
मदयन्ती खलु | intoxicating indeed |
वारुणी निरागात् | liquor emerged |
तमस: पदवीम्- | the source of all sins and vice |
अदा:- त्वम्-एनाम्- | Thou gave her |
अति-सम्माननया | with great honor |
महा-असुरेभ्य: | to the great Asuras |
Then the highly exciting, deluding and intoxicating liquor gushed forth.
This, the source of sins and vices, Thou ceremoniously gave to the
great Asuras.
तरुणाम्बुदसुन्दरस्तदा त्वं
ननु धन्वन्तरिरुत्थितोऽम्बुराशे: ।
अमृतं कलशे वहन् कराभ्या-
मखिलार्तिं हर मारुतालयेश ॥१०॥
ननु धन्वन्तरिरुत्थितोऽम्बुराशे: ।
अमृतं कलशे वहन् कराभ्या-
मखिलार्तिं हर मारुतालयेश ॥१०॥
तरुण-अम्बुद-सुन्दर:- | beautiful like fresh rain clouds |
तदा त्वं ननु | Then Thou indeed |
धन्वन्तरि:-उत्थित:- | in the form of Dhanwantari emerged |
अम्बुराशे: | from the ocean |
अमृतं कलशे वहन् | nectar carrying in a pot |
कराभ्याम्- | with (Thy) two hands |
अखिल-आर्तिम् हर | be pleased to remove all my ailments |
मारुतालयेश | O Lord of Guruvaayur! |
From the ocean, then, Thou emerged beautiful like a fresh rain cloud in
the form of Dhanwantari holding in Thy two hands the pot of nectar. O
Lord of Guruvaayur! Deign to remove all my ailments.
दशक २८
गरलं तरलानलं पुरस्ता-
ज्जलधेरुद्विजगाल कालकूटम् ।
अमरस्तुतिवादमोदनिघ्नो
गिरिशस्तन्निपपौ भवत्प्रियार्थम् ॥१॥
ज्जलधेरुद्विजगाल कालकूटम् ।
अमरस्तुतिवादमोदनिघ्नो
गिरिशस्तन्निपपौ भवत्प्रियार्थम् ॥१॥
गरलं | विष |
तरल-अनलं | तरल अग्नि |
पुरस्तात्- | सब के सामने |
जलधे:- | समुद्र में से |
उद्विजगाल | बाहर निकला |
कालकूटम् | (जो) कालकूट था |
अमर-स्तुतिवाद्-मोदनिघ्न: | देवों की स्तुति से प्रसन्न हुए |
गिरिश:- | शंकर |
तत्-निपपौ | उसको पी गये |
भवत्-प्रियार्थम् | आपकी प्रसन्नता के लिये |
सब के सामने सब से पहले तरल अग्नि के समान कालकूट विष समुद्र में से बाहर
निकला। देवों के द्वारा की गई स्तुति से प्रसन्न हो कर शंकर जी आपकी
प्रसन्नता के लिये उसे पी गये।
विमथत्सु सुरासुरेषु जाता
सुरभिस्तामृषिषु न्यधास्त्रिधामन् ।
हयरत्नमभूदथेभरत्नं
द्युतरुश्चाप्सरस: सुरेषु तानि ॥२॥
सुरभिस्तामृषिषु न्यधास्त्रिधामन् ।
हयरत्नमभूदथेभरत्नं
द्युतरुश्चाप्सरस: सुरेषु तानि ॥२॥
विमथत्सु सुर-असुरेषु | मन्थन करते हुए देवों और दानवों के |
जाता सुरभि:- | पैदा हुई सुरभि |
ताम्-ऋषिषु न्यधा:- | उसको ऋषियों को देदिया (आपने) |
त्रिधामन् | हे त्रिधामन! |
हय-रत्नम्-अभूत्- | अश्वरत्न (उच्चैश्रवा) हुआ (निकला) |
अथ-इभ-रत्नम् | फिर गजरत्न (ऐरावत) |
द्यु-तरु:- | देवलोक वृक्ष (कल्प तरु) |
च-अप्सरस: | और अप्सरायें |
सुरेषु तानि | देवों को उनको (दे दिया) |
देवों और दानवों के द्वारा मन्थन करते हुए सुरभि, कामधेनु गाय प्रकट हुई,
जिसको आपने ऋषियों को दे दिया। हे त्रिधामन! फिर अश्वरत्न उच्चैश्रवा और
गजरत्न ऐरावत और अप्सरायें निकलीं, जिन्हें आपने देवों को दे दिया।
जगदीश भवत्परा तदानीं
कमनीया कमला बभूव देवी ।
अमलामवलोक्य यां विलोल:
सकलोऽपि स्पृहयाम्बभूव लोक: ॥३॥
कमनीया कमला बभूव देवी ।
अमलामवलोक्य यां विलोल:
सकलोऽपि स्पृहयाम्बभूव लोक: ॥३॥
जगदीश | हे जगदीश! |
भवत्परा | आपसे उन्मुख |
तदानीं | तब |
कमनीया | सुशोभित |
कमला बभूव देवी | लक्ष्मी देवी हुईं |
अमलाम्-अवलोक्य यां | निर्मला जिनको देख कर |
विलोल: सकल:-अपि | अभिभूत समस्त (लोक) भी |
स्पृहयाम्-बभूव लोक: | इच्छुक हो उठा लोक |
उसी समय आपसे उन्मुख सुशोभित लक्ष्मी देवी प्रकट हुईं। उन निर्मल कमला को
देख कर सारे लोक अभिभूत हो गये और सभी उनको पाने के इच्छुक हो उठे।
त्वयि दत्तहृदे तदैव देव्यै
त्रिदशेन्द्रो मणिपीठिकां व्यतारीत् ।
सकलोपहृताभिषेचनीयै:
ऋषयस्तां श्रुतिगीर्भिरभ्यषिञ्चन् ॥४॥
त्रिदशेन्द्रो मणिपीठिकां व्यतारीत् ।
सकलोपहृताभिषेचनीयै:
ऋषयस्तां श्रुतिगीर्भिरभ्यषिञ्चन् ॥४॥
त्वयि दत्तहृदये | आपमें ही दत्त चित्त |
तदा-एव देव्यै | उसी समय देवी के लिये |
त्रिदशेन्द्र: | इन्द्र ने |
मणिपीठिकां | मणि पीठिका |
व्यतारीत् | समर्पित की |
सकल-उपहृत-अभिषेचनीयै: | सबजगह से लाये हुए अभिषेक जलों से |
ऋषय:- | ऋषियों ने |
तां श्रुति-गीर्भि:-अभ्यषिञ्चन् | उनका श्रुतियों के वचनों से अभिषेक किया |
उन देवी को, जो आपमें ही दत्तचित्त थीं, इन्द्र ने मणिपीठिका प्रदान की।
सभी स्थानों से लाये हुए अभिषेक जलों से एवं वेद मन्त्रों से ऋषियों ने
उनका अभिषेक किया।
अभिषेकजलानुपातिमुग्ध-
त्वदपाङ्गैरवभूषिताङ्गवल्लीम् ।
मणिकुण्डलपीतचेलहार-
प्रमुखैस्ताममरादयोऽन्वभूषन् ॥५॥
त्वदपाङ्गैरवभूषिताङ्गवल्लीम् ।
मणिकुण्डलपीतचेलहार-
प्रमुखैस्ताममरादयोऽन्वभूषन् ॥५॥
अभिषेक-जल-अनुपाति- | अभिषेक जल के गिरते हुए |
मुग्ध-त्वत्-अपाङ्गै:- | (और) आपके अनुराग पूर्ण कटाक्षों से |
अवभूषिता-अङ्ग-वल्लीम् | सुसज्जित देहलता वाली (लक्ष्मी को) |
मणि-कुण्डल-पीत-चेल-हार-प्रमुखै:- | मणिकुण्डल, पीताम्बरऔर हार आदि प्रमुख (आभूषणों से) |
ताम्-अमर-आदय:-अन्वभूषन् | उनको (लक्ष्मी को) देवताओं आदि ने अलंकृत किया |
अभिषेक जलों से संसिञ्चित होते हुए तथा आपके अनुराग पूर्ण कटाक्षों से
लक्ष्मी देवी विषेश रूप से सुसज्जित हुईं। देवताओं आदि ने तब उन्हें
मणिकुण्डल, पीताम्बर हार आदि से अलंकृत किया।
वरणस्रजमात्तभृङ्गनादां
दधती सा कुचकुम्भमन्दयाना ।
पदशिञ्जितमञ्जुनूपुरा त्वां
कलितव्रीलविलासमाससाद ॥६॥
दधती सा कुचकुम्भमन्दयाना ।
पदशिञ्जितमञ्जुनूपुरा त्वां
कलितव्रीलविलासमाससाद ॥६॥
वरण-स्रजम्- | वरण माला को |
आत्त-भृङ्ग-नादाम् | (जो) व्याप्त थी भंवरों के गुञ्जार से |
दधती सा | उठाए हुए वह (लक्ष्मी) |
कुच-कुम्भ-मन्द-याना | कुच कलशों (के भार से) मन्द गति वाली |
पद-शिञ्जित-मञ्जु-नूपुरा | पैरों में सुशोभित नूपुरों की झंकार वाली |
त्वाम् | आपके |
कलित-व्रील-विलासम्- | दिखाते हुए किञ्चित लज्जा विलास को |
आससाद | पास में आईं |
कुच रूपी कलशों के भार से मन्द गति वाली, पैरों में सुशोभित नूपुरों की
झंकार वाली, किञ्चित लज्जा के भाव के साथ, भंवरों के गुञ्जार से व्याप्त
वरण माल को उठाए हुए लक्ष्मी देवी आपके समीप आईं।
गिरिशद्रुहिणादिसर्वदेवान्
गुणभाजोऽप्यविमुक्तदोषलेशान् ।
अवमृश्य सदैव सर्वरम्ये
निहिता त्वय्यनयाऽपि दिव्यमाला ॥७॥
गुणभाजोऽप्यविमुक्तदोषलेशान् ।
अवमृश्य सदैव सर्वरम्ये
निहिता त्वय्यनयाऽपि दिव्यमाला ॥७॥
गिरिश-द्रुहिण-आदि-सर्व-देवान् | शंकर, ब्रह्मा आदि सभी देवों को |
गुण-भाज:-अपि- | गुणयुक्त होते हुए भी |
अविमुक्त-दोष-लेशान् | (जो) विमुक्त नहीं थे दोषो के लेशमात्र से भी |
अवमृश्य सदा-एव | समझ कर कि सदा ही |
सर्व-रम्ये | सर्वरमणीय |
निहिता त्वयि- | डाल दी हैं आप में ही |
अनया-अपि | उनके (लक्ष्मी के) द्वारा भी |
दिव्य-माला | दिव्य (वरण) माला |
लक्ष्मी देवी ने यह समझ कर कि शंकर ब्रह्मा आदि सभी देव गुणयुक्त होते हुए
भी किसी न किसी दोष के लेश से सर्वथा मुक्त नहीं हैं, सदैव ही सर्व रमणीय
आपके गले में दिव्य वरण माला डाल दी।
उरसा तरसा ममानिथैनां
भुवनानां जननीमनन्यभावाम् ।
त्वदुरोविलसत्तदीक्षणश्री-
परिवृष्ट्या परिपुष्टमास विश्वम् ॥८॥
भुवनानां जननीमनन्यभावाम् ।
त्वदुरोविलसत्तदीक्षणश्री-
परिवृष्ट्या परिपुष्टमास विश्वम् ॥८॥
उरसा तरसा | वक्षस्थल से लगा कर शीघ्र ही |
ममानिथ-ऐनाम् | सम्मान दिया इनको |
भुवनानां जननीम् | जगतों की जननी को |
अनन्य भावाम् | (जो) अनन्यभावा हैं |
त्वत्-उरो-विलसत्- | आपके वक्षस्थल पर सुशोभित |
त्वत्-ईक्षण-श्री-परिवृष्ट्या | आपकी दृष्टि के वैभव से |
परिपुष्टम्-आस विश्वम् | परिपुष्ट हो गया संसार |
आपने अनन्यभावा जगत जननी को शीघ्र ही वक्षस्थल से लगा कर सम्मान दिया। आपके
वक्षस्थल पर सुशोभित हुई उनकी दृष्टि के वैभव से विश्व परिपुष्ट हो गया।
अतिमोहनविभ्रमा तदानीं
मदयन्ती खलु वारुणी निरागात् ।
तमस: पदवीमदास्त्वमेना-
मतिसम्माननया महासुरेभ्य: ॥९॥
मदयन्ती खलु वारुणी निरागात् ।
तमस: पदवीमदास्त्वमेना-
मतिसम्माननया महासुरेभ्य: ॥९॥
अति-मोहन-विभ्रमा | अति मनोहर और विभ्रामक |
तदानीं | तब |
मदयन्ती खलु | मदोन्मत्त निश्चय ही |
वारुणी निरागात् | वारुणी निकली |
तमस: पदवीम्- | तामसिक प्रवृत्तियों की अधिष्टाता |
अदा:- त्वम्-एनाम्- | दिया आपने इसको |
अति-सम्माननया | अत्यन्त सम्मान के साथ |
महा-असुरेभ्य: | महा असुरों को |
तब अति मनोहर और विभ्रामक और निश्चित रूप से मदोन्मत्त करने वाली वारुणी
निकली जो सभी तामसिक प्रवृत्तियों की अधिष्ठाता है। आपने अत्यन्त सम्मान के
साथ उसको महा असुरों को दे दिया।
तरुणाम्बुदसुन्दरस्तदा त्वं
ननु धन्वन्तरिरुत्थितोऽम्बुराशे: ।
अमृतं कलशे वहन् कराभ्या-
मखिलार्तिं हर मारुतालयेश ॥१०॥
ननु धन्वन्तरिरुत्थितोऽम्बुराशे: ।
अमृतं कलशे वहन् कराभ्या-
मखिलार्तिं हर मारुतालयेश ॥१०॥
तरुण-अम्बुद-सुन्दर:- | तरुण मेघों के समान सुन्दर |
तदा त्वं ननु | तब आप ही |
धन्वन्तरि:-उत्थित:- | धन्वन्तरि रूप में प्रकट हुए |
अम्बुराशे: | समुद्र में से |
अमृतं कलशे वहन् | अमृत को कलश में लिये हुए |
कराभ्याम्- | दोनों हाथों से |
अखिल-आर्तिम् हर | सभी क्लेशों का हरण कीजिये |
मारुतालयेश | हे मारुतालयेश |
तब आप ही तरुण मेघों के समान सुन्दर धन्वन्तरि के रूप में समुद्र में से
प्रकट हुए। आपके दोनों हाथों में अमृत का कलश था। हे मारुतालयेश! मेरे सभी
क्लेशों का हरण कीजिये।
No comments:
Post a Comment