Narayaneeyam - Dasakam 53 (Slaying of Dhenukasura)
https://youtu.be/SFXRWXPTLTM
http://youtu.be/vJWeYs_JCyY
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Dashaka 53
अतीत्य बाल्यं जगतां पते त्वमुपेत्य पौगण्डवयो मनोज्ञं ।
उपेक्ष्य वत्सावनमुत्सवेन प्रावर्तथा गोगणपालनायाम् ॥१॥
उपेक्ष्य वत्सावनमुत्सवेन प्रावर्तथा गोगणपालनायाम् ॥१॥
अतीत्य बाल्यम् | passing childhood |
जगतां पते | O Lord of the universe |
त्वम्-उपेत्य | Thou attained |
पौगण्ड-वय: मनोज्ञम् | the boyhood age (which was very) charming |
उपेक्ष्य वत्सावनम्- | giving up tending the calves |
उत्सवेन प्रावर्तथा | enthusiastically got into |
गो-गण-पालनायाम् | the looking after of the herd of cows |
O Lord of the universe! Having passed chilhood Thou attained the
charming age of boyhood (6 to10 years). Then Thou gave up the tending of
the calves and enthusiastically promoted to herding cows and cattle.
उपक्रमस्यानुगुणैव सेयं मरुत्पुराधीश तव प्रवृत्ति: ।
गोत्रापरित्राणकृतेऽवतीर्णस्तदे व देवाऽऽरभथास्तदा यत् ॥२॥
गोत्रापरित्राणकृतेऽवतीर्णस्तदे
उपक्रमस्य- | for the beginning |
अनुगुण-एव | it was proper indeed |
सा-इयं | that this |
मरुत्पुराधीश | O Lord of Guruvaayur |
तव प्रवृत्ति: | Thy occupation (because) |
गोत्रा-परित्राण- | (for) the earth's protection |
कृते-अवतीर्ण:- | as the purpose, was Thy incarnation |
तत्-एव | that itself |
देव-आरभथा:- | O Lord Thou started |
तदा यत् | then because |
O Lord! This occupation that Thou took up was the fit and proper
beginning for the work which lay ahead. O Lord of Guruvaayur! Thy
incarnation was for the protection of 'Gotra', the earth, and tending
'Gotras', the cows, was a first step towards that end.
कदापि रामेण समं वनान्ते वनश्रियं वीक्ष्य चरन् सुखेन ।
श्रीदामनाम्न: स्वसखस्य वाचा मोदादगा धेनुककाननं त्वम् ॥३॥
श्रीदामनाम्न: स्वसखस्य वाचा मोदादगा धेनुककाननं त्वम् ॥३॥
कदापि रामेण समं | once along with Balaraam |
वनान्ते | in the end of the woods |
वनश्रियं वीक्ष्य | the beauty of the woods admiring |
चरन् सुखेन | and roaming about happily |
श्रीदाम-नाम्न: | by the name of Shreedaamaa |
स्वसखस्य वाचा | Thy friend's suggestion |
मोदात्-अगा: | with joy went |
धेनुक-काननं | to the Dhenuka forest |
त्वम् | Thou |
Once, with Balaraam, as Thou were happily roaming about in the woods and
admiring the beauty of the woods, on Thy friend Sudaamaa's suggestion,
Thou enthusiastically entered the Dhenuka forest.
उत्तालतालीनिवहे त्वदुक्त्या बलेन धूतेऽथ बलेन दोर्भ्याम् ।
मृदु: खरश्चाभ्यपतत्पुरस्तात् फलोत्करो धेनुकदानवोऽपि ॥४॥
मृदु: खरश्चाभ्यपतत्पुरस्तात् फलोत्करो धेनुकदानवोऽपि ॥४॥
उत्ताल-ताली-निवहे | (when) the tall palm tree clusters |
त्वत्-उक्त्या | at Thy words |
बलेन धूते-अथ | by Balaraam was shaken, then, |
बलेन दोर्भ्याम् | with the force of both the hands |
मृदु: खर:-च- | soft/ripe and hard/unripe |
अभ्यपतत्-पुरस्तात् | fell down in front |
फल-उत्कर: | a bunch of fruits |
धेनुक-दानव:-अपि | the Dhenuka demon also |
(खर:-च अभ्यपतत्) | (as a donkey appeared) |
At Thy words, Balaraam shook the cluster of tall palm trees with the
force of both his strong arms. A bunch of soft and ripe and hard and
unripe fruits fell in front of Thee. Just then, the demon Dhenukaasura,
in the form of a donkey also appeared.
समुद्यतो धैनुकपालनेऽहं कथं वधं धैनुकमद्य कुर्वे ।
इतीव मत्वा ध्रुवमग्रजेन सुरौघयोद्धारमजीघनस्त्वम् ॥५॥
इतीव मत्वा ध्रुवमग्रजेन सुरौघयोद्धारमजीघनस्त्वम् ॥५॥
समुद्यत: | engaged in |
धैनुक-पालने-अहं | the cows' protection, I |
कथं | how |
वधं धैनुकम्-अद्य | (can I) kill Dhenuka (even though just a namesake) now |
कुर्वे इति-इव | do so , thus like that |
मत्वा | thinking |
ध्रुवम्-अग्रजेन | certainly by Thy elder brother |
सुरौघ-योद्धारम्- | the enemy of the gods |
अजीघन:-त्वम् | caused to be killed Thou |
I am engaged in protecting the cows (Dhenuka), how can I now kill the
Dhenuka (cow) asura?' Thus interpreting, as it were, Thou made Balaraam
Thy elder brother kill Dhenukaasura who was an enemy of the gods.
तदीयभृत्यानपि जम्बुकत्वेनोपागतानग्रजसंयुतस् त्वम् ।
जम्बूफलानीव तदा निरास्थस्तालेषु खेलन् भगवन् निरास्थ: ॥६॥
जम्बूफलानीव तदा निरास्थस्तालेषु खेलन् भगवन् निरास्थ: ॥६॥
तदीय-भृत्यान्-अपि | his (Dhenukaasura's) sevants also |
जम्बुकत्वेन-उपागतान्- | (who were) as jackals and had come |
अग्रज-संयुत:-त्वम् | along with Thy elder brother Thou |
जम्बु-फलानि-इव | like black-berries |
तदा निरास्थ:- | then smashed |
तालेषु खेलन् | on the palm trees as mere play |
भगवन् | O Lord |
निरास्थ: | effortlessly |
Dhenukaasura's servants had also come in the form of jackals. O Lord!
Thou and Thy elder brother, as if in mere play, smashed them
effortlessly against the palm trees as though they were mere
black-berries.
विनिघ्नति त्वय्यथ जम्बुकौघं सनामकत्वाद्वरुणस्तदानीम् ।
भयाकुलो जम्बुकनामधेयं श्रुतिप्रसिद्धं व्यधितेति मन्ये ॥७॥
भयाकुलो जम्बुकनामधेयं श्रुतिप्रसिद्धं व्यधितेति मन्ये ॥७॥
विनिघ्नति | when killing |
त्वयि अथ | Thou (were) then |
जम्बुक-औघं | the pack of jackals |
सनामकत्वात्- | because of having the same name |
वरुण:-तदानीम् | Varuna, then |
भयाकुल: | out of fear |
जम्बुक-नाम-धेयं | his name 'Jambuka' |
श्रुति-प्रसिद्धं व्यधित- | famous in the Vedas, hid it (in the Vedas only) |
इति मन्ये | this I belive |
Then when Thou were killing the pack of jackals, Jambukas, Varuna, the
water god, whose name is famous in the Vedas as Jambuka, hid it in the
Vedas only, for the fear of being killed. I believe that it is for this
reason that Varuna's name as 'Jambuka' is not known.
तवावतारस्य फलं मुरारे सञ्जातमद्येति सुरैर्नुतस्त्वम् ।
सत्यं फलं जातमिहेति हासी बालै: समं तालफलान्यभुङ्क्था: ॥८॥
सत्यं फलं जातमिहेति हासी बालै: समं तालफलान्यभुङ्क्था: ॥८॥
तव-अवतारस्य फलं | Thy incarnation's results |
मुरारे | O Slayer of Mura! |
सञ्जतम्-अद्य- | has appeared now |
इति सुरै:-नुत: त्वम् | thus by the gods, being praised, Thou |
सत्यं फलं | truly fruit |
जातम्-इह-इति | is born here thus |
हासी बालै: समं | laughingly (saying) with the boys |
ताल फलानि- | the palm fruits |
अभुङ्क्था: | ate |
O Slayer of Mura! The gods praised Thee saying that the fruit of Thy
incarnation has now appeared. Thou laughingly said that 'indeed the
fruits of the palm tree have been got now', and saying so, ate the
fruits with the boys.
मधुद्रवस्रुन्ति बृहन्ति तानि फलानि मेदोभरभृन्ति भुक्त्वा ।
तृप्तैश्च दृप्तैर्भवनं फलौघं वहद्भिरागा: खलु बालकैस्त्वम् ॥९॥
तृप्तैश्च दृप्तैर्भवनं फलौघं वहद्भिरागा: खलु बालकैस्त्वम् ॥९॥
मधुद्रव-स्रुन्ति | with honey like juice dripping |
बृहन्ति तानि फलानि | those large fruits |
मेदोभर-भृन्ति | full of flesh |
भुक्त्वा तृप्तै:-च | having eaten and satisfied |
दृप्तै:-भवनं | and triumphant, to the house |
फलौघं वहद्भि:- | loads of fruit carrying |
आगा: खलु | returned indeed |
बालकै:-त्वम् | with the boys, Thou |
Thou ate the nectar like juice dripping luscious and fleshy fruits with
the boys to Thy heart's content. Fully satisfied and triumphant Thou
returned to the house carrying along loads of such fruits.
हतो हतो धेनुक इत्युपेत्य फलान्यदद्भिर्मधुराणि लोकै: ।
जयेति जीवेति नुतो विभो त्वं मरुत्पुराधीश्वर पाहि रोगात् ॥१०॥
जयेति जीवेति नुतो विभो त्वं मरुत्पुराधीश्वर पाहि रोगात् ॥१०॥
हत: हत: धेनुक: | killed killed is Dhenuka |
इति-उपेत्य | thus (saying and) approaching |
फलानि-अदद्भि:- | the fruits eating |
मधुराणि | (which were) sweet |
लोकै: जय-इति | by the people, 'Victory to Thee' |
जीव-इति | long live' thus |
नुत: विभो त्वं | praised O Lord Thou |
मरुत्पुराधीश्वर | O Lord of Guruvaayur |
पाहि रोगात् | save from ailments |
O Omnipresent and Omnipotent Lord! The people approached Thee cheering
that Dhenukaasura was killed. They praised Thee saying, 'Victory to
Thee', 'May Thou live long', as they ate the sweet fruits. O Lord of
Guruvaayur! Do save me from my ailments.
दशक ५३
अतीत्य बाल्यं जगतां पते त्वमुपेत्य पौगण्डवयो मनोज्ञं ।
उपेक्ष्य वत्सावनमुत्सवेन प्रावर्तथा गोगणपालनायाम् ॥१॥
उपेक्ष्य वत्सावनमुत्सवेन प्रावर्तथा गोगणपालनायाम् ॥१॥
अतीत्य बाल्यम् | पार करके बाल्यकाल |
जगतां पते | हे जगत्पति! |
त्वम्-उपेत्य | आप प्राप्त करके |
पौगण्ड-वय: मनोज्ञम् | लडकपन की अवस्था को मनोहर |
उपेक्ष्य वत्सावनम्- | छोड कर बछडो को चराना |
उत्सवेन प्रावर्तथा | उत्साह पूर्वक प्रवृत हुए |
गो-गण-पालनायाम् | गो गणों के चारण में |
हे जगत्पति! बाल्यावस्था को पार करके आपने पौगण्ड (लडकपन) अवस्था में
प्रवेश किया। तब बछडों को चराना छोड कर गो गण के चारण में सोत्साह प्रवृत
हुए।
उपक्रमस्यानुगुणैव सेयं मरुत्पुराधीश तव प्रवृत्ति: ।
गोत्रापरित्राणकृतेऽवतीर्णस्तदेव देवाऽऽरभथास्तदा यत् ॥२॥
गोत्रापरित्राणकृतेऽवतीर्णस्तदेव देवाऽऽरभथास्तदा यत् ॥२॥
उपक्रमस्य- | प्रारम्भ के लिये |
अनुगुण-एव | अनुरूप ही |
सा-इयं | वह यह |
मरुत्पुराधीश | हे मरुत्पुराधीश! |
तव प्रवृत्ति: | आपकी प्रवृत्ति है |
गोत्रा-परित्राण- | पृथ्वी की रक्षा |
कृते-अवतीर्ण:- | करने के लिये अवतरित |
तत्-एव | वह ही |
देव-आरभथा:- | हे देव! प्रारम्भ किया |
तदा यत् | तब जिससे |
हे देव! हे मरुत्पुराधीश! क्योंकि आपका यह अवतार (गो) पृथ्वी की रक्षा के
निमित्त ही है, और गो रक्षा का कार्य उस ओर बढने का प्रथम उपक्रम है, अतएव
आपकी यह प्रवृति आपके भविष्य के कार्यक्रम के अनुरूप ही है।
कदापि रामेण समं वनान्ते वनश्रियं वीक्ष्य चरन् सुखेन ।
श्रीदामनाम्न: स्वसखस्य वाचा मोदादगा धेनुककाननं त्वम् ॥३॥
श्रीदामनाम्न: स्वसखस्य वाचा मोदादगा धेनुककाननं त्वम् ॥३॥
कदापि रामेण समं | एकबार बलराम के साथ |
वनान्ते | वन के अन्त में |
वनश्रियं वीक्ष्य | वन के सौन्दर्य को देख कर |
चरन् सुखेन | विचरण करते हुए सुख से |
श्रीदाम-नाम्न: | श्रीदाम नाम के |
स्वसखस्य वाचा | अपने सखा के कहने से |
मोदात्-अगा: | प्रसन्नता से गये |
धेनुक-काननं | धेनुक वन को |
त्वम् | आप |
एकबार बलराम के साथ, वन की शोभा देखते हुए आप सुख से वन में विचरण कर रहे
थे। तभी सुदामा नाम के अपने एक मित्र के कहने पर आप प्रसन्नता पूर्वक धेनुक
वन में गये।
उत्तालतालीनिवहे त्वदुक्त्या बलेन धूतेऽथ बलेन दोर्भ्याम् ।
मृदु: खरश्चाभ्यपतत्पुरस्तात् फलोत्करो धेनुकदानवोऽपि ॥४॥
मृदु: खरश्चाभ्यपतत्पुरस्तात् फलोत्करो धेनुकदानवोऽपि ॥४॥
उत्ताल-ताली-निवहे | ऊंचे ताल वृक्षों के झुण्ड में |
त्वत्-उक्त्या | आपके कहने से |
बलेन धूते-अथ | बलराम के द्वारा झकझोडेजाने से तब |
बलेन दोर्भ्याम् | बलपूर्वक दोनों हाथों से |
मृदु: खर:-च- | मीठे और कडे |
अभ्यपतत्-पुरस्तात् | गिर पडे सामने |
फल-उत्कर: | फलों के ढेर |
धेनुक-दानव:-अपि | धेनुक दैत्य भी |
(खर:-च अभ्यपतत्) | (गर्दभ के रूप में आ गिरा) |
आपके कहने से बलराम ने दोनों हाथों से ऊंचे ऊंचे ताल वृक्षों को बलपूर्वक
झकझोड दिया। तब मीठे और कडे ताल फलों का ढेर सामने गिरा और गर्दभ रूपधारी
धेनुकासुर भी उसी समय सामने उपस्थित हुआ।
समुद्यतो धैनुकपालनेऽहं कथं वधं धैनुकमद्य कुर्वे ।
इतीव मत्वा ध्रुवमग्रजेन सुरौघयोद्धारमजीघनस्त्वम् ॥५॥
इतीव मत्वा ध्रुवमग्रजेन सुरौघयोद्धारमजीघनस्त्वम् ॥५॥
समुद्यत: | संलग्न हूं |
धैनुक-पालने-अहं | धेनु समूह के पालन में मैं |
कथं | कैसे |
वधं धैनुकम्-अद्य | वध धेनुक का आज |
कुर्वे इति-इव | करूं इस प्रकार से |
मत्वा | मान कर |
ध्रुवम्-अग्रजेन | अवश्यमेव बडे भाई के द्वारा |
सुरौघ-योद्धारम्- | देवों के शत्रु को |
अजीघन:-त्वम् | मरवाया आपने |
'मैं धेनू समूह के पालन में संलग्न हूं, अत: मैं धेनुक को कैसे मार सकता
हूं?' अवश्यमेव इसी प्रकार सोच कर आपने अपने अग्रज के द्वारा उस देवद्रोही
धेनुकासुर का वध करवाया।
तदीयभृत्यानपि जम्बुकत्वेनोपागतानग्रजसंयुतस्त्वम् ।
जम्बूफलानीव तदा निरास्थस्तालेषु खेलन् भगवन् निरास्थ: ॥६॥
जम्बूफलानीव तदा निरास्थस्तालेषु खेलन् भगवन् निरास्थ: ॥६॥
तदीय-भृत्यान्-अपि | उसके भृत्य गणों को भी |
जम्बुकत्वेन-उपागतान्- | सियार रूप में आये हुओं को |
अग्रज-संयुत:-त्वम् | अग्रज के साथ मिल कर आपने |
जम्बु-फलानि-इव | जामुन के फलों की भांति |
तदा निरास्थ:- | तब मसल डाला |
तालेषु खेलन् | ताल वृक्षो के बीच खेलते हुए |
भगवन् | हे भगवन! |
निरास्थ: | बिना परिश्रम के |
सियार के रूप में आये हुए धेनुकासुर के भृत्यगणों को भी, ताल वृक्षों के वन
में, अग्रज के साथ, खेल खेल में ही बिना किसी श्रम के जामुन के फलों के
समान मसल डाला।
विनिघ्नति त्वय्यथ जम्बुकौघं सनामकत्वाद्वरुणस्तदानीम् ।
भयाकुलो जम्बुकनामधेयं श्रुतिप्रसिद्धं व्यधितेति मन्ये ॥७॥
भयाकुलो जम्बुकनामधेयं श्रुतिप्रसिद्धं व्यधितेति मन्ये ॥७॥
विनिघ्नति | मारते समय |
त्वयि अथ | आपके तब |
जम्बुक-औघं | (उस) जम्बुक झुण्ड के |
सनामकत्वात्- | सनामधारी होने के कारण |
वरुण:-तदानीम् | वरुण ने उस समय |
भयाकुल: | भयभीत हो कर |
जम्बुक-नाम-धेयं | जम्बुक नाम वाला (अपना नाम) |
श्रुति-प्रसिद्धं व्यधित- | (जो) वेदों में प्रसिद्ध छुपा लिया (वेदों ही में) |
इति मन्ये | ऐसा मानता हूं |
जिस समय आप जम्बुकों के झुण्ड को मार रहे थे, उस समय, सनामधारी वरुण ने
भयभीत हो कर, वेदों में प्रसिद्ध अपने 'जम्बुक' नाम को वेदों ही में छुपा
दिया। ऐसा मैं मानता हूं।
तवावतारस्य फलं मुरारे सञ्जातमद्येति सुरैर्नुतस्त्वम् ।
सत्यं फलं जातमिहेति हासी बालै: समं तालफलान्यभुङ्क्था: ॥८॥
सत्यं फलं जातमिहेति हासी बालै: समं तालफलान्यभुङ्क्था: ॥८॥
तव-अवतारस्य फलं | आपके अवतार का फल |
मुरारे | हे मुरारि! |
सञ्जातम्-अद्य- | प्राप्त हुआ आज |
इति सुरै:-नुत: त्वम् | इस प्रकार कहते हुए देवों ने स्तुति की आपकी |
सत्यं फलं | यथार्थ में फल |
जातम्-इह-इति | प्राप्त हुआ यहां इस प्रकार |
हासी बालै: समं | हंसते हुए बालकों के संग |
ताल फलानि- | ताल फलों को |
अभुङ्क्था: | खाया |
'हे मुरारे! आपके अवतार का फल आज प्राप्त हुआ है", इस प्रकार कहते हुए
देवताओं ने आपकी स्तुति की। आपने भी हंसते हुए कहा कि 'यथार्थ में आज फलों
की प्राप्ति हुई है", और ऐसा कहते हुए आपने गोपबालकों के संग ताल फल खाये।
मधुद्रवस्रुन्ति बृहन्ति तानि फलानि मेदोभरभृन्ति भुक्त्वा ।
तृप्तैश्च दृप्तैर्भवनं फलौघं वहद्भिरागा: खलु बालकैस्त्वम् ॥९॥
तृप्तैश्च दृप्तैर्भवनं फलौघं वहद्भिरागा: खलु बालकैस्त्वम् ॥९॥
मधुद्रव-स्रुन्ति | मधुर रसों से झरते हुए |
बृहन्ति तानि फलानि | बडे बडे वे फल |
मेदोभर-भृन्ति | गूदे से भरे हुए |
भुक्त्वा तृप्तै:-च | खा कर और तृप्त हो कर |
दृप्तै:-भवनं | गर्व के साथ घर को |
फलौघं वहद्भि:- | फलों के गुच्छों को ले जाते हुए |
आगा: खलु | आये निश्चय ही |
बालकै:-त्वम् | बालकों के साथ आप |
उन बडे बडे फलों से रस झर रहा था और वे गूदे से भरे हुए थे। उन्हें खा कर
तृप्त हुए आप गर्व सहित फलों के गुच्छों को ले कर बालकों के साथ घर लौटे।
हतो हतो धेनुक इत्युपेत्य फलान्यदद्भिर्मधुराणि लोकै: ।
जयेति जीवेति नुतो विभो त्वं मरुत्पुराधीश्वर पाहि रोगात् ॥१०॥
जयेति जीवेति नुतो विभो त्वं मरुत्पुराधीश्वर पाहि रोगात् ॥१०॥
हत: हत: धेनुक: | मारा गया मारा गया धेनुकासुर |
इति-उपेत्य | ऐसा कहते हुए आ कर |
फलानि-अदद्भि:- | फलों को खाते हुए |
मधुराणि | मधुर |
लोकै: जय-इति | लोगों ने (कहा) जय हो |
जीव-इति | जीवित रहें इस प्रकार |
नुत: विभो त्वं | स्तुत हुए हे विभो! आप |
मरुत्पुराधीश्वर | हे मरुत्पुराधीश्वर! |
पाहि रोगात् | रक्षा करें रोगों से |
'मारा गया, धेनुकासुर मारा गया', इस प्रकार कहते हुए और मधुर फल खाते हुए
लोग आये, और 'जय हो, चिरंजीवी हों' ऐसा कहते हुए हे विभो! आपकी स्तुति की।
हे मरुत्पुराधीश्वर! रोगों से रक्षा करें।
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