Narayaneeyam - Dasakam 46 (Revelation of Cosmic form)
https://youtu.be/hWnXqngx6io
http://youtu.be/mtmSgWof0aE
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Dashaka 46
अयि देव पुरा किल त्वयि स्वयमुत्तानशये स्तनन्धये ।
परिजृम्भणतो व्यपावृते वदने विश्वमचष्ट वल्लवी ॥१॥
परिजृम्भणतो व्यपावृते वदने विश्वमचष्ट वल्लवी ॥१॥
अयि देव | O Lord! |
पुरा किल | long ago indeed |
त्वयि स्वयम्- | (when) Thou by Thyself |
उत्तानशये | while lying on the back |
स्तनन्धये | and sucking at the breast (of Yashodaa) |
परिजृम्भणत: | by yawning |
व्यपावृते वदने | in Thy open mouth |
विश्वम्-अचष्ट | the universe, was seen |
वल्लवी | by the cowherdess (Yashodaa) |
O Lord! Once long ago, as Thou were lying flat on the back, in the lap
of Yashodaa and sucking at her breast, Thou yawned. As Thou did so, in
Thy open mouth, Thou revealed to her the whole universe.
पुनरप्यथ बालकै: समं त्वयि लीलानिरते जगत्पते ।
फलसञ्चयवञ्चनक्रुधा तव मृद्भोजनमूचुरर्भका: ॥२॥
फलसञ्चयवञ्चनक्रुधा तव मृद्भोजनमूचुरर्भका: ॥२॥
पुन:-अपि-अथ | again also |
बालकै: समं | with the children |
त्वयि लीला-निरते | (when) Thou were engrossed in play |
जगत्पते | O Lord of the Univers! |
फल-सञ्चय- | in collecting the fruits |
वञ्चन-क्रुधा | being cheated and angered (the children) |
तव मृद्-भोजनम्- | Thy eating of sand |
ऊचु:-अर्भका: | reported the children |
O Lord of the Universe! Again once, as Thou were playing with other
children, Thou cheated them in collecting fruits. Angered at this, they
reported to Thy mother that Thou had eaten mud.
अयि ते प्रलयावधौ विभो क्षितितोयादिसमस्तभक्षिण: ।
मृदुपाशनतो रुजा भवेदिति भीता जननी चुकोप सा ॥३॥
मृदुपाशनतो रुजा भवेदिति भीता जननी चुकोप सा ॥३॥
अयि | O (Thou) |
ते प्रलय-अवधौ | Thee at the time of deluge |
विभो | O Lord! |
क्षिति-तोय-आदि- | earth water etc |
समस्त-भक्षिण: | everything consuming |
मृद्-उपाशनत: | by eating mud, |
रुजा भवेत्-इति | sickness may be, thus |
भीता जननी | (Thy) frightened mother |
चुकोप सा | she became angry |
O Lord! At the time of the deluge Thou do consume everything earth water
etc. Yet Thy mother was frightened that Thou may fall sick by eating
mud and so she became angry.
अयि दुर्विनयात्मक त्वया किमु मृत्सा बत वत्स भक्षिता ।
इति मातृगिरं चिरं विभो वितथां त्वं प्रतिजज्ञिषे हसन् ॥४॥
इति मातृगिरं चिरं विभो वितथां त्वं प्रतिजज्ञिषे हसन् ॥४॥
अयि दुर्विनयात्मक | O naughty (one) |
त्वया किमु | by you was it |
मृत्सा बत | that mud indeed |
वत्स भक्षिता | O son, was eaten |
इति मातृगिरं | such the words of Thy mother |
चिरं विभो | for a long time O Lord |
वितथां त्वं | as false, Thee |
प्रतिजज्ञिषे हसन् | asserted laughingly |
O you naughty one! Is it that you have eaten mud O son!' O Lord! These
words of Thy mother, for a long time, Thou kept on denying and
laughingly asserted that Thou had not done so.
अयि ते सकलैर्विनिश्चिते विमतिश्चेद्वदनं विदार्यताम् ।
इति मातृविभर्त्सितो मुखं विकसत्पद्मनिभं व्यदारय: ॥५॥
इति मातृविभर्त्सितो मुखं विकसत्पद्मनिभं व्यदारय: ॥५॥
अयि ते | O Boy! Of you |
सकलै:-विनिश्चिते | by every one asserted |
विमति:-चेत्- | is, if disagreed |
वदनं विदार्यताम् | mouth (please) open |
इति मातृ-विभर्त्सित: | thus by mother reprimanded |
मुखं विकसत्-पद्म-निभम् | the mouth opening, lotus like |
व्यदारय: | (Thou) opened |
O Boy! If you deny what all the others are saying, please open your
mouth.' Thus reprimanded by Thy mother, Thou opend Thy mouth as a lotus
in full bloom.
अपि मृल्लवदर्शनोत्सुकां जननीं तां बहु तर्पयन्निव ।
पृथिवीं निखिलां न केवलं भुवनान्यप्यखिलान्यदीदृश: ॥६॥
पृथिवीं निखिलां न केवलं भुवनान्यप्यखिलान्यदीदृश: ॥६॥
अपि मृल्-लव | even a mud trace |
दर्शन-उत्सुकां | eager to see |
जननीं तां | to mother that |
बहु तर्पयन्-इव | very much trying to please as though, |
पृथिवीं निखिलां | the earth whole |
न केवलं | not only |
भुवनान्-अपि- | the other worlds also |
अखिलान्-अदीदृश: | entirely showed |
Thy mother was eager to see just a trace of mud in Thy mouth. As though
to please her, and to give her abundant satisfaction Thou showed her in
Thy mouth not only this whole earth but the entire universe.
कुहचिद्वनमम्बुधि: क्वचित् क्वचिदभ्रं कुहचिद्रसातलम् ।
मनुजा दनुजा: क्वचित् सुरा ददृशे किं न तदा त्वदानने ॥७॥
मनुजा दनुजा: क्वचित् सुरा ददृशे किं न तदा त्वदानने ॥७॥
कुहचित्-वनम्- | somewhere the forests |
अम्बुधि: क्वचित् | the oceans somewhere |
क्वचित्-अभ्रं | somewhere the sky |
कुहचित्-रसातलम् | somewhere the Rasaatala |
मनुजा: दनुजा: | human beings, demons |
क्वचित् सुरा: | somewhere the devas |
ददृशे किं न | seen what not was |
तदा त्वत्-आनने | at that time in Thy mouth |
At that time, in Thy mouth what not was seen by Yashodaa? Somewhere the
forests and oceans, somewhere the skies and Rasaatala, human beings and
demons, gods and devas!
कलशाम्बुधिशायिनं पुन: परवैकुण्ठपदाधिवासिनम् ।
स्वपुरश्च निजार्भकात्मकं कतिधा त्वां न ददर्श सा मुखे ॥८॥
स्वपुरश्च निजार्भकात्मकं कतिधा त्वां न ददर्श सा मुखे ॥८॥
कलश-अम्बुधि-शायिनं | in the mik ocean, the recliner |
पुन: पर-वैकुण्ठपद- | as the Paramaatamaa, in the Vaikuntha abode |
अधिवासिनम् | the resident |
स्व-पुर:-च | in front of herself |
निज-अर्भक-आत्मकं | as her own son |
कतिधा | in how many ways |
त्वाम् न ददर्श | Thee did not see |
सा मुखे | she in (Thy) mouth |
Yashodaa saw in Thy mouth the recliner in the milk ocean. Again she saw
Paramaatamaa, the resident of the Vaikunth abode. Then she saw Thee as
her son in front of her. In how many different ways did she not see
Thee.
विकसद्भुवने मुखोदरे ननु भूयोऽपि तथाविधानन: ।
अनया स्फुटमीक्षितो भवाननवस्थां जगतां बतातनोत् ॥९॥
अनया स्फुटमीक्षितो भवाननवस्थां जगतां बतातनोत् ॥९॥
विकसत्-भुवने | revealing the worlds |
मुख-उदरे | in the inside of the mouth |
ननु भूय:-अपि | indeed then again also |
तथा-विध-आनन: | that same type of face |
अनया स्फुटम्-ईक्षित: | by her was clearly seen |
भवान्-अनवस्थां | Thou as the infinitude |
जगतां | of the universe |
बत्-आतनोत् | definitely expounded |
In the cavity of Thy mouth she saw all the worlds, where even Thou were
present with Thy mouth open, once again, in which again all the worlds
were seen; and so on endlessly. This definitely expounded Thou as the
infinitude of the universe.
धृततत्त्वधियं तदा क्षणं जननीं तां प्रणयेन मोहयन् ।
स्तनमम्ब दिशेत्युपासजन् भगवन्नद्भुतबाल पाहि माम् ॥१०॥
स्तनमम्ब दिशेत्युपासजन् भगवन्नद्भुतबाल पाहि माम् ॥१०॥
धृत-तत्त्व-धियं | holding the reality in the mind |
तदा क्षणं | at that time for a moment |
जननीं तां | to the mother |
प्रणयेन मोहयन् | by affection enchanting (deluding) |
स्तनम्-अम्ब दिश- | breast milk O Mother give' |
इति-उपासजन् | thus embracing |
भगवन्- | O Lord! |
अद्भुत-बाल | O Wonderful Child! |
पाहि माम् | protect me |
At that time for a moment, Yashodaa had a flash of illumination. Thou
with affection deluded her and clung to her, calling her 'Mother' and
demanded to be suckled. O Lord! Thou the Wonderous Child! Deign to
protect me.
दशक ४६
अयि देव पुरा किल त्वयि स्वयमुत्तानशये स्तनन्धये ।
परिजृम्भणतो व्यपावृते वदने विश्वमचष्ट वल्लवी ॥१॥
हे देव! अपने बाल्य काल में आप एकबार सीधे सोये हुए स्तनपान कर रहे थे। उसी
समय जम्भाई लेते हुए आपके खुले मुख में गोपी यशोदा ने पूरे विश्व को देखा।
पुनरप्यथ बालकै: समं त्वयि लीलानिरते जगत्पते ।
फलसञ्चयवञ्चनक्रुधा तव मृद्भोजनमूचुरर्भका: ॥२॥
और एकबार जब आप बालकों के साथ लीला क्रीडा में व्यस्त थे तब फलों के संचय
में छलित बालक आप से क्रुद्ध हो गये और उन्होंने यशोदा को आपकी मट्टी खाने
की बात बता दी।
अयि ते प्रलयावधौ विभो क्षितितोयादिसमस्तभक्षिण: ।
मृदुपाशनतो रुजा भवेदिति भीता जननी चुकोप सा ॥३॥
अयि विभो! प्रलय काल में पृथ्वी जल आदि समस्त ब्रह्माण्ड का भक्षण करने
वाले आप मिट्टी खाने से रोगी हो जायेंगे इस डर से माता कुपित हो गई।
अयि दुर्विनयात्मक त्वया किमु मृत्सा बत वत्स भक्षिता ।
इति मातृगिरं चिरं विभो वितथां त्वं प्रतिजज्ञिषे हसन् ॥४॥
'अरे दुष्ट पुत्र! तुमने मिट्टी ही खाई थी या कुछ और?' हे विभो! माता के
ऐसा पूछने पर कुछ समय तक आप हंसते हुए माता के वचन को असत्य बताते रहे।
अयि ते सकलैर्विनिश्चिते विमतिश्चेद्वदनं विदार्यताम् ।
इति मातृविभर्त्सितो मुखं विकसत्पद्मनिभं व्यदारय: ॥५॥
'अरे! तुम्हारे ये सभी साथी निश्चित रूप से बता रहे हैं कि तुमने मिट्टी
खाई है। यदि ऐसा नहीं है तो अपना मुंह खोलो।' माता के इस प्रकार डांटने पर
आपने खिलते हुए कमल के समान अपना मुंह खोल दिया।
अपि मृल्लवदर्शनोत्सुकां जननीं तां बहु तर्पयन्निव ।
पृथिवीं निखिलां न केवलं भुवनान्यप्यखिलान्यदीदृश: ॥६॥
माता आपके मुख में मिट्टी का कण मात्र भी मिट्टी देखने को उत्सुक थीं। उनको
बहुत सन्तुष्ट करते हुए ही मानों आपने न केवल पूरी पृथ्वी अपितु समस्त
भुवनों को भी दिखला दिया।
कुहचिद्वनमम्बुधि: क्वचित् क्वचिदभ्रं कुहचिद्रसातलम् ।
मनुजा दनुजा: क्वचित् सुरा ददृशे किं न तदा त्वदानने ॥७॥
उस समय, कहीं पर वन और कहीं समुद्र, कहीं पर आकाश तो कहीं रसातल, कहीं मानव
कहीं असुर तो कहीं देवता गण, इस प्रकार क्या क्या नहीं देखा माता यशोदा ने
आपके मुख में?
कलशाम्बुधिशायिनं पुन: परवैकुण्ठपदाधिवासिनम् ।
स्वपुरश्च निजार्भकात्मकं कतिधा त्वां न ददर्श सा मुखे ॥८॥
क्षीर सागर में शेष शैया पर शयन करते हुए, वैकुण्ठ पद के निवासी परमात्म
स्वरूप में, स्वयं के सामने अपने पुत्र के रूप में, किस किस रूप में उसने
नही देखा आपको आपके ही मुख में?
विकसद्भुवने मुखोदरे ननु भूयोऽपि तथाविधानन: ।
अनया स्फुटमीक्षितो भवाननवस्थां जगतां बतातनोत् ॥९॥
आपके मुख गह्वर में यशोदा ने स्पष्ट रूप से भुवनों को देखा और उसी प्रकार
खुले हुए मुंह वाले आपको देखा, जिसमें फिर भुवन और मुख दिख रहे थे। इस
प्रकार आपने जगत की अनवस्था को प्रतिपादित किया।
धृततत्त्वधियं तदा क्षणं जननीं तां प्रणयेन मोहयन् ।
स्तनमम्ब दिशेत्युपासजन् भगवन्नद्भुतबाल पाहि माम् ॥१०॥
तब क्षण भर के लिये यशोदा को मन में तत्त्व ज्ञान हो गया। फिर आप जननी को
स्नेह से मोहित कर के, 'दूध दो मां' कहते हुए गोद में चढने का उपक्रम करने
लगे। हे भगवन! हे अद्भुत बालक! मेरी रक्षा करें।
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