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Sunday, September 18, 2016

Narayaneeyam - Dasakam 64 (Crowning as Govinda)

Narayaneeyam - Dasakam 64 (Crowning as Govinda) 

 https://youtu.be/uHxoNANstAc

 

http://youtu.be/CP9Zqqdjc8Q

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Dashaka 64
आलोक्य शैलोद्धरणादिरूपं प्रभावमुच्चैस्तव गोपलोका: ।
विश्वेश्वरं त्वामभिमत्य विश्वे नन्दं भवज्जातकमन्वपृच्छन् ॥१॥
आलोक्य seeing
शैल-उद्धरण- the lifting of the mountain
आदि-रूपं and other feats (of Thee)
प्रभावम्-उच्चै:- the great powers
तव of Thee
गोप-लोका: the cowherds,
विश्वेश्वरं the Lord of the Universe
त्वाम्-अभिमत्य Thee considering
विश्वे नन्दं all of them to Nanda
भवत्-जातकम्- Thy horoscope
अन्वपृच्छन् asked again and again
The Gopaalakas witnessed Thy tremendous feats such as the lifting of the mountain and Thy great powers. They considered Thee to be the Lord of the Universe. All of them asked Nanda again and again about Thy horoscope.
गर्गोदितो निर्गदितो निजाय वर्गाय तातेन तव प्रभाव: ।
पूर्वाधिकस्त्वय्यनुराग एषामैधिष्ट तावत् बहुमानभार: ॥२॥
गर्ग-उदित: as Garg Muni had said
निर्गदित: was told
निजाय वर्गाय for his own clansmen
तातेन तव प्रभाव: by Thy father, Thy grreatness
पूर्वाधिक: more than before
त्वयि-अनुराग in Thee love
एषाम्-ऐधिष्ट for these (people) increased
तावत् बहुमानभार: thereafter, also great respect
Thy father told his clansmen of what sage Garg had prophesied about Thy greatness. Thence forward their love and also great respect for Thee increased much more than before.
ततोऽवमानोदिततत्त्वबोध: सुराधिराज: सह दिव्यगव्या।
उपेत्य तुष्टाव स नष्टगर्व: स्पृष्ट्वा पदाब्जं मणिमौलिना ते ॥३॥
तत:-अवमान-उदित- then by disgrace caused
तत्त्व-बोध: truth realising
सुराधिराज: the lord of the gods, Indra
सह दिव्य-गव्या with the celestial cow (Kaamadhenu)
उपेत्य तुष्टाव coming (to Thee) praised
स नष्टगर्व: he whose pride was shattered
स्पृष्ट्वा पदाब्जं touching Thy lotus feet
मणिमौलिना (by his) bejewelled crown
ते Thy (feet)
Then as a result of being disgraced his pride was shattered and the lord of the gods, Indra realised the truth about Thee. He came to Thee with the divine cow Kaamadhenu, and sang Thy praises. He touched Thy lotus feet with his bejewelled crowned head.
स्नेहस्नुतैस्त्वां सुरभि: पयोभिर्गोविन्दनामाङ्कितमभ्यषिञ्चत् ।
ऐरावतोपाहृतदिव्यगङ्गापाथोभिरिन्द्रोऽपि च जातहर्ष: ॥४॥
स्नेह-स्नुतै:- with love overflowing (as milk)
त्वां सुरभि: पयोभि:- Thee, Surabhi (Kaamadhenu) with milk
गोविन्द-नाम- (Thee) with the name Govind
अङ्कितम्-अभ्यषिञ्चत् marked and anointed
ऐरावत-उपाहृत- (and) by Airaavata brought
दिव्य-गङ्गा- with the celestial Ganges
पाथोभि:-इन्द्र:-अपि waters Indra also
च (अभिषिञ्चत्) and (annointed) (Thee)
जात-हर्ष: delightfully
The divine cow Kaamadhenu annointed Thee with her milk overflowing with love for Thee and so Thou were named 'Govinda', the Lord of cows. Airaavata the elephant of Indra brought the waters of the celestial Ganges and Indra also annointed Thee with it delightfully.
जगत्त्रयेशे त्वयि गोकुलेशे तथाऽभिषिक्ते सति गोपवाट: ।
नाकेऽपि वैकुण्ठपदेऽप्यलभ्यां श्रियं प्रपेदे भवत: प्रभावात् ॥५॥
जगत्त्रय-ईशे O Lord of the three Worlds
त्वयि गोकुलेशे (when) Thou as the Lord of Gokula
तथा-अभिषिक्ते सति thus were annointed
गोपवाट: Gokula,
नाके-अपि in heaven also
वैकुण्ठपदे-अपि- in Vaikuntha also
अलभ्यां श्रियं unattaainable, (such) prosperity
प्रपेदे भवत: प्रभावात् attained by Thy grace
O Lord of the three worlds! Thou were annointed as the Lord of Gokula. By Thy grace and glory, Gokula attained a prosperity unknown and unheard of in either the heavens or even in Vaikuntha.
कदाचिदन्तर्यमुनं प्रभाते स्नायन् पिता वारुणपूरुषेण ।
नीतस्तमानेतुमगा: पुरीं त्वं तां वारुणीं कारणमर्त्यरूप: ॥६॥
कदाचित्- once
अन्तर्-यमुनं in the river Yamunaa
प्रभाते स्नायन् पिता very early in the morning bathing, (Thy) father
वारुण-पूरुषेण by Varuna's emissary
नीत:-तम्-आनेतुम्- was taken away, him to bring back
अगा: पुरीं (Thou) went to the city
त्वं तां वारुणीं Thou ,of Varuna
कारण-मर्त्य-रूप: (to fulfill the) purpose of human form
Once very early in the morning, Thy father was bathing in the river Yamunaa. He was taken away by the emissary of Varuna. To bring him back and also to fulfill the purpose of Thy taking human form, Thou went to the city of Varuna .
ससम्भ्रमं तेन जलाधिपेन प्रपूजितस्त्वं प्रतिगृह्य तातम् ।
उपागतस्तत्क्षणमात्मगेहं पिताऽवदत्तच्चरितं निजेभ्य: ॥७॥
ससम्भ्रमं with great surprise
तेन जलाधिपेन by him, the Lord of the waters
प्रपूजित:-त्वं was well worshipped Thou
प्रतिगृह्य तातम् taking (Thy) father
उपागत:- returned
तत्-क्षणम्- at once
आत्म-गेहं to Thy own house
पिता-अवदत्- father said
तत्-चरितं that incident
निजेभ्य: to his clansmen
The Lord of the waters, Varuna, was taken by surprise at Thy unexpected appearance. Thou were well worshipped by him. Thou immediately returned home with Thy father. Thy father, Nanda, later narrated this incident to his clansmen.
हरिं विनिश्चित्य भवन्तमेतान् भवत्पदालोकनबद्धतृष्णान् ॥
निरीक्ष्य विष्णो परमं पदं तद्दुरापमन्यैस्त्वमदीदृशस्तान् ॥८॥
हरिं विनिश्चित्य as Hari knowing with certainty
भवन्तम्-एतान् Thee, to them
भवत्-पद-आलोकन- Thy state (of bliss) to see
बद्ध-तृष्णान् tied by (such a) thirst
निरीक्ष्य विष्णो seeing, O All pervading Lord!
परमं पदं तत्- supreme state that
दुरापम्-अन्यै:- not easily attainable by others
त्वम्-अदीदृश:-तान् Thou showed to them
The Gopas were convinced that Thou were definitely Hari Himself. O All pervading Lord! They were tied with the intense thirst of having a direct experience of Thy Supreme State. Thou showed them that state which is not attainable to men without devotion.
स्फुरत्परानन्दरसप्रवाहप्रपूर्णकैवल्यमहापयोधौ ।
चिरं निमग्ना: खलु गोपसङ्घास्त्वयैव भूमन् पुनरुद्धृतास्ते ॥९॥
स्फुरत्- shining
परानन्दरस- (with) supreme bliss nectar
प्रवाह-प्रपूर्ण- flow, full of it
कैवल्य-महापयोधौ (in the) liberation's great ocean
चिरं निमग्ना: for long immersed
खलु गोपसङ्घा:- indeed the Gopas
त्वया-एव भूमन् by Thee only, O Infinite One!
पुन:-उद्धृता:-ते again were taken out, they
The great ocean of liberation was full and overflowing and lustruous with the supreme blissful nectar. The groups of Gopas were indeed immersed in it for long. O Infinite One! By Thee alone they were drawn back to their worldly state of consciousness.
करबदरवदेवं देव कुत्रावतारे
निजपदमनवाप्यं दर्शितं भक्तिभाजाम् ।
तदिह पशुपरूपी त्वं हि साक्षात् परात्मा
पवनपुरनिवासिन् पाहि मामामयेभ्य: ॥१०॥
कर-बदर-वत्-एवं in hand a berry like thus
देव कुत्र-अवतारे O Lord! In which incarnation
निज-पदम्-अनवाप्यम् Thy own abode (which is) unattainable
दर्शितं भक्तिभाजाम् is shown to the devotees
तत्-इह पशुपरूपी so here, in the cowherd form
त्वं हि साक्षात् Thou indeed, in reality are
परात्मा Supreme Lord!
पवनपुरनिवासिन् O Dweller of Guruvaayura!
पाहि माम्- save me
आमयेभ्य: from ailments
O Lord! Thy unattainable abode was revealed to the devotees with such ease and clearly as a berry in one's palm. In which other incarnation of Thee has such a thing happened? So, it is certain that here in the form of a cowherd, Thou are the Supreme Self. O Dweller of Guruvaayur! save me from ailments.


दशक ६४
आलोक्य शैलोद्धरणादिरूपं प्रभावमुच्चैस्तव गोपलोका: ।
विश्वेश्वरं त्वामभिमत्य विश्वे नन्दं भवज्जातकमन्वपृच्छन् ॥१॥
आलोक्य देख कर
शैल-उद्धरण- गिरिराज को उठाने
आदि-रूपं आदि (अन्य) प्रकार के
प्रभावम्-उच्चै:- प्रभाव को उत्कृष्ट
तव आपके
गोप-लोका: गोप जन
विश्वेश्वरं विश्वेश्वर
त्वाम्-अभिमत्य आपको मान कर
विश्वे नन्दं (वे लोग) सब नन्द को
भवत्-जातकम्- आपकी जन्म पत्रिका (के बारे में)
अन्वपृच्छन् बार बार पूछने लगे
गोप जन आपके द्वारा पर्वत को उठाये जाने जैसे अन्य उत्कृष्ट प्रभाव वाले कार्य को देख कर आपको जगदीश्वर मानने लगे और नन्द से बार बार आपकी जन्मपत्रिका के विषय में पूछने लगे।
गर्गोदितो निर्गदितो निजाय वर्गाय तातेन तव प्रभाव: ।
पूर्वाधिकस्त्वय्यनुराग एषामैधिष्ट तावत् बहुमानभार: ॥२॥
गर्ग-उदित: गर्ग के द्वारा कहा गया
निर्गदित: कह दिया
निजाय वर्गाय स्वजन समुदाय को
तातेन तव प्रभाव: (आपके) पिता के द्वारा आपके प्रभाव को
पूर्वाधिक: पहले से भी अधिक
त्वयि-अनुराग आपमें स्नेह
एषाम्-ऐधिष्ट इन लोगों का बढ गया
तावत् बहुमानभार: फिर अधिक समादर भी
गर्ग मुनि ने आपका जो महान प्रभाव कहा था उसे आपके पिता ने अपने स्वजन समुदाय को कह सुनाया। इससे उन लोगों का आपके प्रति स्नेह और समादर पहले से भी अधिक बढ गया।
ततोऽवमानोदिततत्त्वबोध: सुराधिराज: सह दिव्यगव्या।
उपेत्य तुष्टाव स नष्टगर्व: स्पृष्ट्वा पदाब्जं मणिमौलिना ते ॥३॥
तत:-अवमान-उदित- तदनन्तर अपमान से जनित
तत्त्व-बोध: तत्त्व बोध वाले
सुराधिराज: इन्द्र ने
सह दिव्य-गव्या साथ दिव्य गौ के
उपेत्य तुष्टाव आ कर स्तुति की
स नष्टगर्व: वह नष्ट हुए गर्व वाला
स्पृष्ट्वा पदाब्जं स्पर्श कर के चरण्कमल को
मणिमौलिना मणि मण्डित मुकुट से
ते आपके
तदनन्तर अपमान के कारण जिसका तत्त्व ज्ञान प्रस्फुटित हुआ था वह इन्द्र दिव्य धेनु सुरभि को ले कर आपके पास आया और आपकी स्तुति की। नष्ट हुए गर्व वाले इन्द्र ने अपने मणि मण्डित मुकुट से आपके चरण कमलों को स्पर्श करके प्रणाम किया।
स्नेहस्नुतैस्त्वां सुरभि: पयोभिर्गोविन्दनामाङ्कितमभ्यषिञ्चत् ।
ऐरावतोपाहृतदिव्यगङ्गापाथोभिरिन्द्रोऽपि च जातहर्ष: ॥४॥
स्नेह-स्नुतै:- स्नेह से झरते हुए
त्वां सुरभि: पयोभि:- आपको सुरभि ने दूध से
गोविन्द-नाम- गोविन्द नाम से
अङ्कितम्-अभ्यषिञ्चत् चिह्नित किया और अभिषेक किया
ऐरावत-उपाहृत- ऐरावत के द्वारा लाया गया
दिव्य-गङ्गा- दिव्य गङ्गा
पाथोभि:-इन्द्र:-अपि जल से इन्द्र ने भी
च (अभिषिञ्चत्) और (अभिषेक किया)
जात-हर्ष: हो कर प्रसन्न
सुरभि ने स्नेह से झरते हुए दूध से आपका अभिषेक किया और गोविन्द नाम से आपको चिह्नित किया। ऐरावत के द्वारा लाए गए दिव्य गङ्गा जल से प्रसन्न हो कर इन्द्र ने भी प्रसन्नतापूर्वक आपका अभिषेक किया।
जगत्त्रयेशे त्वयि गोकुलेशे तथाऽभिषिक्ते सति गोपवाट: ।
नाकेऽपि वैकुण्ठपदेऽप्यलभ्यां श्रियं प्रपेदे भवत: प्रभावात् ॥५॥
जगत्त्रय-ईशे हे जगत्त्रय ईश!
त्वयि गोकुलेशे आपके गोकुल के ईश्वर के
तथा-अभिषिक्ते सति इस प्रकार अभिषिक्त होने पर
गोपवाट: गोकुल
नाके-अपि स्वर्ग में भी
वैकुण्ठपदे-अपि- वैकुण्ठ धाम में भी
अलभ्यां श्रियं अलभ्य वैभव को
प्रपेदे भवत: प्रभावात् प्राप्त किया आपके प्रभाव से
हे त्रिजगत के ईश! गोकुल के ईश्वर के रूप में आप के इस प्रकार अभिषिक्त होने पर, आपके प्रभाव से गोकुल को ऐसा वैभव प्राप्त हुआ जो स्वर्ग और वैकुण्ठ धाम में भी अलभ्य है।
कदाचिदन्तर्यमुनं प्रभाते स्नायन् पिता वारुणपूरुषेण ।
नीतस्तमानेतुमगा: पुरीं त्वं तां वारुणीं कारणमर्त्यरूप: ॥६॥
कदाचित्- एक बार
अन्तर्-यमुनं अन्दर यमुना के
प्रभाते स्नायन् पिता प्रभात समय में स्नान करते हुए पिता को
वारुण-पूरुषेण वरुण के पुरुष
नीत:-तम्-आनेतुम्- ले गए, उनको लाने के लिए
अगा: पुरीं गए पुरी को
त्वं तां वारुणीं आप उस वरुण की
कारण-मर्त्य-रूप: कारण वश मनुष्य रूप
एक बार प्रभात समय में आपके पिता नन्द यमुना में स्नान करने गए। स्नान करते समय उनको वरुण के पार्षद उठा कर ले गए। तब, कारण वश मनुष्य रूप धारण करने वाले आप उनको लाने के लिये वरुण की पुरी में गए।
ससम्भ्रमं तेन जलाधिपेन प्रपूजितस्त्वं प्रतिगृह्य तातम् ।
उपागतस्तत्क्षणमात्मगेहं पिताऽवदत्तच्चरितं निजेभ्य: ॥७॥
ससम्भ्रमं विस्मय सहित
तेन जलाधिपेन उस जल देवता के (वरुण के) द्वारा
प्रपूजित:-त्वं पूजन किया गया आपका
प्रतिगृह्य तातम् ले कर के पिता को
उपागत:- लौट आए
तत्-क्षणम्- उसी क्षण
आत्म-गेहं स्वयं के घर को
पिता-अवदत्- पिता ने बताया
तत्-चरितं वह चरित्र (आपका)
निजेभ्य: अपने स्वजनों को
आपके आगमन को देख कर जलदेवता वरुण विस्मित हो गए और आपका पूजन किया। उसी क्षण आप अपने पिता को ले कर अपने घर लौट आए। पिता ने आपका यह चरित्र को स्वजनों को कह सुनाया।
हरिं विनिश्चित्य भवन्तमेतान् भवत्पदालोकनबद्धतृष्णान् ॥
निरीक्ष्य विष्णो परमं पदं तद्दुरापमन्यैस्त्वमदीदृशस्तान् ॥८॥
हरिं विनिश्चित्य हरि को निश्चय पूर्वक जान कर
भवन्तम्-एतान् आपको इन लोगों को
भवत्-पद-आलोकन- आपके धाम को देखने के लिए
बद्ध-तृष्णान् बन्धे हुए तृष्णा से (उनको)
निरीक्ष्य विष्णो देख कर हे विष्णो!
परमं पदं तत्- परम धाम उसको
दुरापम्-अन्यै:- दुर्लभ अन्य लोगों को
त्वम्-अदीदृश:-तान् आपने दिखाया उनको
गोपों को निश्चय ही यह ज्ञात हो गया कि आप हरि ही हैं। तब उनके मन में आपके धाम को देखने की इच्छा प्रबल हो उठी। हे विष्णो! उनकी यह तृष्णा देख कर आपने उनको वह परम धाम दिखाया जो अन्य लोगों के लिए दुर्लभ है।
स्फुरत्परानन्दरसप्रवाहप्रपूर्णकैवल्यमहापयोधौ ।
चिरं निमग्ना: खलु गोपसङ्घास्त्वयैव भूमन् पुनरुद्धृतास्ते ॥९॥
स्फुरत्- कान्तिमय
परानन्दरस- परम आनन्द रस के
प्रवाह-प्रपूर्ण- प्रवाह से परिपूर्ण
कैवल्य-महापयोधौ कैवल्य के महार्णव में
चिरं निमग्ना: देर तक निमग्न हुए
खलु गोपसङ्घा:- नि:सन्देह वे गोपगण
त्वया-एव भूमन् आपके द्वारा ही हे भूमन
पुन:-उद्धृता:-ते फिर से निकाले गए वे
वे गोपगण परम आनन्द रस के प्रवाह से परिपूर्ण उस कैवल्य के कान्तिमय महार्णव में देर तक निमग्न रहे। हे भूमन! फिर वहां से वे सभी नि:सन्देह आप ही के द्वारा निकाले गए। अर्थात आप ही उनको इस भौतिक धरातल पर ले कर आए।
करबदरवदेवं देव कुत्रावतारे
निजपदमनवाप्यं दर्शितं भक्तिभाजाम् ।
तदिह पशुपरूपी त्वं हि साक्षात् परात्मा
पवनपुरनिवासिन् पाहि मामामयेभ्य: ॥१०॥
कर-बदर-वत्-एवं हाथ में बेर के समान इस प्रकार
देव कुत्र-अवतारे हे देव! कहां किन अवतारों में
निज-पदम्-अनवाप्यम् स्वयं के धाम को जो अप्राप्य है
दर्शितं भक्तिभाजाम् दिखाया भक्त जनों को
तत्-इह पशुपरूपी इसलिये यहां गोपाल के रूप में (अवतरित)
त्वं हि साक्षात् आप ही साक्षात
परात्मा परमात्मा हैं
पवनपुरनिवासिन् हे पवनपुरनिवासिन!
पाहि माम्- रक्षा कीजिए मेरी
आमयेभ्य: रोगों से
हे देव! आपने अपने भक्त जनों को अपना अप्राप्य धाम इतनी सहजता से दिखा दिया मानो हाथ पर रखा हुआ बेर हो। ऐसा आपके और किन अवतारों में कहां सम्भव हुआ है? इसलिये गोपाल के रूप में अवतरित आप ही साक्षात परमात्मा हैं। हे पवनपुरनिवासिन! रोगों से मेरी रक्षा कीजिए।

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