Narayaneeyam - Dasakam 47 ( Tying Krishna to the Mortar)
https://youtu.be/nEmko-40z7g
https://youtu.be/KFChGaYcra0
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Dashaka 47
एकदा दधिविमाथकारिणीं मातरं समुपसेदिवान् भवान् ।
स्तन्यलोलुपतया निवारयन्नङ्कमेत्य पपिवान् पयोधरौ ॥१॥
स्तन्यलोलुपतया निवारयन्नङ्कमेत्य पपिवान् पयोधरौ ॥१॥
एकदा | once |
दधि-विमाथ-कारिणीं | the curd churning as she was |
मातरं | Thy mother |
समुपसेदिवान् भवान् | approached Thou |
स्तन्य-लोलुपतया | brist milk desiring |
निवारयन्- | obstructing (the churning) |
अङ्कम्-एत्य | up (her) lap climbing |
पपिवान् पयोधरौ | (Thou) sucked her breasts |
Once when Thy mother was churning the curd, Thou approached her in the
eagerness to be breast fed. Obstructing her churning Thou climbed up her
lap and sucked at her breasts.
अर्धपीतकुचकुड्मले त्वयि स्निग्धहासमधुराननाम्बुजे ।
दुग्धमीश दहने परिस्रुतं धर्तुमाशु जननी जगाम ते ॥२॥
दुग्धमीश दहने परिस्रुतं धर्तुमाशु जननी जगाम ते ॥२॥
अर्धपीत- | having half drunk |
कुचकुड्मले | the breasts lotus bud like |
त्वयि स्निग्ध-हास- | (when) Thee with a charming smile |
मधुर-आनन-अम्बुजे | on the sweet face, lotus like |
दुग्धम्-ईश | the milk, O Lord! |
दहने परिस्रुतं | on the fire, having overflown |
धर्तुम्-आशु | to hold it, fast |
जननी जगाम ते | mother went away, Thy |
O Lord! Thou had half-way sucked her lotus bud like breasts, with a
charming smile playing on the sweet lotus like face. Just then, Thy
mother went away in a haste to quickly hold the milk which had overflown
on the fire.
सामिपीतरसभङ्गसङ्गतक्रोधभारपरि भूतचेतसा।
मन्थदण्डमुपगृह्य पाटितं हन्त देव दधिभाजनं त्वया ॥३॥
मन्थदण्डमुपगृह्य पाटितं हन्त देव दधिभाजनं त्वया ॥३॥
सामि-पीत- | half drunk, (so) |
रस-भङ्ग-सङ्गत- | the joy being interrupted, as a result |
क्रोध-भार- | angered greatly |
परिभूत-चेतसा | with the mind overcome |
मन्थ-दण्डम्- | the churning rod |
उपगृह्य पाटितं | taking up, was broken |
हन्त देव | Oh! O Lord! |
दधि-भाजनम् त्वया | the curd pot by Thee |
O Lord! Having drunk half way, and as a result the joy being
interrupted, Thy mind was overcome with great rage. Oh! Then taking up
the churning rod, the curd pot was broken by Thee.
उच्चलद्ध्वनितमुच्चकैस्तदा सन्निशम्य जननी समाद्रुता ।
त्वद्यशोविसरवद्ददर्श सा सद्य एव दधि विस्तृतं क्षितौ ॥४॥
त्वद्यशोविसरवद्ददर्श सा सद्य एव दधि विस्तृतं क्षितौ ॥४॥
उच्चलत्-ध्वनितम्- | by the loud sound |
उच्चकै:-तदा | rising high then |
सन्निशम्य | hearing |
जननी समाद्रुता | Thy mother hastily came running |
त्वत्-यश:-विसर:- | Thy fame spreading |
वत्-ददर्श सा | as though, she saw |
सद्य एव दधि | right then the curd |
विस्तृतं क्षितौ | spreading on the floor |
Thy mother came running when she heard the loud sound rising of the pot
being broken. Right then she saw the curd spreading on the floor,even
like Thy pure unblemished fame spreading in the universe.
वेदमार्गपरिमार्गितं रुषा त्वमवीक्ष्य परिमार्गयन्त्यसौ ।
सन्ददर्श सुकृतिन्युलूखले दीयमाननवनीतमोतवे ॥५॥
सन्ददर्श सुकृतिन्युलूखले दीयमाननवनीतमोतवे ॥५॥
वेदमार्ग-परिमार्गितं | through the path of the Vedas, saught after |
रुषा त्वाम्-अवीक्ष्य | the angered (Yashodaa), Thee not seeing |
परिमार्गयन्ती- | searching (Thee) |
असौ सन्ददर्श | she saw |
सुकृतिनी- | the fortunate one (Yashodaa) |
उलूखले | (Thee) on the mortar |
दीयमान-नवनीतम्- | giving butter |
ओतवे | to the cat |
Thou who are saught after through the path of the Vedas, were not seen
anywhere by Thy angered mother. She, the fortunate one searched
everywhere and saw Thee sitting on the mortar feeding butter to the cat.
त्वां प्रगृह्य बत भीतिभावनाभासुराननसरोजमाशु सा ।
रोषरूषितमुखी सखीपुरो बन्धनाय रशनामुपाददे ॥६॥
रोषरूषितमुखी सखीपुरो बन्धनाय रशनामुपाददे ॥६॥
त्वां प्रगृह्य बत | Thee getting hold of, Oh! |
भीति-भावना- | by the expression of fear |
भासुर-आनन-सरोजम्- | the shining face which was lotus like |
आशु सा | hastily she |
रोष-रूषित-मुखी | quivering with anger faced (she) |
सखी-पुर: | in front of her friends |
बन्धनाय | to tie up Thee |
रशनाम्-उपाददे | a rope took |
Oh! Yashodaa with her face quivering due to anger, hastily caught hold
of Thee whose lotus like face was looking very sweet with pretended
fear. As her friends watched, she took a rope to tie Thee up.
बन्धुमिच्छति यमेव सज्जनस्तं भवन्तमयि बन्धुमिच्छती ।
सा नियुज्य रशनागुणान् बहून् द्व्यङ्गुलोनमखिलं किलैक्षत ॥७॥
सा नियुज्य रशनागुणान् बहून् द्व्यङ्गुलोनमखिलं किलैक्षत ॥७॥
बन्धुम्-इच्छति | as a friend,(who is) desired |
यम्-एव सज्जन:- | him alone , good people |
तं भवन्तम्-अयि | That Thee O Lord! |
बन्धुम्-इच्छती | to tie desiring |
सा नियुज्य | she using (tying together) |
रशना-गुणान् बहून् | pieces of rope, many |
द्व्यङ्गुल-ऊनम्- | by two fingers (long), short |
अखिलं | the whole length |
किल-ऐक्षत | indeed found |
All good men want to bind themselves to Thee alone in devotion. That
Thou O Lord! Yashodaa desiring to tie, found the length of the rope
short by two fingers, even though she attached many pieces of ropes to
lengthen it.
विस्मितोत्स्मितसखीजनेक्षितां स्विन्नसन्नवपुषं निरीक्ष्य ताम् ।
नित्यमुक्तवपुरप्यहो हरे बन्धमेव कृपयाऽन्वमन्यथा: ॥८॥
नित्यमुक्तवपुरप्यहो हरे बन्धमेव कृपयाऽन्वमन्यथा: ॥८॥
विस्मित्-उत्स्मित- | wonderstruck and smiling |
सखीजन-ईक्षितां | the friends (Gopis) watching |
स्विन्न-सन्न-वपुषं | (she, with) perspiring and exhausted body |
निरीक्ष्य ताम् | seeing her (Yashodaa) |
नित्य-मुक्त-वपु:- | forever free bodied |
अपि-अहो हरे | though O Hari! (Thou) |
बन्धम्-एव | bondage alone |
कृपया-अन्वमन्यथा: | compassionately accepted |
As Thy mother's friends were smilingly watching with wonder, Thou saw
her body perspiring and exhausted due to the effort. O Hari! Thou who
are the ever-free Being, out of compassion accepted the bondage.
स्थीयतां चिरमुलूखले खलेत्यागता भवनमेव सा यदा।
प्रागुलूखलबिलान्तरे तदा सर्पिरर्पितमदन्नवास्थिथा: ॥९॥
प्रागुलूखलबिलान्तरे तदा सर्पिरर्पितमदन्नवास्थिथा: ॥९॥
स्थीयतां | (may you) stay here |
चिरम्-उलूखले | for long at the mortar |
खल-इति- | O rouge, thus (saying) |
आगता भवनम्-एव | (when she) returned to the house only |
सा यदा प्राक्- | she when, earlier |
उलूखल-बिलान्तरे | in the mortar's cavity |
तदा सर्पि:-अर्पितम्- | then, the butter which was placed |
अदन्-अवास्थिथा: | eating Thou stayed |
As Yashodaa went back into the house, she said 'O Rogue! stay tied like
this to the mortar for long.' Thou stayed there eating the butter which
Thou had earlier placed in the cavity of the mortar.
यद्यपाशसुगमो विभो भवान् संयत: किमु सपाशयाऽनया ।
एवमादि दिविजैरभिष्टुतो वातनाथ परिपाहि मां गदात् ॥१०॥
एवमादि दिविजैरभिष्टुतो वातनाथ परिपाहि मां गदात् ॥१०॥
यदि-अपाश-सुगम: | if (Thou are) to the desireless easily attainable |
विभो भवान् | O All pervading Being! Thou |
संयत: किमु | were tied down, how come |
सपाशया-अनया | (who was) having a rope, by her (Yashodaa) |
एवम्-आदि | thus and so forth |
दिविजै:-अभिष्टुत: | by the gods in heaven praised |
वातनाथ | O Lord of Guruvaayur! |
परिपाहि मां गदात् | save me from my ailments. |
O All Pervading Being! If Thou are easily attainable to the desireless
(a-paash) people, who are not bound by desire, how was it that Yashodaa
was able to secure Thee with a (paash) rope for binding. Thou whose
glories were thus sung by the gods in the heaven, O Lord of Guruvaayur!
May Thou save me from my ailments.
दशक ४७
एकदा दधिविमाथकारिणीं मातरं समुपसेदिवान् भवान् ।
स्तन्यलोलुपतया निवारयन्नङ्कमेत्य पपिवान् पयोधरौ ॥१॥
स्तन्यलोलुपतया निवारयन्नङ्कमेत्य पपिवान् पयोधरौ ॥१॥
एकदा | एक दिन |
दधि-विमाथ-कारिणीं | दधि मन्थन करती हुई |
मातरं | माता के |
समुपसेदिवान् भवान् | समीप गये आप |
स्तन्य-लोलुपतया | स्तन पान करने के लोभ से |
निवारयन्- | रोकते हुए (मन्थन को) |
अङ्कम्-एत्य | गोद में चढ कर |
पपिवान् पयोधरौ | पीने लगे स्तन को |
एक दिन जब यशोदा दधि मन्थन कर रही थी, आप उनके समीप गये और स्तन पान करने
के लोभ से आप मन्थन को रोक कर उनकी गोद में चढ गये और स्तन पान करने लगे।
अर्धपीतकुचकुड्मले त्वयि स्निग्धहासमधुराननाम्बुजे ।
दुग्धमीश दहने परिस्रुतं धर्तुमाशु जननी जगाम ते ॥२॥
दुग्धमीश दहने परिस्रुतं धर्तुमाशु जननी जगाम ते ॥२॥
अर्धपीत- | आधा पीये हुए |
कुचकुड्मले | स्तन कमल कली के समान |
त्वयि स्निग्ध-हास- | आपको मधुर हंसते हुए को |
मधुर-आनन-अम्बुजे | कोमल मुख कमल को |
दुग्धम्-ईश | दूध को हे ईश्वर! |
दहने परिस्रुतं | आग पर उफनते हुए |
धर्तुम्-आशु | उठाने के लिये शीघ्र |
जननी जगाम ते | माता चली गई आपकी |
आधा पीये हुए कमल कली के समान स्तनों को, मधुरता से हंसते हुए कोमल मुख कमल
वाले आपको, छोड कर, हे ईश्वर! अग्नि पर रखे हुए उफनते हुए दूध को उठाने
के लिये आपकी माता शीघ्रता से चली गई।
सामिपीतरसभङ्गसङ्गतक्रोधभारपरिभूतचेतसा।
मन्थदण्डमुपगृह्य पाटितं हन्त देव दधिभाजनं त्वया ॥३॥
मन्थदण्डमुपगृह्य पाटितं हन्त देव दधिभाजनं त्वया ॥३॥
सामि-पीत- | आधा पीये हुए |
रस-भङ्ग-सङ्गत- | से हुए रस भङ्ग के कारण |
क्रोध-भार- | क्रोध से भरे हुए |
परिभूत-चेतसा | परिभूत चित्त वाले (आपने) |
मन्थ-दण्डम्- | मथानी को |
उपगृह्य पाटितं | उठा कर तोड दिया |
हन्त देव | हा देव! |
दधि-भाजनम् त्वया | दही के पत्र को आपने |
आधा ही स्तनपान कर पाने के कारण हुए रस भङ्ग से आपका चित्त क्रोध से
उद्विग्न हो गया। हा देव! तब आपने मथानी को उठाया और उससे दही पात्र को मार
कर उसे तोड डाला।
उच्चलद्ध्वनितमुच्चकैस्तदा सन्निशम्य जननी समाद्रुता ।
त्वद्यशोविसरवद्ददर्श सा सद्य एव दधि विस्तृतं क्षितौ ॥४॥
त्वद्यशोविसरवद्ददर्श सा सद्य एव दधि विस्तृतं क्षितौ ॥४॥
उच्चलत्-ध्वनितम्- | ऊंची आवाज |
उच्चकै:-तदा | उठती हुई तब |
सन्निशम्य | सुन कर |
जननी समाद्रुता | माता दौड कर आई |
त्वत्-यश:-विसर:- | आपके सुयश के विस्तार के |
वत्-ददर्श सा | समान देखा उसने |
सद्य एव दधि | तुरन्त ही दधी |
विस्तृतं क्षितौ | फैला हुआ धरती पर |
दही पात्र के टूटने की तीव्र ध्वनि सुन कर सशंकित माता यशोदा शीघ्र ही दौड
कर आईं। उन्होंने देखा संसार में आपके निर्मल सुयश के विस्तार के समान धरती
पर दही फैला हुआ है।
वेदमार्गपरिमार्गितं रुषा त्वमवीक्ष्य परिमार्गयन्त्यसौ ।
सन्ददर्श सुकृतिन्युलूखले दीयमाननवनीतमोतवे ॥५॥
सन्ददर्श सुकृतिन्युलूखले दीयमाननवनीतमोतवे ॥५॥
वेदमार्ग-परिमार्गितं | वेद मार्गों से (मुनियों के द्वारा) खोजे जाते हुए आप |
रुषा त्वाम्-अवीक्ष्य | कुपित हुई आपको न देख कर |
परिमार्गयन्ती- | खोजती हुई |
असौ सन्ददर्श | उसने देखा |
सुकृतिनी- | पुण्यशालिनी ने |
उलूखले | ऊलुखल पर |
दीयमान-नवनीतम्- | देते हुए मक्खन |
ओतवे | बिल्लियों को |
जिन आप को मुनिजन वेदमार्गों के द्वारा खोजते रहते हैं, उन आपको न देख कर
कुपित हुई यशोदा आपको खोजने लगी। उस पुण्यशालिनी ने आपको उलूखल पर चढे कर
बिल्लियों को मक्खन खिलाते हुए देखा।
त्वां प्रगृह्य बत भीतिभावनाभासुराननसरोजमाशु सा ।
रोषरूषितमुखी सखीपुरो बन्धनाय रशनामुपाददे ॥६॥
रोषरूषितमुखी सखीपुरो बन्धनाय रशनामुपाददे ॥६॥
त्वां प्रगृह्य बत | आपको पकड कर, अहो! |
भीति-भावना- | भय की भावना से |
भासुर-आनन-सरोजम्- | दमकते हुए मुख कमल वाले (आपको) |
आशु सा | तुरन्त उसने |
रोष-रूषित-मुखी | क्रोध से सूर्ख मुख वाली |
सखी-पुर: | सखियों के सामने |
बन्धनाय | बान्धने के लिये |
रशनाम्-उपाददे | रस्सी ले आई |
क्रोध से सूखे हुए मुख वाली यशोदा, तुरन्त ही, सखियों के सामने ही, भय की
भावना का प्रदर्शन करने से दमकते हुए मुख कमल वाले आपको बान्धने के लिये
रस्सी ले आई।
बन्धुमिच्छति यमेव सज्जनस्तं भवन्तमयि बन्धुमिच्छती ।
सा नियुज्य रशनागुणान् बहून् द्व्यङ्गुलोनमखिलं किलैक्षत ॥७॥
सा नियुज्य रशनागुणान् बहून् द्व्यङ्गुलोनमखिलं किलैक्षत ॥७॥
बन्धुम्-इच्छति | मित्र रूप में चाहते हैं |
यम्-एव सज्जन:- | जिन्हें ही सज्जन |
तं भवन्तम्-अयि | उन आपको अयि! |
बन्धुम्-इच्छती | बान्धना चाहती हुई |
सा नियुज्य | उसने लगा कर |
रशना-गुणान् बहून् | रस्सियों और गांठों को बहुत सारी |
द्व्यङ्गुल-ऊनम्- | दो अङ्गुलियों जितनी कम |
अखिलं | पूरी (रस्सी) को |
किल-ऐक्षत | फिर भी पाया |
जिनको सज्जन जन मित्र के रूप में बान्धना चाहते हैं उन आपको, अयि!,
बान्धने की इच्छा रखने वाली यशोदा बहुत सी रस्सियों में गांठे लगा लगा कर
बढाते रही फिर भी हर बार उसे दो अङ्गुल छोटा ही पाया।
विस्मितोत्स्मितसखीजनेक्षितां स्विन्नसन्नवपुषं निरीक्ष्य ताम् ।
नित्यमुक्तवपुरप्यहो हरे बन्धमेव कृपयाऽन्वमन्यथा: ॥८॥
नित्यमुक्तवपुरप्यहो हरे बन्धमेव कृपयाऽन्वमन्यथा: ॥८॥
विस्मित्-उत्स्मित- | आश्चर्य चकित हंसते हुए |
सखीजन-ईक्षितां | सखियों के देखते हुए |
स्विन्न-सन्न-वपुषं | पसीने से भरे हुए शरीर वाली |
निरीक्ष्य ताम् | देख कर उसको |
नित्य-मुक्त-वपु:- | सदैव मुक्त शरीर वाले |
अपि-अहो हरे | भी, अहो हरि! |
बन्धम्-एव | बन्धन को ही |
कृपया-अन्वमन्यथा: | कृपा कर के स्वीकार कर लिया |
नित्य मुक्त शरीर वाले अहो हरि! आश्चर्य से चकित हंसती हुई सखियों के देखते
देखते, पसीने से लथ पथ शरीर वाली क्लान्त यशोदा को देख कर आपने कृपा के
वशीभूत हो कर बन्धन को स्वीकार कर लिया।
स्थीयतां चिरमुलूखले खलेत्यागता भवनमेव सा यदा।
प्रागुलूखलबिलान्तरे तदा सर्पिरर्पितमदन्नवास्थिथा: ॥९॥
प्रागुलूखलबिलान्तरे तदा सर्पिरर्पितमदन्नवास्थिथा: ॥९॥
स्थीयतां | 'बैठे रहो |
चिरम्-उलूखले | देर तक उलूखल में ही |
खल-इति- | दुष्ट' इस प्रकार (कह कर) |
आगता भवनम्-एव | लौट आई भवन को भी |
सा यदा प्राक्- | वह जब, पहले |
उलूखल-बिलान्तरे | उलूखल के गढ्ढे में |
तदा सर्पि:-अर्पितम्- | तब मक्खन रक्खे हुए को |
अदन्-अवास्थिथा: | खाया बैठ कर |
' दुष्ट! देर तक इसी उलूखल में बैठे रहो' कह कर जब यशोदा भवन को लौट गई,
तब पहले आपने बैठ कर उलूखल के गढ्ढे में रखा हुआ मक्खन खाया।
यद्यपाशसुगमो विभो भवान् संयत: किमु सपाशयाऽनया ।
एवमादि दिविजैरभिष्टुतो वातनाथ परिपाहि मां गदात् ॥१०॥
एवमादि दिविजैरभिष्टुतो वातनाथ परिपाहि मां गदात् ॥१०॥
यदि-अपाश-सुगम: | यदि बन्धन रहित जनों के लिये सुगम हैं |
विभो भवान् | हे विभो! आप |
संयत: किमु | बन्ध गये कैसे |
सपाशया-अनया | रस्सी वाली इसके द्वारा |
एवम्-आदि | इत्यादि |
दिविजै:-अभिष्टुत: | देवताओं के द्वारा संस्तुत आप |
वातनाथ | हे वातनाथ! |
परिपाहि मां गदात् | रक्षा कीजिये मेरी रोगों से |
'हे विभो! यदि सांसारिक बन्धन रहित जनों के लिये आप सुगम हैं तो यशोदा की
रस्सी के बन्धन में कैसे आ गये?' इस प्रकार देवताओं ने आपकी स्तुति की। हे
वातनाथ! रोगों से मेरी रक्षा कीजिये।
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