Narayaneeyam - Dasakam 63 (Holding up Govardhana)
https://youtu.be/LGuhq1_DEzQ
http://youtu.be/l5bXsYPz7RI
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Dashaka 63
ददृशिरे किल तत्क्षणमक्षत-
स्तनितजृम्भितकम्पितदिक्तटा: ।
सुषमया भवदङ्गतुलां गता
व्रजपदोपरि वारिधरास्त्वया ॥१॥
स्तनितजृम्भितकम्पितदिक्तटा: ।
सुषमया भवदङ्गतुलां गता
व्रजपदोपरि वारिधरास्त्वया ॥१॥
ददृशिरे किल | were seen indeed |
तत्-क्षणम्- | (at) that moment |
अक्षत-स्तनित- | continuously roaring |
जृम्भित-कम्पित- | (and) spreading (and) causing to tremble |
दिक्-तटा: | the quarters to their ends |
सुषमया | in their brilliance |
भवत्-अङ्ग-तुलां | Thy form in resemblance |
गता: | attaining |
व्रजपद-उपरि | above the land of Vraja |
वारिधरा:-त्वया | rain clouds by Thee (were seen) |
At that moment, indeed, above the land of Vraja, were seen by Thee
massive rain clouds continuously roaring and spreading. They caused all
the quarters to tremble and they resembled Thy form in their
brilliance.
विपुलकरकमिश्रैस्तोयधारानिपातै-
र्दिशिदिशि पशुपानां मण्डले दण्ड्यमाने ।
कुपितहरिकृतान्न: पाहि पाहीति तेषां
वचनमजित श्रृण्वन् मा बिभीतेत्यभाणी: ॥२॥
र्दिशिदिशि पशुपानां मण्डले दण्ड्यमाने ।
कुपितहरिकृतान्न: पाहि पाहीति तेषां
वचनमजित श्रृण्वन् मा बिभीतेत्यभाणी: ॥२॥
विपुल-करक्-मिश्रै:- | huge hail stones accompanied by |
तोय-धारा-निपातै:- | torrential rain fall |
दिशि-दिशि | in all directions |
पशुपानां मण्डले | (when) the cowherds' groups |
दण्ड्य़माने | were being tormented |
कुपित- | (from) angered |
हरि-कृतात्- | Indra's actions |
न: पाहि पाहि- | save, save us |
इति तेषां वचनम्- | thus their words |
अजित श्रृणवन् | O Invincible One! Hearing |
मा विभीत- | do not be afraid |
इति-अभाणी: | thus (Thou) said |
There was torrential rain in all directions accompanied by huge enormous
hail stones. The group of cowherds were tormented by the wrathful
action of Indra. They all cried and prayed to be protected. O Invincible
One! Hearing their laments , Thou asked them not to fear.
कुल इह खलु गोत्रो दैवतं गोत्रशत्रो-
र्विहतिमिह स रुन्ध्यात् को नु व: संशयोऽस्मिन् ।
इति सहसितवादी देव गोवर्द्धनाद्रिं
त्वरितमुदमुमूलो मूलतो बालदोर्भ्याम् ॥३॥
र्विहतिमिह स रुन्ध्यात् को नु व: संशयोऽस्मिन् ।
इति सहसितवादी देव गोवर्द्धनाद्रिं
त्वरितमुदमुमूलो मूलतो बालदोर्भ्याम् ॥३॥
कुल इह | (for) the clan here |
खलु गोत्र: दैवतं | indeed the mountain is the deity |
गोत्र-शत्रो:- | the mountain enemy's |
विहितम्-इह् | attack here |
स रुन्ध्यात् | he will resist |
क: नु व: संशय:- | what indeed is your doubt |
अस्मिन् इति | in this, thus |
सहसित-वादी | with a smile saying |
देव | O Lord! |
गोवर्द्धन-अद्रिम् | the Govardhana mountain |
त्वरितम्- | quickly |
उदमुमूल: मूलत: | uprooted from the roots |
बाल-दोर्भ्याम् | with (Thy) two tender hands |
Here, for our clan, the mountain is the deity. Indra is the enemy of
mountains. This mountain, Govardhan, will resist Indra's attack. Indeed
what is your doubt in this?' Thou said so with a smile. O Lord! Assuring
them, Thou quickly uprooted the Govardhana mountain with Thy two tender
arms.
तदनु गिरिवरस्य प्रोद्धृतस्यास्य तावत्
सिकतिलमृदुदेशे दूरतो वारितापे ।
परिकरपरिमिश्रान् धेनुगोपानधस्ता-
दुपनिदधदधत्था हस्तपद्मेन शैलम् ॥४॥
सिकतिलमृदुदेशे दूरतो वारितापे ।
परिकरपरिमिश्रान् धेनुगोपानधस्ता-
दुपनिदधदधत्था हस्तपद्मेन शैलम् ॥४॥
तदनु गिरिवरस्य | thereafter of (this) mountain |
प्रोद्धृतस्य- | (which) was lifted up |
अस्य तावत् | this then |
सिकतिल-मृदु-देशे | on the soft sand bed |
दूरत: वारित-आपे | which till far away was protected from water |
परिकर-परिमिश्रान् | household articles, along with |
धेनु-गोपान्- | cows and cowherds |
अधस्तात्- | underneeth |
उपनिदधत्- | keeping |
अधत्था: | (Thou) held aloft |
हस्त-पद्मेन | with one lotus like arm |
शैलम् | the mountain |
Then Thou held aloft the lifted up mountain with Thy lotus like arm. The
soft sand bed of the mountain was well protected from the rain water.
The cows and cowherds all gathered under the uplifted mountain along
with their belongings and were also well protected.
भवति विधृतशैले बालिकाभिर्वयस्यै-
रपि विहितविलासं केलिलापादिलोले ।
सविधमिलितधेनूरेकहस्तेन कण्डू-
यति सति पशुपालास्तोषमैषन्त सर्वे ॥५॥
रपि विहितविलासं केलिलापादिलोले ।
सविधमिलितधेनूरेकहस्तेन कण्डू-
यति सति पशुपालास्तोषमैषन्त सर्वे ॥५॥
भवति | (when) Thou |
विधृत-शैले | were holding the mountain |
बालिकाभि: | with the girls and |
वयस्यै:-अपि | with the boys of Thy age group also |
विहित-विलासं | with enthusiasm |
केलि-लाप-आदि-लोले | in playful conversation etc engaging |
सविध-मिलित-धेनू:- | near Thee gathered cows |
एक-हस्तेन | with one hand |
कण्डूयति सति | caressing |
पशुपाला:- | the cowherds |
तोषम्-ऐषन्त | satisfaction achieved |
सर्वे | all of them |
As Thou were holding the mountain, Thou enthusiastically engaged the
girls and boys of Thy age group in playful conversation. The cows
gathered around Thee and Thou caressed them with one hand. The cowherds
were all very satisfied and delighted.
अतिमहान् गिरिरेष तु वामके
करसरोरुहि तं धरते चिरम् ।
किमिदमद्भुतमद्रिबलं न्विति
त्वदवलोकिभिराकथि गोपकै: ॥६॥
करसरोरुहि तं धरते चिरम् ।
किमिदमद्भुतमद्रिबलं न्विति
त्वदवलोकिभिराकथि गोपकै: ॥६॥
अतिमहान् | very big |
गिरि:-एष | mountain this (is) |
तु वामके | however in the left |
कर-सरोरुहि | hand, lotus like |
तं धरते चिरम् | this (mountain) (he) is holding for long |
किम्-इदम्- | what this |
अद्भुतम्- | wonder |
अद्रि-बलं | (or) mountain's power |
नु-इति | indeed (is it) thus |
त्वत्-अवलोकिभि:- | by Thy onlookers |
आकथि गोपकै: | was said by the cowherds |
This mountain is so huge. Yet he is holding it in his left hand which is
tender like a lotus stalk, for long. What a marvel! Is it that it is
the power of the mountain to have lifted itself up?' The Gopas who were
Thy onlookers commented thus.
अहह धार्ष्ट्यममुष्य वटोर्गिरिं
व्यथितबाहुरसाववरोपयेत् ।
इति हरिस्त्वयि बद्धविगर्हणो
दिवससप्तकमुग्रमवर्षयत् ॥७॥
व्यथितबाहुरसाववरोपयेत् ।
इति हरिस्त्वयि बद्धविगर्हणो
दिवससप्तकमुग्रमवर्षयत् ॥७॥
अहह धार्ष्ट्यम्- | Oh! Arrogance |
अमुष्य वटो:- | of this small boy |
गिरिम् व्यथित-बाहु:- | the mountain (with) pained hands |
असौ-अवरोपयेत् | this (mountain) will place back |
इति हरि:-त्वयि | thus Indra in Thee |
बद्ध-विगर्हण: | full of contempt |
दिवस-सप्तकम्- | for seven days |
उग्रम्-अवर्षयत् | heavily rained |
Oh! The arrogance of this small boy! When his hands pain by the weight
of the mountain, he will put it back in place.' Saying so Indra who was
full of contempt for Thee poured rain heavily for seven days.
अचलति त्वयि देव पदात् पदं
गलितसर्वजले च घनोत्करे ।
अपहृते मरुता मरुतां पति-
स्त्वदभिशङ्कितधी: समुपाद्रवत् ॥८॥
गलितसर्वजले च घनोत्करे ।
अपहृते मरुता मरुतां पति-
स्त्वदभिशङ्कितधी: समुपाद्रवत् ॥८॥
अचलति त्वयि | (when) did not move Thou |
देव | O Lord! |
पदात् पदं | from Thy place, (even) one step |
गलित-सर्व-जले | (and when) were exhausted all the waters |
च घनोत्करे | and the clouds |
अपहृते मरुता | (and when they) were dispersed by the winds |
मरुतां पति: | the head of the gods Indra |
त्वत्-अभिशङ्कित-धी: | (about) Thee (having) a doubtful mind |
समुपाद्रवत् | fled |
Thou had not stirred one step from Thy place. All the clouds were
drained and exhausted of their waters. They were drifted away and
scattered by the winds. Noticing all this, the head of the gods, Indra
was scared of Thy might and fled.
शममुपेयुषि वर्षभरे तदा
पशुपधेनुकुले च विनिर्गते ।
भुवि विभो समुपाहितभूधर:
प्रमुदितै: पशुपै: परिरेभिषे ॥९॥
पशुपधेनुकुले च विनिर्गते ।
भुवि विभो समुपाहितभूधर:
प्रमुदितै: पशुपै: परिरेभिषे ॥९॥
शमम्-उपेयुषि | subsiding (having) reached |
वर्षभरे तदा | the heavy rain then |
पशुप-धेनु-कुले | the cowherds and the cows |
च विनिर्गते | had come out (from under the mountain) |
भुवि विभो | on the ground O Lord! |
समुपाहित-भूधर: | (Thee who) had placed the mountain |
प्रमुदितै: पशुपै: | by the overjoyed cowherds |
परिरेभिषे | were embraced |
The heavy rain had then subsided and the cows and cowherds had come out
from under the mountain. O Lord! Thou then replaced the mountain on the
earth and were embraced by the overjoyed cowherds.
धरणिमेव पुरा धृतवानसि
क्षितिधरोद्धरणे तव क: श्रम: ।
इति नुतस्त्रिदशै: कमलापते
गुरुपुरालय पालय मां गदात् ॥१०॥
क्षितिधरोद्धरणे तव क: श्रम: ।
इति नुतस्त्रिदशै: कमलापते
गुरुपुरालय पालय मां गदात् ॥१०॥
धरणिम्-एव पुरा | earth also itself, long ago |
धृतवानसि | had lifted up (Thou) |
क्षितिधर-उद्धरणे | in mountain lifting up |
तव क: श्रम: | Thy what effort |
इति नुत:-त्रिदशै: | thus praised by the gods |
कमलापते | O Consort of Laxmi! |
गुरुपुरालय | O Resident of Guruvaayur! |
पालय मां गदात् | save me from ailments |
O Consort of Laxmi! The gods praised Thee saying that long ago (in the
incarnation of a Boar) Thou had lifted up the whole earth itself.
Lifting up the mountain was not much of an effort for Thee. O Resident
of Guruvaayur! Save me from ailments.
दशक ६३
ददृशिरे किल तत्क्षणमक्षत-
स्तनितजृम्भितकम्पितदिक्तटा: ।
सुषमया भवदङ्गतुलां गता
व्रजपदोपरि वारिधरास्त्वया ॥१॥
स्तनितजृम्भितकम्पितदिक्तटा: ।
सुषमया भवदङ्गतुलां गता
व्रजपदोपरि वारिधरास्त्वया ॥१॥
ददृशिरे किल | देखी गई नि:सन्देह |
तत्-क्षणम्- | उसी क्षण से |
अक्षत-स्तनित- | अबाध गर्जना के |
जृम्भित-कम्पित- | फैलने से प्रकम्पित हो गईं |
दिक्-तटा: | दिशाएं अन्त तक |
सुषमया | कान्ति से |
भवत्-अङ्ग-तुलां | आपके श्री अङ्गों के समान |
गता: | धारण कर के |
व्रजपद-उपरि | व्रज स्थान के ऊपर |
वारिधरा:-त्वया | जल मेघ आपके द्वारा |
उसी क्षण आपने देखा कि अबाध गर्जना के फैलने से दिशाएं अन्त तक कम्पित हो
उठीं। आपके श्री अङ्गों की कान्ति के तुल्य कान्ति धारण कर के जल मेघ व्रज
के आकाश में छा गए।
विपुलकरकमिश्रैस्तोयधारानिपातै-
र्दिशिदिशि पशुपानां मण्डले दण्ड्यमाने ।
कुपितहरिकृतान्न: पाहि पाहीति तेषां
वचनमजित श्रृण्वन् मा बिभीतेत्यभाणी: ॥२॥
र्दिशिदिशि पशुपानां मण्डले दण्ड्यमाने ।
कुपितहरिकृतान्न: पाहि पाहीति तेषां
वचनमजित श्रृण्वन् मा बिभीतेत्यभाणी: ॥२॥
विपुल-करक-मिश्रै:- | बडे बडे ओलों के साथ |
तोय-धारा-निपातै:- | जल की धारा गिरने से |
दिशि-दिशि | हर दिशा में |
पशुपानां मण्डले | गोप मण्डलों में |
दण्ड्य़माने | दण्डित होते हुए |
कुपित- | क्रुद्ध |
हरि-कृतात्- | इन्द्र की करनी से |
न: पाहि पाहि- | हमें बचाइए बचाइए |
इति तेषां वचनम्- | ऐसे उनके वचन |
अजित श्रृणवन् | हे अजित! सुन कर |
मा विभीत- | 'मत डरो' |
इति-अभाणी: | यह कहा (आपने) |
हर दिशा में बडे बडे ओलों के साथ मूसलाधार वर्षण से, गोप मण्डल क्रुद्ध
इन्द्र की करनी से दण्डित होता हुआ पुकारने लगा, 'हमें बचाइए, बचाइए।' हे
अजित! उनके ऐसे वचन सुन कर आपने कहा, 'डरो मत।'
कुल इह खलु गोत्रो दैवतं गोत्रशत्रो-
र्विहतिमिह स रुन्ध्यात् को नु व: संशयोऽस्मिन् ।
इति सहसितवादी देव गोवर्द्धनाद्रिं
त्वरितमुदमुमूलो मूलतो बालदोर्भ्याम् ॥३॥
र्विहतिमिह स रुन्ध्यात् को नु व: संशयोऽस्मिन् ।
इति सहसितवादी देव गोवर्द्धनाद्रिं
त्वरितमुदमुमूलो मूलतो बालदोर्भ्याम् ॥३॥
कुल इह | कुल का यहां |
खलु गोत्र: दैवतं | निश्चय ही गिरिराज देवता है |
गोत्र-शत्रो:- | पर्वत के शत्रु (इन्द्र) के |
विहितम्-इह् | आक्रमण को यहां |
स रुन्ध्यात् | वही रोकेगा |
क: नु व: संशय:- | कहां है आप लोगों को संशय |
अस्मिन् इति | इसमें इस प्रकार |
सहसित-वादी | हंसते हुए कहा |
देव | हे देव! |
गोवर्द्धन-अद्रिम् | गोवर्द्धन गिरि को |
त्वरितम्- | झट से |
उदमुमूल: मूलत: | उखाड लिया मूल से |
बाल-दोर्भ्याम् | कोमल दो हाथों से |
'यहां इस कुल के देवता निश्चय ही गिरिराज हैं। पर्वत के शत्रु इन्द्र के
आक्रमण को वे ही रोकेंगे। इस में आप लोगों को कहां संन्देह है?' आपने
हंसते हुए इस प्रकार कहा और झट से अपने कोमल दो हाथों से, गोवर्द्धन
गिरिराज को समूल उखाड लिया।
तदनु गिरिवरस्य प्रोद्धृतस्यास्य तावत्
सिकतिलमृदुदेशे दूरतो वारितापे ।
परिकरपरिमिश्रान् धेनुगोपानधस्ता-
दुपनिदधदधत्था हस्तपद्मेन शैलम् ॥४॥
सिकतिलमृदुदेशे दूरतो वारितापे ।
परिकरपरिमिश्रान् धेनुगोपानधस्ता-
दुपनिदधदधत्था हस्तपद्मेन शैलम् ॥४॥
तदनु गिरिवरस्य | तदनन्तर गिरिराज के |
प्रोद्धृतस्य- | (ऊपर) उठाए हुए |
अस्य तावत् | इसके तब |
सिकतिल-मृदु-देशे | बालू वाले कोमल सतह पर |
दूरत: वारित-आपे | दूर तक रोके गए जल वाले के |
परिकर-परिमिश्रान् | समस्त सामग्रियों के सहित |
धेनु-गोपान्- | गौ और गोपों को |
अधस्तात्- | नीचे |
उपनिदधत्- | करके |
अधत्था: | (आपने) ऊंचा उठा लिया |
हस्त-पद्मेन | एक हस्त पद्म से |
शैलम् | पर्वत को |
तत्पश्चात ऊपर उठाए हुए उस गिरिवर के नीचे बालुका प्रदेश में, जहां दूर तक
जल का निवारण हो गया था, आपने समस्त सामग्रियों सहित गौ और गोपों को
सुरक्षित स्थापित कर दिया। फिर आपने अपने एक करकमल से पर्वत को और ऊपर उठा
लिया।
भवति विधृतशैले बालिकाभिर्वयस्यै-
रपि विहितविलासं केलिलापादिलोले ।
सविधमिलितधेनूरेकहस्तेन कण्डू-
यति सति पशुपालास्तोषमैषन्त सर्वे ॥५॥
रपि विहितविलासं केलिलापादिलोले ।
सविधमिलितधेनूरेकहस्तेन कण्डू-
यति सति पशुपालास्तोषमैषन्त सर्वे ॥५॥
भवति | आपके |
विधृत-शैले | उठाए जाने पर पर्वत के |
बालिकाभि: | बालिकाओं के द्वारा |
वयस्यै:-अपि | समवयस्कों के द्वारा भी |
विहित-विलासं | सन्लग्न क्रीडा में |
केलि-लाप-आदि-लोले | क्रीडापूर्ण मधुर वार्तालाप मे व्यस्त |
सविध-मिलित-धेनू:- | निकट मे सम्मिलित हुई गौओं को |
एक-हस्तेन | एक हाथ से |
कण्डूयति सति | सहलाते हुए |
पशुपाला:- | (देख कर) गोपालक गण |
तोषम्-ऐषन्त | सन्तुष्ट हो गए |
सर्वे | सभी |
पर्वत को उठाए रख कर भी आप समवयस्क बालिकाओं और गोपालों के साथ क्रीडा और
क्रीडापूर्ण वार्तालाप मे संलग्न थे। उस समय आप अपने निकट सम्मिलित हुई
गौओं को एक हाथ से सहला रहे थे। यह देख कर सभी गोपालकगण अत्यधिक सन्तुष्ट
हो गए।
अतिमहान् गिरिरेष तु वामके
करसरोरुहि तं धरते चिरम् ।
किमिदमद्भुतमद्रिबलं न्विति
त्वदवलोकिभिराकथि गोपकै: ॥६॥
करसरोरुहि तं धरते चिरम् ।
किमिदमद्भुतमद्रिबलं न्विति
त्वदवलोकिभिराकथि गोपकै: ॥६॥
अतिमहान् | अत्यन्त विशाल |
गिरि:-एष | पर्वत यह |
तु वामके | को भी बांए |
कर-सरोरुहि | हाथ कमलनाल के समान (कोमल) में |
तं धरते चिरम् | उसको उठाए हुए है देर से |
किम्-इदम्- | कितना है यह |
अद्भुतम्- | आश्चर्यजनक |
अद्रि-बलं | (या) पर्वत का ही गुरुत्व |
नु-इति | अथवा है इस प्रकार |
त्वत्-अवलोकिभि:- | आपके देखने वालों ने |
आकथि गोपकै: | कहा गोपों ने |
'इस अत्यन्त विशाल पर्वत को भी इतनी देर से अपने कमलनाल के समान कोमल बाएं
हाथ में उठाए हुए है। कितने आश्चर्य की बात है! अथवा क्या यह पर्वत का ही
बल है।' आपको देखने वाले गोपों ने परस्पर ऐसा कहा।
अहह धार्ष्ट्यममुष्य वटोर्गिरिं
व्यथितबाहुरसाववरोपयेत् ।
इति हरिस्त्वयि बद्धविगर्हणो
दिवससप्तकमुग्रमवर्षयत् ॥७॥
व्यथितबाहुरसाववरोपयेत् ।
इति हरिस्त्वयि बद्धविगर्हणो
दिवससप्तकमुग्रमवर्षयत् ॥७॥
अहह धार्ष्ट्यम्- | अहो! धृष्टता |
अमुष्य वटो:- | इस बटुक की |
गिरिम् व्यथित-बाहु:- | पर्वत को व्यथित बांह से |
असौ-अवरोपयेत् | यह रख देगा |
इति हरि:-त्वयि | इस प्रकार इन्द्र आपमें |
बद्ध-विगर्हण: | धारण कर के कटुता |
दिवस-सप्तकम्- | दिनों तक सात |
उग्रम्-अवर्षयत् | भीषण वर्षा करता रहा |
'अहो! इस बटुक की धृष्टता तो देखो। बांह व्यथित होने पर यह पर्वत को रख
देगा।' इस प्रकार इन्द्र आपके प्रति कटुता भर कर सात दिनों तक भीषण वर्षा
करता रहा।
अचलति त्वयि देव पदात् पदं
गलितसर्वजले च घनोत्करे ।
अपहृते मरुता मरुतां पति-
स्त्वदभिशङ्कितधी: समुपाद्रवत् ॥८॥
गलितसर्वजले च घनोत्करे ।
अपहृते मरुता मरुतां पति-
स्त्वदभिशङ्कितधी: समुपाद्रवत् ॥८॥
अचलति त्वयि | जब आप |
देव | हे देव! |
पदात् पदं | एक पग से दूसरे पग पर भी नही हिले |
गलित-सर्व-जले | समाप्त हो जाने पर समस्त जल के |
च घनोत्करे | और मेघों के |
अपहृते मरुता | उडा ले जाने पर हवाओं के |
मरुतां पति: | देवताओं के पति (इन्द्र) |
त्वत्-अभिशङ्कित-धी: | आपके प्रति शङ्कित मन वाले |
समुपाद्रवत् | भाग गए |
हे देव! आप एक पग से दूसरे पग पर भी विचलित नहीं हुए। मेघों का समस्त जल
समाप्त हो गया और उन मेघों को वायु उडा कर ले गई। इस पर देवताओं के पति
इन्द्र का चित्त आपके प्रति शंकित हो गया और वे वहां से भाग गए।
शममुपेयुषि वर्षभरे तदा
पशुपधेनुकुले च विनिर्गते ।
भुवि विभो समुपाहितभूधर:
प्रमुदितै: पशुपै: परिरेभिषे ॥९॥
पशुपधेनुकुले च विनिर्गते ।
भुवि विभो समुपाहितभूधर:
प्रमुदितै: पशुपै: परिरेभिषे ॥९॥
शमम्-उपेयुषि | उपशमन हो जाने पर |
वर्षभरे तदा | भारी वर्षा का तब |
पशुप-धेनु-कुले | गोपों और गौओं के कुल |
च विनिर्गते | और निकल गए (पर्वत के नीचे से) |
भुवि विभो | भूमि पर हे प्रभो! |
समुपाहित-भूधर: | संस्थापित कर के पर्वत को |
प्रमुदितै: पशुपै: | प्रसन्न हुए गोपों के द्वारा |
परिरेभिषे | आप आलिङ्गित हुए |
उस भारी वर्षा का उपशमन हो जाने पर गोपों और गौओं के कुल पर्वत के नीचे से
निकल आए। तब आपने पर्वत को भूमि पर प्रतिस्थापित कर दिया। अत्यधिक प्रसन्न
हुए गोपों ने आपका आलिङ्गन किया।
धरणिमेव पुरा धृतवानसि
क्षितिधरोद्धरणे तव क: श्रम: ।
इति नुतस्त्रिदशै: कमलापते
गुरुपुरालय पालय मां गदात् ॥१०॥
क्षितिधरोद्धरणे तव क: श्रम: ।
इति नुतस्त्रिदशै: कमलापते
गुरुपुरालय पालय मां गदात् ॥१०॥
धरणिम्-एव पुरा | पृथ्वी को ही पहले (कूर्मावतार के समय) |
धृतवानसि | ऊपर उठा लिया था (आपने) |
क्षितिधर-उद्धरणे | पर्वत के उठाने में |
तव क: श्रम: | आपको क्या श्रम हुआ |
इति नुत:-त्रिदशै: | इस प्रकार वन्दना की देवों ने |
कमलापते | हे कमलापते! |
गुरुपुरालय | हे गुरुपुरालय! |
पालय मां गदात् | पालन करे मेरा रोगों से |
हे कमलापते! पहले कूर्मावतार के समय आपने सम्पूर्ण पृथ्वी को ही ऊपर उठा
लिया था। इस पर्वत को उठाने में आपको क्या श्रम हुआ होगा?' इस प्रकार
देवताओं ने आपकी स्तुति की। हे गुरुपुरालय! रोगों से रक्षा करके मेरा पालन
करें।
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