Narayaneeyam - Dasakam 65 (Gopikas come to Krishna)
https://youtu.be/s7pEEAmLWGQ
http://youtu.be/D1ZBZiExR34
===========
Dashaka 65
गोपीजनाय कथितं नियमावसाने
मारोत्सवं त्वमथ साधयितुं प्रवृत्त: ।
सान्द्रेण चान्द्रमहसा शिशिरीकृताशे
प्रापूरयो मुरलिकां यमुनावनान्ते ॥१॥
मारोत्सवं त्वमथ साधयितुं प्रवृत्त: ।
सान्द्रेण चान्द्रमहसा शिशिरीकृताशे
प्रापूरयो मुरलिकां यमुनावनान्ते ॥१॥
गोपीजनाय | for the Gopikaas |
कथितं | said (promised) |
नियम-अवसाने | (when their) vows had ended |
मार-उत्सवं | the love-god festival |
त्वम्-अथ | Thou then |
साधयितुं प्रवृत्त: | to carry out (fulfill) decided |
सान्द्रेण चान्द्रमहसा | with bright light of the full moon |
शिशिरी-कृत-आशे | and cooled all the directions |
प्रापूरय: मुरलिकां | (Thou) filled well (played) the flute |
यमुना-वन-अन्ते | in the forests on the banks of Yamunaa |
Thou then decided to carry out the festival of the love god, which Thou
had promised to the Gopikaas when their vows had ended. One night, with
the bright light of the full moon, when all the directions were cool, in
the forest on the banks of the river Yamunaa, Thou resoundingly played
the flute.
सम्मूर्छनाभिरुदितस्वरमण्डलाभि:
सम्मूर्छयन्तमखिलं भुवनान्तरालम् ।
त्वद्वेणुनादमुपकर्ण्य विभो तरुण्य-
स्तत्तादृशं कमपि चित्तविमोहमापु: ॥२॥
सम्मूर्छयन्तमखिलं भुवनान्तरालम् ।
त्वद्वेणुनादमुपकर्ण्य विभो तरुण्य-
स्तत्तादृशं कमपि चित्तविमोहमापु: ॥२॥
सम्मूर्छनाभि:- | by the seven (ascending and descending) notes |
उदित- | emerging |
स्वरमण्डलाभि: | in a musical strain |
सम्मूर्छयन्तम्- | enchanting |
अखिलं | everything |
भुवन-अन्तरालम् | in the world space |
त्वत्-वेणु-नादम्- | Thy flute resounding |
उपकर्ण्य विभो | hearing (which) O All pervading Lord! |
तरुण्य:-तत्-तादृशं | the damsels, that compared to that (uncompareable) |
कम्-अपि | some (sort of) |
चित्त-विमोहम्-आपु: | mind captivation attained to |
O All pervading Lord! In the resounding sound of Thy flute the seven
ascending and descending notes emerged in a musical strain and enchanted
everything in the world space. Hearing which the damsels attained an
unparalleled and uncomparable captivating state of their mind.
ता गेहकृत्यनिरतास्तनयप्रसक्ता:
कान्तोपसेवनपराश्च सरोरुहाक्ष्य: ।
सर्वं विसृज्य मुरलीरवमोहितास्ते
कान्तारदेशमयि कान्ततनो समेता: ॥३॥
कान्तोपसेवनपराश्च सरोरुहाक्ष्य: ।
सर्वं विसृज्य मुरलीरवमोहितास्ते
कान्तारदेशमयि कान्ततनो समेता: ॥३॥
ता: | they |
गेह-कृत्य-निरता:- | who were in household duties engaged |
तनय-प्रसक्ता: | (or) were their children tending |
कान्त-उपसेवन-परा:-च | and in the husband's service eager |
सरोरुह-आक्ष्य: | (they) the lotus eyed damsels |
सर्वं विसृज्य | everything abondoning |
मुरली-रव- | (by) the flute sound |
मोहिता:-ते | captivated they (the damsels) |
कान्तार-देशम्- | to the forest place |
अयि कान्त-तनो | O Resplendent One! |
समेता: | came |
O Resplendent One! The lotus eyed damsels were captivated by the sound
of Thy flute. They, who were engaged in the household duties, or were
taking care of their children, or were engaged in serving their
husbands, abondoned everything and came rushing to the forest place.
काश्चिन्निजाङ्गपरिभूषणमादधाना
वेणुप्रणादमुपकर्ण्य कृतार्धभूषा: ।
त्वामागता ननु तथैव विभूषिताभ्य-
स्ता एव संरुरुचिरे तव लोचनाय ॥४॥
वेणुप्रणादमुपकर्ण्य कृतार्धभूषा: ।
त्वामागता ननु तथैव विभूषिताभ्य-
स्ता एव संरुरुचिरे तव लोचनाय ॥४॥
काश्चित्- | some (damsels) |
निज-अङ्ग- | their own bodies |
परिभूषणम्- | (with) dress and jewels |
आदधाना | adorning |
वेणु-प्रणादम्- | the resounding flute sound |
उपकर्ण्य | hearing |
कृत-अर्ध-भूषा: | having adorned half way only |
त्वाम्-आगता: | to Thee came |
ननु तथा-एव | indeed thus only |
विभूषिताभ्य: | than those who were fully adorned |
ता एव | they only |
संरुरुचिरे | were more pleasing |
तव लोचनाय | for Thy eyes |
Some of the damsels were dressing up and adorning their bodies with
jewels. As they heard the resounding sound of the flute, they came to
Thee having adorned themselves halfway. For Thy eyes they were far more
pleasing indeed than those who were fully adorned.
हारं नितम्बभुवि काचन धारयन्ती
काञ्चीं च कण्ठभुवि देव समागता त्वाम् ।
हारित्वमात्मजघनस्य मुकुन्द तुभ्यं
व्यक्तं बभाष इव मुग्धमुखी विशेषात् ॥५॥
काञ्चीं च कण्ठभुवि देव समागता त्वाम् ।
हारित्वमात्मजघनस्य मुकुन्द तुभ्यं
व्यक्तं बभाष इव मुग्धमुखी विशेषात् ॥५॥
हारं नितम्ब-भुवि | necklace on the hip area |
काचन धारयन्ती | someone wearing |
काञ्चीं च | and the waist band |
कण्ठ-भुवि | in the neck area |
देव | O Lord! |
समागता त्वाम् | came to Thee |
हारित्वम्- | the attractiveness |
आत्म-जघनस्य | of her own hips |
मुकुन्द तुभ्यं | O Mukund for Thee |
व्यक्तं बभाष इव | clearly declared as if |
मुग्धमुखी | the chaming faced one |
विशेषात् | in particular |
O Lord! One woman, in her haste, came to Thee wearing a necklace on the
hips and the waist band in the neck area. O Mukund! It was as if the
charming faced one clearly indicated to Thee in particular the
attractiveness of her own hips.
काचित् कुचे पुनरसज्जितकञ्चुलीका
व्यामोहत: परवधूभिरलक्ष्यमाणा ।
त्वामाययौ निरुपमप्रणयातिभार-
राज्याभिषेकविधये कलशीधरेव ॥६॥
व्यामोहत: परवधूभिरलक्ष्यमाणा ।
त्वामाययौ निरुपमप्रणयातिभार-
राज्याभिषेकविधये कलशीधरेव ॥६॥
काचित् कुचे | some one ,on her breasts |
पुन:-असज्जित- | again not wearing |
कञ्चुलीका | the upper garment |
व्यामोहत: | because of excitement |
परवधूभि:- | by other women |
अलक्ष्यमाणा | also not noticed |
त्वाम्-आययौ | to Thee came |
निरुपम-प्रणय- | (as if) unparalleled (intense) love |
अतिभार- | intense (weighed down by) |
राज्य-अभिषेक-विधये | kingdom coronation celebration |
कलशीधर-इव | water pitchers as if |
Some another woman, in her excitement came to Thee not wearing any upper
garment on her breasts. She was not noticed in such a state by the
other women, who were as excited. It was as if she was weighed down by
the unparalleled intense love she carried as water pitchers as breasts
for the celebration of Thy coronation in the kingdom of love.
काश्चित् गृहात् किल निरेतुमपारयन्त्य-
स्त्वामेव देव हृदये सुदृढं विभाव्य ।
देहं विधूय परचित्सुखरूपमेकं
त्वामाविशन् परमिमा ननु धन्यधन्या: ॥७॥
स्त्वामेव देव हृदये सुदृढं विभाव्य ।
देहं विधूय परचित्सुखरूपमेकं
त्वामाविशन् परमिमा ननु धन्यधन्या: ॥७॥
काश्चित् गृहात् | some one from home |
किल निरेतुम्- | indeed to come out |
अपारयन्त्य: | being unable |
त्वाम्-एव देव | Thee alone O Lord! |
हृदये सुदृढं विभाव्य | in heart firmly meditating |
देहं विधूय | body giving up |
पर-चित्-सुख- | the Supreme conscious bliss |
रूपम्-एकं त्वाम्- | form of non-dual, in Thee |
आविशन् | merging |
परम्-इमा:-ननु | very much these (women) indeed |
धन्य-धन्या: | (were) most fortunate |
Some of them were indeed unable to come out from home. O Lord! They
meditated on Thee firmly in their hearts. With the result, they gave up
their bodies and merged with Thy non dual form and attained the Supreme
consciousness bliss. These indeed were the most fortunate ones.
जारात्मना न परमात्मतया स्मरन्त्यो
नार्यो गता: परमहंसगतिं क्षणेन ।
तं त्वां प्रकाशपरमात्मतनुं कथञ्चि-
च्चित्ते वहन्नमृतमश्रममश्नुवीय ॥८॥
नार्यो गता: परमहंसगतिं क्षणेन ।
तं त्वां प्रकाशपरमात्मतनुं कथञ्चि-
च्चित्ते वहन्नमृतमश्रममश्नुवीय ॥८॥
जारात्मना | by the feeling of paramour |
न परमात्मतया | not by the feeling of godliness |
स्मरन्त्य: | thinking of Thee |
नार्य: गता: | the women attained |
परमहंसगतिं | to the state of liberation |
क्षणेन तं त्वां | in a moment, that Thou |
प्रकाश-परमात्म-तनुं | resplendent supreme form |
कथञ्चित्- | in any manner |
चित्ते वहन्- | in the mind holding (meditating) |
अमृतम्- | the state of immortality |
अश्रमम्-अश्नुवीय | effortlessly may I attain |
These women thought of Thee and remembered Thee not with the feeling of
godliness, Paramaatmaa, but with the feeling of paramour. In a moment,
they attained the state of liberation with Thee. O Supreme Resplendent
form! Meditating in the mind in some or the other manner may I attain
the state of immortality effortlessly.
अभ्यागताभिरभितो व्रजसुन्दरीभि-
र्मुग्धस्मितार्द्रवदन: करुणावलोकी ।
निस्सीमकान्तिजलधिस्त्वमवेक्ष् यमाणो
विश्वैकहृद्य हर मे पवनेश रोगान् ॥९॥
र्मुग्धस्मितार्द्रवदन: करुणावलोकी ।
निस्सीमकान्तिजलधिस्त्वमवेक्ष्
विश्वैकहृद्य हर मे पवनेश रोगान् ॥९॥
अभ्यागताभि:- | by those who had come |
अभित: | all around |
व्रजसुन्दरीभि:- | (by) the beautiful women fo Vraja |
मुग्ध-स्मित-आर्द्र-वदन: | (with) a captivating smile lit on the face |
करुणा-अवलोकी | (Thou) glancing with compassion |
निस्सीम-कान्ति- | unbound splenderous |
जलधि:-त्वम्- | ocean Thou |
अवेक्ष्यमाण: | were looked at (by the women) |
विश्वैकहृद्य | O Stealer of the world's heart! |
हर मे | rid me of my |
पवनेश | O Lord of Guruvaayur! |
रोगान् | ailments |
The beautiful women of Vraja, who had come and gathered all around Thee,
were looking at Thee. Thou had a captivating smile lighting Thy face,
glancing with compssion, and Thou who are like an unbound ocean of
splendour, O Hari! The stealer of the world's heart! rid me, O Lord of
Guruvaayur! of my ailments.
दशक ६५
गोपीजनाय कथितं नियमावसाने
मारोत्सवं त्वमथ साधयितुं प्रवृत्त: ।
सान्द्रेण चान्द्रमहसा शिशिरीकृताशे
प्रापूरयो मुरलिकां यमुनावनान्ते ॥१॥
मारोत्सवं त्वमथ साधयितुं प्रवृत्त: ।
सान्द्रेण चान्द्रमहसा शिशिरीकृताशे
प्रापूरयो मुरलिकां यमुनावनान्ते ॥१॥
गोपीजनाय | गोपियों के लिए |
कथितं | (जो) कहा था |
नियम-अवसाने | (व्रत के) नियमों के समाप्त होने पर |
मार-उत्सवं | प्रेम उत्सव को |
त्वम्-अथ | आप तब |
साधयितुं प्रवृत्त: | क्रियान्वित करने के लिए प्रस्तुत |
सान्द्रेण चान्द्रमहसा | स्निग्ध चांदनी से चन्द्रमा की |
शिशिरी-कृत-आशे | (जब) शीतल हो गई थीं दिशाएं |
प्रापूरय: मुरलिकां | परिपूर्ण कर रहे थे मुरली को |
यमुना-वन-अन्ते | यमुना के वन की सीमा पर |
गोपियों के व्रत के नियम आदि समाप्त हो जाने पर आपने जिस प्रेम उत्सव के
लिए उनसे कहा था, उसको क्रियान्वित करने के लिए आप प्रस्तुत हुए। एक रात जब
चन्द्रमा की स्निग्ध चांदनी चारों दिशाओं को शीतल कर रही थी, तब यमुना वन
की सीमा पर आप मुरली को स्वर से परिपूरित कर रहे थे।
सम्मूर्छनाभिरुदितस्वरमण्डलाभि:
सम्मूर्छयन्तमखिलं भुवनान्तरालम् ।
त्वद्वेणुनादमुपकर्ण्य विभो तरुण्य-
स्तत्तादृशं कमपि चित्तविमोहमापु: ॥२॥
सम्मूर्छयन्तमखिलं भुवनान्तरालम् ।
त्वद्वेणुनादमुपकर्ण्य विभो तरुण्य-
स्तत्तादृशं कमपि चित्तविमोहमापु: ॥२॥
सम्मूर्छनाभि:- | सम्मूर्छनाओं से (स्वर के उतार चढाव से) |
उदित- | निकले |
स्वरमण्डलाभि: | स्वर मण्डलों से |
सम्मूर्छयन्तम्- | सम्मोहित हुए |
अखिलं | समस्त |
भुवन-अन्तरालम् | भुवन मण्डल के |
त्वत्-वेणु-नादम्- | आपकी मुरली की धुन को |
उपकर्ण्य विभो | सुन कर हे विभो! |
तरुण्य:-तत्-तादृशं | तरुणी जन उस प्रकार की |
कम्-अपि | किसी भी |
चित्त-विमोहम्-आपु: | चित्त के सम्मोह को प्राप्त हो गईं |
स्वरों के उतार चढाव वाली सम्मूर्छनाओं से उत्पन्न हुई स्वर मण्डली से
समस्त भुवन सम्मोहित हो गया। हे विभो! आपकी मुरली की उस अवर्णनीय धुन को
सुन कर तरुणियां भी उसी प्रकार के किसी (अवर्णनीय) चित्त के विमोह से
विमुग्ध हो उठीं।
ता गेहकृत्यनिरतास्तनयप्रसक्ता:
कान्तोपसेवनपराश्च सरोरुहाक्ष्य: ।
सर्वं विसृज्य मुरलीरवमोहितास्ते
कान्तारदेशमयि कान्ततनो समेता: ॥३॥
कान्तोपसेवनपराश्च सरोरुहाक्ष्य: ।
सर्वं विसृज्य मुरलीरवमोहितास्ते
कान्तारदेशमयि कान्ततनो समेता: ॥३॥
ता: | वे (जो) |
गेह-कृत्य-निरता:- | गृह कार्यों में संलग्न थीं |
तनय-प्रसक्ता: | (या) बच्चों का लालन कर रही थीं |
कान्त-उपसेवन-परा:-च | और पतियों की सेवा में तत्पर थीं |
सरोरुह-आक्ष्य: | (वे) कमल्नयनी |
सर्वं विसृज्य | सब कुछ छोड कर |
मुरली-रव- | मुरली के स्वर से |
मोहिता:-ते | मोहित हुई वे |
कान्तार-देशम्- | वन प्रदेश को |
अयि कान्त-तनो | अयि कान्तिमान! |
समेता: | आ गईं |
हे कान्तिमान! मुरली के स्वर से विमोहित हुई, वे सभी कमलनयनी गोपिकाएं जो
नाना भांति के गृह कार्यों में व्यस्त थीं, अपने शिशुओं का लालन कर रही थीं
अथवा अपने पतियों की सेवा में तत्पर थीं, सब कुछ छोड कर, वन प्रदेश में आ
गईं।
काश्चिन्निजाङ्गपरिभूषणमादधाना
वेणुप्रणादमुपकर्ण्य कृतार्धभूषा: ।
त्वामागता ननु तथैव विभूषिताभ्य-
स्ता एव संरुरुचिरे तव लोचनाय ॥४॥
वेणुप्रणादमुपकर्ण्य कृतार्धभूषा: ।
त्वामागता ननु तथैव विभूषिताभ्य-
स्ता एव संरुरुचिरे तव लोचनाय ॥४॥
काश्चित्- | कोई |
निज-अङ्ग- | अपने अङ्गो को |
परिभूषणम्- | आभूषणों से |
आदधाना | सजाती हुई |
वेणु-प्रणादम्- | मुरली के नाद को |
उपकर्ण्य | सुन कर |
कृत-अर्ध-भूषा: | करके अधूरी प्रसज्जा |
त्वाम्-आगता: | आपके पास आगई |
ननु तथा-एव | नि:सन्देह वैसे ही |
विभूषिताभ्य: | विभूषित गोपियों से |
ता एव | वे ही |
संरुरुचिरे | (अधिक) सुन्दर लगीं |
तव लोचनाय | आपके नेत्रों को |
कुछ गोपिकाएं आभूषणों से अपने अङ्गों का प्रसाधन कर रही थी। मुरली की तान
को सुनते ही अधूरी प्रसज्जा किए हुए ही वे आपके पास आ गईं। नि:सन्देह
विभूषित गोपियों की अपेक्षा वे ही आपके नेत्रों को अधिक सुन्दर लग रही थीं।
हारं नितम्बभुवि काचन धारयन्ती
काञ्चीं च कण्ठभुवि देव समागता त्वाम् ।
हारित्वमात्मजघनस्य मुकुन्द तुभ्यं
व्यक्तं बभाष इव मुग्धमुखी विशेषात् ॥५॥
काञ्चीं च कण्ठभुवि देव समागता त्वाम् ।
हारित्वमात्मजघनस्य मुकुन्द तुभ्यं
व्यक्तं बभाष इव मुग्धमुखी विशेषात् ॥५॥
हारं नितम्ब-भुवि | हार को कटि प्रदेश में |
काचन धारयन्ती | कोई धारण कर के |
काञ्चीं च | करघनी को और |
कण्ठ-भुवि | कण्ठ प्रदेश में |
देव | हे देव! |
समागता त्वाम् | आ गई पास आपके |
हारित्वम्- | मनोहरता |
आत्म-जघनस्य | अपनी जङ्घा की |
मुकुन्द तुभ्यं | हे मुकुन्द आपके लिए |
व्यक्तं बभाष इव | स्पष्टता से कहते हुए सी |
मुग्धमुखी | मुग्धमुखी |
विशेषात् | विशेषता से |
हे देव! कोई एक गोपिका हार कटि प्रदेश में करके और करघनी कण्ठ प्रदेश में
धारण करके आपके पास चली आई। हे मुकुन्द! मानो वह मुग्धमुखी आपके समक्ष
स्पष्ट रूप से अपनी जङ्घाओं की विशेष मनोहरता को व्यक्त कर रही हो।
काचित् कुचे पुनरसज्जितकञ्चुलीका
व्यामोहत: परवधूभिरलक्ष्यमाणा ।
त्वामाययौ निरुपमप्रणयातिभार-
राज्याभिषेकविधये कलशीधरेव ॥६॥
व्यामोहत: परवधूभिरलक्ष्यमाणा ।
त्वामाययौ निरुपमप्रणयातिभार-
राज्याभिषेकविधये कलशीधरेव ॥६॥
काचित् कुचे | कोई कुचों पर |
पुन:-असज्जित- | फिर न धारण करके |
कञ्चुलीका | कञ्चुलीका को |
व्यामोहत: | विमोहित हुई |
परवधूभि:- | अन्य वधुओं के द्वारा |
अलक्ष्यमाणा | नहीं देखी जाती हुई |
त्वाम्-आययौ | आपके पास आ गई |
निरुपम-प्रणय- | अतुलनीय प्रणय |
अतिभार- | के गम्भीर भार का |
राज्य-अभिषेक-विधये | (आपके) राज्याभिषेक के करने के लिए |
कलशीधर-इव | कलशों को धारण किए हुए के समान |
अन्य एक विमोहित हुई गोपिका अपने कुचों पर कञ्चुलीका धारण न किए हुए ही
आपके पास आ गई। उसको अन्य गोपिकाओं ने नहीं देखा क्योंकि वे सब भी विमोहित
थीं। ऐसा प्रतीत होता था मानों वह आपका राज्याभिषेक करने के लिए प्रस्तुत
वक्ष रूपी कलशों को धारण किए हुए हो, जो अतुलनीय प्रणय के अतिशय भार का वहन
कर रही हो।
काश्चित् गृहात् किल निरेतुमपारयन्त्य-
स्त्वामेव देव हृदये सुदृढं विभाव्य ।
देहं विधूय परचित्सुखरूपमेकं
त्वामाविशन् परमिमा ननु धन्यधन्या: ॥७॥
स्त्वामेव देव हृदये सुदृढं विभाव्य ।
देहं विधूय परचित्सुखरूपमेकं
त्वामाविशन् परमिमा ननु धन्यधन्या: ॥७॥
काश्चित् गृहात् | कई (गोपियां) घर से |
किल निरेतुम्- | सर्वथा निकलने में |
अपारयन्त्य: | असमर्थ होने के कारण |
त्वाम्-एव देव | आप ही को हे देव! |
हृदये सुदृढं विभाव्य | मन में प्रगाढता से स्मरण करके |
देहं विधूय | शरीर को त्याग कर |
पर-चित्-सुख- | परम चित आनन्द |
रूपम्-एकं त्वाम्- | स्वरूप एकमात्र आप में |
आविशन् | समा गईं |
परम्-इमा:-ननु | अत्यन्त ये (गोपियां) अवश्यमेव |
धन्य-धन्या: | धन्य धन्य हैं |
कुछ गोपियां घर से निकलने में सर्वथा असमर्थ थीं। हे देव! इस कारण वे
प्रगाढता से मन में आपका ही स्मरण करने लगीं। फलस्वरूप उन्होने आपना शरीर
त्याग दिया और परम चित्त आनन्दमय एकमात्र आपमें समा गईं। नि:सन्देह वे
अत्यन्त ही धन्य हैं।
जारात्मना न परमात्मतया स्मरन्त्यो
नार्यो गता: परमहंसगतिं क्षणेन ।
तं त्वां प्रकाशपरमात्मतनुं कथञ्चि-
च्चित्ते वहन्नमृतमश्रममश्नुवीय ॥८॥
नार्यो गता: परमहंसगतिं क्षणेन ।
तं त्वां प्रकाशपरमात्मतनुं कथञ्चि-
च्चित्ते वहन्नमृतमश्रममश्नुवीय ॥८॥
जारात्मना | पर पुरुष प्रेम (की भावना) से |
न परमात्मतया | न कि परमात्मा (की भावना) से |
स्मरन्त्य: | (आपका) स्मरण करते हुए |
नार्य: गता: | (उन) नारियों ने पा लिया |
परमहंसगतिं | परमहंस की गति को |
क्षणेन तं त्वां | क्षण भर में, उन आपको |
प्रकाश-परमात्म-तनुं | प्रकाशमान परमात्म विग्रहवान को |
कथञ्चित्- | जिस किसी भी प्रकार |
चित्ते वहन्- | चित्त में धारण करके |
अमृतम्- | अमृतत्व को |
अश्रमम्-अश्नुवीय | अनायास ही प्राप्त कर लूं |
उन पूण्यवती गोपियों ने पर-पुरुष-प्रेम की भावना से, न कि परमात्मा की
भावना से आपका स्मरण किया। उस पर भी क्षण भर में उन्हे परमहंस की गति
प्राप्त हो गई। प्रकाशमान परमात्म विग्रहवान आपको, जिस किसी भी प्रकार से
चित्त में धारण कर के मैं भी अनायास ही अमृतत्व को प्राप्त कर लूं। ऐसी
कृपा करें।
अभ्यागताभिरभितो व्रजसुन्दरीभि-
र्मुग्धस्मितार्द्रवदन: करुणावलोकी ।
निस्सीमकान्तिजलधिस्त्वमवेक्ष्यमाणो
विश्वैकहृद्य हर मे पवनेश रोगान् ॥९॥
र्मुग्धस्मितार्द्रवदन: करुणावलोकी ।
निस्सीमकान्तिजलधिस्त्वमवेक्ष्यमाणो
विश्वैकहृद्य हर मे पवनेश रोगान् ॥९॥
अभ्यागताभि:- | आई हुई (गोपियों) के द्वारा |
अभित: | सब ओर से |
व्रजसुन्दरीभि:- | व्रज की सुन्दरियों के द्वारा |
मुग्ध-स्मित-आर्द्र-वदन: | मधुर मुस्कान से कान्तिमान मुख वाले |
करुणा-अवलोकी | करुणा मयी दृष्टि वाले |
निस्सीम-कान्ति- | अनन्त कान्ति वाले |
जलधि:-त्वम्- | समुद्र मय आप |
अवेक्ष्यमाण: | देखे गए |
विश्वैकहृद्य | हे विश्व विमोहक! |
हर मे | हर ले मेरे |
पवनेश | हे पवनेश! |
रोगान् | रोगों को |
सब ओर से आ आ कर एकत्रित हुई व्रज की सुन्दरियों ने मधुर मुस्कान से
उज्ज्वल मुख वाले, करुणामयी दृष्टि वाले, अनन्त कान्ति के समुद्र स्वरूप
आपको देखा। हे विश्वविमोहक पवनेश! मेरे रोगों को हर लें।
No comments:
Post a Comment