Narayaneeyam - Dasakam 68 (Delighting the Gopikas)
https://youtu.be/a2GpMx1ig8o
http://youtu.be/xZKJpvxKIqU
===========
Dashaka 68
तव विलोकनाद्गोपिकाजना: प्रमदसङ्कुला: पङ्कजेक्षण ।
अमृतधारया संप्लुता इव स्तिमिततां दधुस्त्वत्पुरोगता: ॥१॥
अमृतधारया संप्लुता इव स्तिमिततां दधुस्त्वत्पुरोगता: ॥१॥
तव विलोकनात्- | ( with) Thy vision (by seeing) |
गोपिका-जना: | the Gopikaas |
प्रमद-सङ्कुला: | with joy overcome |
पङ्कजेक्षण | O Lotus eyed One! |
अमृत-धारया | by the immortal bliss downpour |
संप्लुता इव | drenched as if |
स्तिमिततां | motionless |
दधु:- | attained |
त्वत्-पुरो-गता: | by Thy in front coming |
O Lotus eyed One! As the Gopikaas saw Thee and approached Thee, they
were overcome with joy. They stood stupefied and motionless as if
drenched in a downpour of Immortal Bliss, seeing Thee in front of them.
तदनु काचन त्वत्कराम्बुजं सपदि गृह्णती निर्विशङ्कितम् ।
घनपयोधरे सन्निधाय सा पुलकसंवृता तस्थुषी चिरम् ॥२॥
घनपयोधरे सन्निधाय सा पुलकसंवृता तस्थुषी चिरम् ॥२॥
तदनु काचन | after that, one woman |
त्वत्-कराम्बुजम् | Thy lotus hand |
सपदि गृह्णती | suddenly holding |
निर्विशङ्कितम् | without hesitation |
घन-पयोधरे | on (her) heavy breasts |
सन्निधाय सा | placing she |
पुलक-संवृता | with horripilation all around |
तस्थुषी चिरम् | stood for long |
After that, one woman, suddenly took hold of Thy lotus hand and without
hesitation placed it on her heavy breasts. She stood like that for a
long time with all her hair standing on end.
तव विभोऽपरा कोमलं भुजं निजगलान्तरे पर्यवेष्टयत् ।
गलसमुद्गतं प्राणमारुतं प्रतिनिरुन्धतीवातिहर्षुला ॥३॥
गलसमुद्गतं प्राणमारुतं प्रतिनिरुन्धतीवातिहर्षुला ॥३॥
तव विभो- | Thy O Lord! |
अपरा | another woman |
कोमलं भुजं | Thy tender arms |
निज-गल-अन्तरे | her own neck around |
पर्यवेष्टयत् | wound |
गल-समुद्गतं | coming out of the throat |
प्राण-मारुतं | the vital breath |
प्रतिनिरुन्धति- | stopping |
इव-अति-हर्षुला | as if, extrmely overjoyed |
Another woman extremely overjoyed, O Lord! Wound Thy tender arms around
her own neck, as if stopping the vital breath coming out of her throat.
अपगतत्रपा कापि कामिनी तव मुखाम्बुजात् पूगचर्वितम् ।
प्रतिगृहय्य तद्वक्त्रपङ्कजे निदधती गता पूर्णकामताम् ॥४॥
प्रतिगृहय्य तद्वक्त्रपङ्कजे निदधती गता पूर्णकामताम् ॥४॥
अपगत-त्रपा | devoid of shame |
कापि कामिनी | some one woman |
तव | Thy |
मुख-अम्बुजात् | from the lotus like mouth |
पूग-चर्वितम् | betel chewed |
प्रतिगृहय्य | taking |
तत्-वक्त्र-पङ्कजे | (in) her lotus like mouth |
निदधती गता | putting, attained |
पूर्ण-कामताम् | fullfillment of all desires |
One woman, devoid of all shame, from Thy lotus like mouth, taking the
chewed betel, put it into her lotus like mouth. Doing so she attained
the summit of fulfillment of all desires.
विकरुणो वने संविहाय मामपगतोऽसि का त्वामिह स्पृशेत् ।
इति सरोषया तावदेकया सजललोचनं वीक्षितो भवान् ॥५॥
इति सरोषया तावदेकया सजललोचनं वीक्षितो भवान् ॥५॥
विकरुण: | without any pity |
वने संविहाय माम्- | in the forest leaving me |
अपगत:-असि | having gone away |
का त्वाम्-इह | which one (of us), Thee here |
स्पृशेत् इति | will touch, thus (saying) |
सरोषया तावत्- | resentfully then |
एकया | by one (woman) |
सजल-लोचनम् | with tearful eyes |
वीक्षित: भवान् | were seen Thou |
Who ever of us, here, will ever touch Thee who mercilessly abondoned me
in the forest.' One of them resentfully said as she looked at Thee with
tearful eyes.
इति मुदाऽऽकुलैर्वल्लवीजनै: सममुपागतो यामुने तटे ।
मृदुकुचाम्बरै: कल्पितासने घुसृणभासुरे पर्यशोभथा: ॥६॥
मृदुकुचाम्बरै: कल्पितासने घुसृणभासुरे पर्यशोभथा: ॥६॥
इति मुदाकुलै:- | thus with them who were overhwelmed with joy |
वल्लवीजनै: | the Gopikaas |
समम्-उपागत: | with them went to |
यामुने तटे | the Yamunaa banks |
मृदु-कुच-अम्बरै: | with the soft upper garments (scarfs) |
कल्पित-आसने | prepared seat (on that) |
घुसृण-भासुरे | (which was) with saffron tainted |
पर्यशोभथा: | Thou shone |
In this manner, Thou went to the banks of the river Yamunaa with the
Gopikaas who were overwhelmed with joy. The Gopikaas prepared a seat
with their saffron tainted upper clothes, on which Thou sat with all
splendour and shining with glory.
कतिविधा कृपा केऽपि सर्वतो धृतदयोदया: केचिदाश्रिते ।
कतिचिदीदृशा मादृशेष्वपीत्यभिहितो भवान् वल्लवीजनै: ॥७॥
कतिचिदीदृशा मादृशेष्वपीत्यभिहितो भवान् वल्लवीजनै: ॥७॥
कतिविधा कृपा | of how many varieties is kindness |
के-अपि सर्वत: | some (people have) for all |
धृत-दयोदया: | having compassion |
केचित्-आश्रिते | some people for (their) dependents |
कतिचित्-ईदृशा | some (people) are such (like Thee who) |
मा-दृशेषु-अपि- | on people like me even (do not have pity) |
इति-अभिहित: | thus were told |
भवान् | Thou |
वल्लवीजनै: | by the Gopikaas |
The Gopikaas told Thee 'There are so many varieties of compassion. Some
people have compassion for everyone. Some have compassion for their
dependents. Yet, some are such that they do not have compassion even
towards those who have given up everything and fully surrendered, like
me.'
अयि कुमारिका नैव शङ्क्यतां कठिनता मयि प्रेमकातरे ।
मयि तु चेतसो वोऽनुवृत्तये कृतमिदं मयेत्यूचिवान् भवान् ॥८॥
मयि तु चेतसो वोऽनुवृत्तये कृतमिदं मयेत्यूचिवान् भवान् ॥८॥
अयि कुमारिका | O dear girls! |
न-एव शङ्क्यतां | do not certainly doubt |
कठिनता मयि | hard heartedness in me |
प्रेम-कातरे | (who is) afraid of losing your love |
मयि तु | in me indeed |
चेतस: व:- | your minds |
अनुवृत्तये | may continuously be fixed |
कृतम्-इदम् | this was done |
मया-इति- | by me thus |
उचिवान् | said |
भवान् | Thou |
Thou told them, 'O dear girls! Do not at all suspect me to be hard
hearted. I am afraid of losing your love. I did this (the disappearing)
so that your minds may be continuously fixed in me.'
अयि निशम्यतां जीववल्लभा: प्रियतमो जनो नेदृशो मम ।
तदिह रम्यतां रम्ययामिनीष्वनुपरोधमित्यालपो विभो ॥९॥
तदिह रम्यतां रम्ययामिनीष्वनुपरोधमित्यालपो विभो ॥९॥
अयि निशम्यतां | Oh please listen |
जीववल्लभा: | most dear ones |
प्रियतम: जन: | more dear person |
न-ईदृश: मम | is not than this (you) mine (for me) |
तत्-इह रम्यतां | therefore here sport |
रम्य-यामिनीषु- | in the beautiful nights |
अनुपरोधम्- | without hinderance |
इति-आलप: | thus said Thou |
विभो | O Lord! |
O most dear Ones! Please listen to me. Take it from me that there is
none as dear to me as you. Therefore here on the banks of Yamunaa in the
beautiful nights sport with me without any hinderance.' Thus, O Lord!
Thou told them.
इति गिराधिकं मोदमेदुरैर्व्रजवधूजनै: साकमारमन् ।
कलितकौतुको रासखेलने गुरुपुरीपते पाहि मां गदात् ॥१०॥
कलितकौतुको रासखेलने गुरुपुरीपते पाहि मां गदात् ॥१०॥
इति गिरा- | thus by such declaration |
अधिकं | even more |
मोद-मेदुरै:- | filled with intense joy |
व्रज-वधूजनै: | the Gopikaas of Vraja |
साकम्-आरमन् | with them sporting |
कलित-कौतुक: | full of enthusiasm |
रास-खेलने | engaged in Raasa-leelaa |
गुरुपुरीपते | O Lord of Guruvaayur! |
पाहि मां गदात् | save me from ailments |
Thus with such declaration the Gopikaas were even more full of intense
joy. Thou then, sporting with them, full of enthusiasm engaged in
Raasaleelaa. O Lord of Guruvaayur! Save me from ailments.
दशक ६८
तव विलोकनाद्गोपिकाजना: प्रमदसङ्कुला: पङ्कजेक्षण ।
अमृतधारया संप्लुता इव स्तिमिततां दधुस्त्वत्पुरोगता: ॥१॥
अमृतधारया संप्लुता इव स्तिमिततां दधुस्त्वत्पुरोगता: ॥१॥
तव विलोकनात्- | आपको देखने से |
गोपिका-जना: | गोपिकाएं |
प्रमद-सङ्कुला: | आनन्द विभोर हुई |
पङ्कजेक्षण | हे कमलनयन! |
अमृत-धारया | अमृत की धारा से |
संप्लुता इव | सुसिञ्चित के समान (हो कर) |
स्तिमिततां | निश्चलता को |
दधु:- | प्राप्त कर के |
त्वत्-पुरो-गता: | आपके सामने आ गईं |
हे कमलनयन! गोपिकाएं आपको देख कर आनन्द विभोर हो गई। आपको सामने आए हुए देख
कर मानो अमृत स्रोत की धारा से सुसिञ्चित हो कर वे स्तब्ध हो गईं।
तदनु काचन त्वत्कराम्बुजं सपदि गृह्णती निर्विशङ्कितम् ।
घनपयोधरे सन्निधाय सा पुलकसंवृता तस्थुषी चिरम् ॥२॥
घनपयोधरे सन्निधाय सा पुलकसंवृता तस्थुषी चिरम् ॥२॥
तदनु काचन | तब फिर कोई |
त्वत्-कराम्बुजम् | आपके हस्त कमल को |
सपदि गृह्णती | हठात पकडती हुई |
निर्विशङ्कितम् | शंकारहित हो कर |
घन-पयोधरे | पीन पयोधर पर |
सन्निधाय सा | रख कर वह |
पुलक-संवृता | रोमाञ्च से परिपूर्ण |
तस्थुषी चिरम् | खडी रही देर तक |
एक गोपिका ने हठात आपका करकमल पकड कर निश्शङ्क भाव से अपने पीन पयोधर पर रख
लिया। रोमाञ्च से परिपूर्ण उस स्थिति में वह बहुत देर तक खडी रही।
तव विभोऽपरा कोमलं भुजं निजगलान्तरे पर्यवेष्टयत् ।
गलसमुद्गतं प्राणमारुतं प्रतिनिरुन्धतीवातिहर्षुला ॥३॥
गलसमुद्गतं प्राणमारुतं प्रतिनिरुन्धतीवातिहर्षुला ॥३॥
तव विभो- | आपकी हे विभो! |
अपरा | दूसरी (गोपिका) ने |
कोमलं भुजं | कोमल भुजा को |
निज-गल-अन्तरे | स्वयं के गले के चारों ओर |
पर्यवेष्टयत् | लपेट लिया |
गल-समुद्गतं | गले में आए हुए |
प्राण-मारुतं | प्राण वायु को |
प्रतिनिरुन्धति- | रोकते हुए |
इव-अति-हर्षुला | के समान अत्यन्त हर्षित हुई |
हे विभो! दूसरी गोपिका ने मानो प्राण वायु को गले में ही रोकते हुए,
अत्यधिक हर्ष विह्वल हो कर आपकी कोमल भुजाओं को अपने गले में लपेट लिया।
अपगतत्रपा कापि कामिनी तव मुखाम्बुजात् पूगचर्वितम् ।
प्रतिगृहय्य तद्वक्त्रपङ्कजे निदधती गता पूर्णकामताम् ॥४॥
प्रतिगृहय्य तद्वक्त्रपङ्कजे निदधती गता पूर्णकामताम् ॥४॥
अपगत-त्रपा | छोड कर लज्जा को |
कापि कामिनी | कोई और कामिनी |
तव | आपके |
मुख-अम्बुजात् | मुख कमल से |
पूग-चर्वितम् | पान चबाए हुए को |
प्रतिगृहय्य | ले कर के |
तत्-वक्त्र-पङ्कजे | उसके मुखारविन्द में |
निदधती गता | डालते हुए पहुंच गई |
पूर्ण-कामताम् | सर्व काम परिपूर्णता को |
एक और कोई कामिनी लज्जा को छोड कर आपके मुख कमल से चबाया हुआ पान ले कर
अपने मुखारविन्द में डाल कर मानो सर्व काम परिपूर्णता की स्थिति को प्राप्त
हो गई।
विकरुणो वने संविहाय मामपगतोऽसि का त्वामिह स्पृशेत् ।
इति सरोषया तावदेकया सजललोचनं वीक्षितो भवान् ॥५॥
इति सरोषया तावदेकया सजललोचनं वीक्षितो भवान् ॥५॥
विकरुण: | निर्दयी |
वने संविहाय माम्- | वन में छोड कर मुझको |
अपगत:-असि | चले गए हो |
का त्वाम्-इह | कौन तुमको यहां |
स्पृशेत् इति | स्पर्श करे इस प्रकार |
सरोषया तावत्- | उलाहना सहित तब |
एकया | एक के द्वारा |
सजल-लोचनम् | (जिसके) नेत्रों में आंसू भरे हुए |
वीक्षित: भवान् | देखे गए आप |
'निर्दयी तुम मुझको वन में छोड कर चले गए थे। ऐसे तुमको अब यहां कौन
स्पर्श करेगा?' इस प्रकार उलाहना देते हुए, एक ने आखों में आंसू भर कर आपको
देखा।
इति मुदाऽऽकुलैर्वल्लवीजनै: सममुपागतो यामुने तटे ।
मृदुकुचाम्बरै: कल्पितासने घुसृणभासुरे पर्यशोभथा: ॥६॥
मृदुकुचाम्बरै: कल्पितासने घुसृणभासुरे पर्यशोभथा: ॥६॥
इति मुदाकुलै:- | इस प्रकार हर्ष से आकुल उन |
वल्लवीजनै: | गोपिकाओं के |
समम्-उपागत: | साथ जा कर |
यामुने तटे | यमुना के तट पर |
मृदु-कुच-अम्बरै: | नर्म ओढनियों से |
कल्पित-आसने | बनाए गए आसनों पर |
घुसृण-भासुरे | केसर से अङ्कित |
पर्यशोभथा: | (आप) सुशोभित हुए |
हर्षातिरेक से आकुल उन गोपिकाओं के साथ आप यमुना के तट पर गए। वहां गोपियों
द्वारा अपनी केसर चर्चित नर्म ओढनियों से बनाए आसन पर विराजमान हो कर आप
सुशोभित हुए।
कतिविधा कृपा केऽपि सर्वतो धृतदयोदया: केचिदाश्रिते ।
कतिचिदीदृशा मादृशेष्वपीत्यभिहितो भवान् वल्लवीजनै: ॥७॥
कतिचिदीदृशा मादृशेष्वपीत्यभिहितो भवान् वल्लवीजनै: ॥७॥
कतिविधा कृपा | कितने प्रकार की कृपा (होती है) |
के-अपि सर्वत: | कोई तो सभी पर |
धृत-दयोदया: | धारण सदा करते हैं दया |
केचित्-आश्रिते | कोई आश्रितो पर |
कतिचित्-ईदृशा | कुछ इस प्रकार के होते हैं |
मा-दृशेषु-अपि- | (जो) मुझ जैसों के ऊपर भी (दया नहीं करते) |
इति-अभिहित: | इस प्रकार कहा |
भवान् | आपको |
वल्लवीजनै: | युवतियों ने |
दया अनेक प्रकार की होती है। कुछ तो सभी के लिए सदा ही दया का भाव धारण
करते हैं। कुछ केवल अपने आश्रितों पर ही दया करते हैं। कुछ ऐसे भी होते हैं
जो मुझ जैसी (दीन) पर भी दया नहीं करते।' युवतियों ने आपसे इस प्रकार कहा।
अयि कुमारिका नैव शङ्क्यतां कठिनता मयि प्रेमकातरे ।
मयि तु चेतसो वोऽनुवृत्तये कृतमिदं मयेत्यूचिवान् भवान् ॥८॥
मयि तु चेतसो वोऽनुवृत्तये कृतमिदं मयेत्यूचिवान् भवान् ॥८॥
अयि कुमारिका | अयि कुमारिकाओं |
न-एव शङ्क्यतां | न ही आशंकित होवो |
कठिनता मयि | निष्ठुरता मुझमें |
प्रेम-कातरे | प्रेम के लिए विह्वल |
मयि तु | मुझमें ही |
चेतस: व:- | चित्त तुम लोगों का हो |
अनुवृत्तये | सदा सर्वदा |
कृतम्-इदम् | (इसलिए) किया यह |
मया-इति- | मैने इस प्रकार |
उचिवान् | कहा |
भवान् | आपने |
आपने कहा, 'हे कुमारिकाओं मुझमें निष्ठुरता की आशंका मत करो। मैं तुम्हारे
प्रेम के लिये विह्वल रहता हूं। तुम्हारा चित्त सदा सर्वदा मुझी में लगा
रहे इसीलिए मैने अदृश्य होने की यह क्रीडा की थी।'
अयि निशम्यतां जीववल्लभा: प्रियतमो जनो नेदृशो मम ।
तदिह रम्यतां रम्ययामिनीष्वनुपरोधमित्यालपो विभो ॥९॥
तदिह रम्यतां रम्ययामिनीष्वनुपरोधमित्यालपो विभो ॥९॥
अयि निशम्यतां | अयि सुनो |
जीववल्लभा: | हे जीवन वल्लभाओं! |
प्रियतम: जन: | प्रियतम जन |
न-ईदृश: मम | नही हैं ऐसी मेरी (तुमसे अन्य) |
तत्-इह रम्यतां | इसलिए यहां रमण करो |
रम्य-यामिनीषु- | रमणीय रात्रियों में |
अनुपरोधम्- | निश्शङ्कित हो कर |
इति-आलप: | इस प्रकार कहा (आपने) |
विभो | हे विभो! |
हे विभो! आपने गोपिकाओं से कहा 'अयि जीवन वल्लभाओं सुनो! तुमसे अन्य और
कोई मेरे प्रियतम जन नहीं हैं। इन रमणीय रात्रियों में मेरे संग निश्श्ङ्क
भाव से रमण करो।'
इति गिराधिकं मोदमेदुरैर्व्रजवधूजनै: साकमारमन् ।
कलितकौतुको रासखेलने गुरुपुरीपते पाहि मां गदात् ॥१०॥
कलितकौतुको रासखेलने गुरुपुरीपते पाहि मां गदात् ॥१०॥
इति गिरा- | इस प्रकार की वाणी से |
अधिकं | और अधिक |
मोद-मेदुरै:- | प्रसन्नता से अभिभूत |
व्रज-वधूजनै: | व्रज की गोपिकाओं के |
साकम्-आरमन् | साथ रमण करने लगे |
कलित-कौतुक: | सम्पूर्ण उत्साह के साथ |
रास-खेलने | रास क्रीडा में |
गुरुपुरीपते | हे गुरुपुरीपते! |
पाहि मां गदात् | रक्षा करें रोगों से |
आपकी यह वाणी सुन कर व्रज की गोपिकाएं और भी आनन्द विभोर हो गई। उनके साथ
आप अत्यन्त उत्साह से रास कीडा में रमण करने लगे। हे गुरुपुरीपते! रोगों से
मेरी रक्षा करें।
No comments:
Post a Comment