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Saturday, September 17, 2016

Narayaneeyam - Dasakam 22 ( Salvation of Ajaamila)


Narayaneeyam - Dasakam 22 ( Salvation of Ajaamila)

 https://youtu.be/u9EV9w_y1EU

 

http://youtu.be/vueXXsx1wGU
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Dashaka 22
अजामिलो नाम महीसुर: पुरा
चरन् विभो धर्मपथान् गृहाश्रमी ।
गुरोर्गिरा काननमेत्य दृष्टवान्
सुधृष्टशीलां कुलटां मदाकुलाम् ॥१॥
अजामिल: नाम महीसुर: The Braahmin by the name Ajaamil
पुरा long ago
चरन् विभो धर्मपथान् O Lord! Who was leading a righteous life
गृहाश्रमी (and) who was a householder
गुरो:-गिरा at the request of his father
काननम्-एत्य going to the forest
दृष्टवान् saw
सुधृष्ट्शीलाम् an immodest
कुलटाम् (and) immoral woman
मदाकुलाम् given to drinking
O Lord! Long ago there was a Braahmin householder named Ajaamil who led a virtuous life. He went to the forest (for collecting sacrificial fuel) at his father's request. There he met an immoral, immodest woman who was given to drinking.
स्वत: प्रशान्तोऽपि तदाहृताशय:
स्वधर्ममुत्सृज्य तया समारमन् ।
अधर्मकारी दशमी भवन् पुन-
र्दधौ भवन्नामयुते सुते रतिम् ॥२॥
स्वत: प्रशान्त:-अपि self controled, though
तत्-आहृत-आशय: his mind being attracted by her
स्व-धर्मम्-उत्सृज्य all his duties, giving up
तया समारमन् her (company) enjoying
अधर्मकारी unrighteous
दशमी भवन् पुन:- very old becoming, then
दधौ gave
भवत्-नाम-युते सुते who bore Thy name, to his son
रतिम् attachment
Though by nature a man of self control his mind was attracted to her. He gave up all his duties and revelling in her company led a sinful life. As he became old, he became very much attached to his son who bore Thy name - Naaraayana.
स मृत्युकाले यमराजकिङ्करान्
भयङ्करांस्त्रीनभिलक्षयन् भिया ।
पुरा मनाक् त्वत्स्मृतिवासनाबलात्
जुहाव नारायणनामकं सुतम् ॥३॥
स मृत्युकाले he, at death time
यमराज-किङ्करान् the death god's messengers
भयङ्करान्-त्रीन्- very fierce, three (of them)
अभिलक्षयन् seeing (before him)
भिया in fear
पुरा मनाक् long ago, certainly
त्वत्-स्मृति-वासना-बलात् a (faint) memory of Thee, by its (Thy memory's) strength
जुहाव called
नारायण-नामकं सुतम् Naaraayana named his son
At the time of death, he saw before him three fierce looking emmissaries of Yama - the god of death. He called out in frieght the name of his son Naaraayana, induced by the strength of the memory of his past devotion to Thee.
दुराशयस्यापि तदात्वनिर्गत-
त्वदीयनामाक्षरमात्रवैभवात् ।
पुरोऽभिपेतुर्भवदीयपार्षदा:
चतुर्भुजा: पीतपटा मनोरमा: ॥४॥
दुराशयस्य-अपि तदा-तु then even though he was evil minded
अनिर्गत त्वदीय- emrging, of Thy
नाम-अक्षर-मात्र-वैभवात् name's letters,solely by, its glory
पुर:-अभिपेतु:- before him appeared
भवदीय पार्षदा: Thy emmissaries
चतुर्भुजा: पीतपटा: मनोरमा: having four arms, wearing yellow garments with lovely appearance
In spite of his evil nature, by the glory of the letters of Thy name uttered by him, there appeared before him, Thy emmissaries.They had four arms and were wearing yellow robes and were of enchanting appearance.
अमुं च संपाश्य विकर्षतो भटान्
विमुञ्चतेत्यारुरुधुर्बलादमी ।
निवारितास्ते च भवज्जनैस्तदा
तदीयपापं निखिलं न्यवेदयन् ॥५॥
अमुं च संपाश्य him (Ajaamila) tying up with ropes
विकर्षत: भटान् (and) dragging, to the messangers (of Yama)
विमुञ्चत-इति- "Release him" thus (saying)
आरुरुधु:-बलात्-अमी (were) stopped by force, they
निवारिता:-ते च भवत्-जनै:- and were obstructed by Thy emmissaries
तदा तदीय-पापं निखिलं then, all his sins
न्यवेदयन् (they) narrated
Seeing Ajaamil tied up with ropes and being dragged by the messangers of Yama, they were obstructed by Thy emmissaries by force and were stopped to do so. Then the emmissaries of Yama narrate all his sins.
भवन्तु पापानि कथं तु निष्कृते
कृतेऽपि भो दण्डनमस्ति पण्डिता: ।
न निष्कृति: किं विदिता भवादृशा-
मिति प्रभो त्वत्पुरुषा बभाषिरे ॥६॥
भवन्तु पापानि let there be sins
कथं तु how is it
निष्कृते कृते-अपि atonements have been made एवेन्
भो दण्डनम्-अस्ति पण्डिता: are there punishments, O Learned Ones!
न निष्कृति किं विदिता is atonement not known
भवदृशाम्-इति to persons like you? Thus
प्रभो O Lord
त्वत्-पुरुषा बभाषिरे Thy emissaries spoke
O Lord! Thy emissaries told them that even if there were sins, how was it that there was punishment when atonement had been made. Did people like them who were learned, not know what atonement was?
श्रुतिस्मृतिभ्यां विहिता व्रतादय:
पुनन्ति पापं न लुनन्ति वासनाम् ।
अनन्तसेवा तु निकृन्तति द्वयी-
मिति प्रभो त्वत्पुरुषा बभाषिरे ॥७॥
श्रुति-स्मृतिभ्यां in the Srutis and Smritis
विहिता: व्रतादय: are laid down, the vows etc.,
पुनन्ति पापं cleanse one of sins
न लुनन्ति वासनां but do not destroy the tendency
अनन्त-सेवा तु service to the Lord however,
निकृन्तति द्वयीम्-इति destroys both, thus
प्रभो O Lord!
त्वत्-पुरुषा बभाषिरे Thy emissaries did speak
O Lord! Thy emissaries told them that in the Srutis and Smritis as per the vows which are laid down, they absolve a person from sins, but do not curb the sinful tendency. Whereas, the service of the Lord! Destroys both - the sins and the sinful tendencies.
अनेन भो जन्मसहस्रकोटिभि:
कृतेषु पापेष्वपि निष्कृति: कृता ।
यदग्रहीन्नाम भयाकुलो हरे-
रिति प्रभो त्वत्पुरुषा बभाषिरे ॥८॥
अनेन भो by him (Ajaamil) O! You (messangers of Yama)
जन्म-सहस्र-कोटिभि: in innumerable lives
कृतेषु पापेषु-अपि if he has commited sins also
निष्कृति: कृता atonement has been made
यत्-अग्रहीत्-नाम because he took (uttered) the name
भय-आकुल: हरे:-इति overcome by fear, of Hari, thus
प्रभो O Lord!
त्वत्-पुरुषा बभाषिरे Thy emmissaries did speak
O Lord! Thy emmisaarries told the messengers of Yama that though overcome by fear, Ajaamil had uttered the Name of Hari. By that alone he had atoned for all the sins committed by him in innumerable lives.
नृणामबुद्ध्यापि मुकुन्दकीर्तनं
दहत्यघौघान् महिमास्य तादृश: ।
यथाग्निरेधांसि यथौषधं गदा -
निति प्रभो त्वत्पुरुषा बभाषिरे ॥९॥
नृणाम्-अबुद्ध्या-अपि of human beings, unknowingly even,
मुकुन्द्-कीर्तनं the name of Mukund is chanted
दहति-अघ-औघान् burns up all sins
महिमा-अस्य तादृश: its glory is such
यथा-अग्नि:-एधांसि like fire (burning) fuel
यथा-औषधं गदान् इति like medicine (curing) disease
प्रभो O Lord! Thus
त्वत्-पुरुषा बभाषिरे Thy emissaries did speak
O Lord! Thy emissaries told them that even if the chanting of The Name of Mukund is done unknowingly, by the human beings, it burns up all their sins. Its glory is like that of fire burning the fuel and like the medicine curing the diease.
इतीरितैर्याम्यभटैरपासृते
भवद्भटानां च गणे तिरोहिते ।
भवत्स्मृतिं कंचन कालमाचरन्
भवत्पदं प्रापि भवद्भटैरसौ ॥१०॥
इति-ईरितै:- thus being told
याम्य-भटै:- the messengers of Yama
अपासृते having left
भवत्-भटानां च and Thy emissaries
गणे तिरोहिते in a group having disappeared
भवत्-स्मृतिं having Thy rememberance
कंचन कालम्- for some time
आचरन् and worshipping Thee
भवत्-पदं प्रापि Thy abode attaining
भवत्-भटै:-असौ this (Ajaamil) (led by) Thy emissaries
The messangers of Yama left when they were told thus. The group of Thy emissaries also disappeared. Ajaamil remembered and worshipped Thee for some time and then attained Thy abode led by Thy emissaries.
स्वकिङ्करावेदनशङ्कितो यम-
स्त्वदंघ्रिभक्तेषु न गम्यतामिति ।
स्वकीयभृत्यानशिशिक्षदुच्चकै:
स देव वातालयनाथ पाहि माम् ॥११॥
स्व-किङ्कर-आवेदन- his messengers reprting1`
शङ्कित: यम:- the much concerned Yama
त्वत्-अंघ्रि-भक्तेषु to the devotees of Thy feet
न गम्यताम्-इति do not go, thus
स्वकीय-भृत्यान्- his own messengers
अशिशिक्षत्-उच्चकै: instructed strictly
स देव वातालयनाथ Thou (who are such) Lord! O Lord of Guruvaayur!
पाहि माम् protect me
Yama was very much concerened at the report of his messengers. He strictly instructed them not to go to the devotees of Thy feet. O Lord! O Lord of Guruvaayur! Who are such, protect me.


दशक २२
अजामिलो नाम महीसुर: पुरा
चरन् विभो धर्मपथान् गृहाश्रमी ।
गुरोर्गिरा काननमेत्य दृष्टवान्
सुधृष्टशीलां कुलटां मदाकुलाम् ॥१॥
अजामिल: नाम महीसुर: अजामिल नाम का ब्राह्मण
पुरा बहुत पहले
चरन् विभो धर्मपथान् पालन करते हुए, हे प्रभो! धर्ममार्ग का
गृहाश्रमी (उस) गृहस्थ ने
गुरो:-गिरा पिता की आज्ञा से
काननम्-एत्य वन में जा कर
दृष्टवान् देखा
सुधृष्ट्शीलाम् अत्यन्त जिद्दी
कुलटाम् व्यभिचारिणी (स्त्री को)
मदाकुलाम् (जो) मदोन्मत्त थी
हे प्रभु! बहुत पहले धर्म मार्ग का पालन करने वाला अजामिल नाम का गृहस्थ ब्राह्मण अपने पिता की आज्ञा से वन गया। वहां पहुंच कर उसने एक जिद्दी व्यभिचारिणी मदोन्मत्त स्त्री देखी।
स्वत: प्रशान्तोऽपि तदाहृताशय:
स्वधर्ममुत्सृज्य तया समारमन् ।
अधर्मकारी दशमी भवन् पुन-
र्दधौ भवन्नामयुते सुते रतिम् ॥२॥
स्वत: प्रशान्त:-अपि स्वयं अत्यन्त शान्त होते हुए भी
तत्-आहृत-आशय: उसके द्वारा आकृष्ट मन वाला
स्व-धर्मम्-उत्सृज्य वह अपने धर्म को छोड कर
तया समारमन् उसके संग रमण करने लगा
अधर्मकारी अधार्मिक वह
दशमी भवन् पुन:- दशमी स्थिति प्राप्त कर के (मरणासन्न हो कर)
दधौ दिया
भवत्-नाम-युते सुते आपके नाम वाले पुत्र मे
रतिम् प्रेम
स्वयं अजामिल अत्यन्त शान्त स्वभाव का था। किन्तु उसमें मन आकृष्ट हो जाने पर वह उसके साथ रमण करने लगा और अधार्मिक हो गया। मरणासन्न अवस्था को प्राप्त हो कर उसका अपने उस पुत्र पर प्रेम होगया जिसको उसने आपका नाम 'नारायण' दिया था।
स मृत्युकाले यमराजकिङ्करान्
भयङ्करांस्त्रीनभिलक्षयन् भिया ।
पुरा मनाक् त्वत्स्मृतिवासनाबलात्
जुहाव नारायणनामकं सुतम् ॥३॥
स मृत्युकाले वह मृत्य के समय
यमराज-किङ्करान् यमराज के दूतों को
भयङ्करान्-त्रीन्- अत्यन्त भयङ्कर तीनों को
अभिलक्षयन् देख कर
भिया डर से
पुरा मनाक् पूर्व काल में
त्वत्-स्मृति-वासना-बलात् आपकी स्मृति के संस्कार के बल से
जुहाव पुकारा
नारायण-नामकं सुतम् नारायण नाम के पुत्र को
यमराज के तीन भयङ्कर दूतों को देख कर वह भयभीत हो गया। पूर्वकाल में आपकी आराधना की स्मृति के संस्कार के बल से उसने अपने नारायण नाम के पुत्र को पुकारा।
दुराशयस्यापि तदात्वनिर्गत-
त्वदीयनामाक्षरमात्रवैभवात् ।
पुरोऽभिपेतुर्भवदीयपार्षदा:
चतुर्भुजा: पीतपटा मनोरमा: ॥४॥
दुराशयस्य-अपि तदा-तु दुराचारी होते हुए भी तब भी
अनिर्गत त्वदीय- निकल गया आपके
नाम-अक्षर-मात्र-वैभवात् नाम का अक्षर मात्र (उसके) प्रभाव से
पुर:-अभिपेतु:- उसके सामने प्रकट हो गये
भवदीय पार्षदा: आपके पार्षद
चतुर्भुजा: पीतपटा: मनोरमा: चार भुजा वाले, पीताम्बरधारी और अत्यन्त मनोहर
अत्यन्त दुराचारी होने पर भी आपके नामाक्षर मात्र के उच्चारण से उसके सामने आपके पार्षद प्रकट हो गये वे चतुर्भुज थे पीताम्बरधारी थे और अति मनोहर थे।
अमुं च संपाश्य विकर्षतो भटान्
विमुञ्चतेत्यारुरुधुर्बलादमी ।
निवारितास्ते च भवज्जनैस्तदा
तदीयपापं निखिलं न्यवेदयन् ॥५॥
अमुं च संपाश्य और इसको (अजामिल को) बांध कर
विकर्षत: भटान् खींचते हुए दूतों को
विमुञ्चत-इति- छोड दो, इस प्रकार
आरुरुधु:-बलात्-अमी क्रोध से बलपूर्वक वे
निवारिता:-ते च भवत्-जनै:- रोक दिये गये वे आपके लोगों के द्वारा
तदा तदीय-पापं निखिलं तब उसके सब पापों का
न्यवेदयन् निवेदन किया
आपके पार्षदों ने अजामिल को बांध कर और खींच कर ले जाते हुए यमदूतों को रोका और क्रोधित हो कर कहा कि उसे छोड दें। तब उन दूतों ने उसके समस्त पापों का वर्णन किया।
भवन्तु पापानि कथं तु निष्कृते
कृतेऽपि भो दण्डनमस्ति पण्डिता: ।
न निष्कृति: किं विदिता भवादृशा-
मिति प्रभो त्वत्पुरुषा बभाषिरे ॥६॥
भवन्तु पापानि भले ही पाप हों
कथं तु कैसे फिर
निष्कृते कृते-अपि प्रायश्चित कर लेने पर भी
भो दण्डनम्-अस्ति पण्डिता: दण्ड होता है ओ पण्डितों
न निष्कृति किं विदिता नहीं प्रायश्चित पता है क्या
भवदृशाम्-इति आप जैसों को इस प्रकार
प्रभो हे प्रभो!
त्वत्-पुरुषा बभाषिरे आपके पार्षदों ने कहा
हे प्रभॊ! आपके पार्षदों ने कहा -'भले ही कितने भी पाप क्यों न हों, प्रायश्चित कर लेने पर भी क्या दण्ड होता है? हे पण्डितों! आप जैसों को क्या प्रायश्चित के बारे में भी कुछ ज्ञान है?
श्रुतिस्मृतिभ्यां विहिता व्रतादय:
पुनन्ति पापं न लुनन्ति वासनाम् ।
अनन्तसेवा तु निकृन्तति द्वयी-
मिति प्रभो त्वत्पुरुषा बभाषिरे ॥७॥
श्रुति-स्मृतिभ्यां श्रुतियों और स्मृतियों में
विहिता: व्रतादय: निर्देशित व्रत आदि से
पुनन्ति पापं परिष्कृत होते हैं पाप
न लुनन्ति वासनां नाश नहीं करते (पाप) वासना का,
अनन्त-सेवा तु ईश्वर की सेवा तो
निकृन्तति द्वयीम्-इति काट देती है दोनों को इस प्रकार
प्रभो हे प्रभो!
त्वत्-पुरुषा बभाषिरे आपके पार्षदों ने कहा
हे प्रभो! आपके पार्षदों ने कहा कि 'श्रुतियों और स्मृतियों में निर्देशित व्रत पापों को तो परिमार्जित कर देते हैं किन्तु तत जनित वासनाओं का नाश नहीं करते। परन्तु ईश्वर की सेवा दोनों को काट देती है।'
अनेन भो जन्मसहस्रकोटिभि:
कृतेषु पापेष्वपि निष्कृति: कृता ।
यदग्रहीन्नाम भयाकुलो हरे-
रिति प्रभो त्वत्पुरुषा बभाषिरे ॥८॥
अनेन भो इसके (अजामिल) द्वारा, हे आप लोग!
जन्म-सहस्र-कोटिभि: सहस्र करोड जन्मों से
कृतेषु पापेषु-अपि किये जाने वाले पापों में भी
निष्कृति: कृता प्रायश्चित कर लिया गया है
यत्-अग्रहीत्-नाम क्योंकि ले लिया था नाम
भय-आकुल: हरे:-इति भय से त्रस्त हरि का इस प्रकार
प्रभो हे प्रभो!
त्वत्-पुरुषा बभाषिरे आपके पार्षदों ने कहा
हे प्रभो! आपके पार्षदों ने कहा कि 'अजामिल ने सहस्र करोड जन्मों में किये गये पापों का भी प्रायश्चित कर लिया, क्योंकि भय से त्रस्त इसने हरि के नाम का उच्चारण कर लिया।'
नृणामबुद्ध्यापि मुकुन्दकीर्तनं
दहत्यघौघान् महिमास्य तादृश: ।
यथाग्निरेधांसि यथौषधं गदा -
निति प्रभो त्वत्पुरुषा बभाषिरे ॥९॥
नृणाम्-अबुद्ध्या-अपि मनुष्यों के द्वारा अनजाने में भी
मुकुन्द्-कीर्तनं मुकुन्द का कीर्तन
दहति-अघ-औघान् जला देता है पापों के समूह को
महिमा-अस्य तादृश: महिमा इसकी वैसी है
यथा-अग्नि:-एधांसि जिस प्रकार अग्नि ईन्धन को
यथा-औषधं गदान् इति जिस प्रकार औषधि रोगों को इस प्रकार
प्रभो हे प्रभो!
त्वत्-पुरुषा बभाषिरे आपके पार्षदों ने कहा
हे प्रभो! आपके पार्षदों ने फिर कहा कि 'मुकुन्द के कीर्तन की महिमा ऐसी है कि यह पापों के समूहों को उसी प्रकार जला डालती है, जिस प्रकार अग्नि ईन्धन को और औषधि रोगों को जला डालती है।'
इतीरितैर्याम्यभटैरपासृते
भवद्भटानां च गणे तिरोहिते ।
भवत्स्मृतिं कंचन कालमाचरन्
भवत्पदं प्रापि भवद्भटैरसौ ॥१०॥
इति-ईरितै:- इस प्रकार कहे जाने पर
याम्य-भटै:- यमदूतों के
अपासृते चले जाने पर
भवत्-भटानां च और आपके पार्षद
गणे तिरोहिते समूदाय के तिरोहित हो जाने पर
भवत्-स्मृतिं आपकी स्मृति को
कंचन कालम्- कुछ काल तक
आचरन् आचरण करते हुए
भवत्-पदं प्रापि आपके पद को प्राप्त किया
भवत्-भटै:-असौ आपके पार्षदों के द्वारा यह (अजामिल)
इस प्रकार समझाये जाने पर, यमदूतों के चले जाने पर और आपके पार्षद समूह के तिरोहित हो जाने पर, अजामिल कुछ समय तक आपकी स्मृति का आचरण करता रहा। फिर आपके पार्षदों के द्वारा उसने आपके पद को प्राप्त कर लिया।
स्वकिङ्करावेदनशङ्कितो यम-
स्त्वदंघ्रिभक्तेषु न गम्यतामिति ।
स्वकीयभृत्यानशिशिक्षदुच्चकै:
स देव वातालयनाथ पाहि माम् ॥११॥
स्व-किङ्कर-आवेदन- अ्पने सेवकों के निवेदन करने पर
शङ्कित: यम:- अचम्भित यम ने
त्वत्-अंघ्रि-भक्तेषु आपके चरणो के भक्तों मे
न गम्यताम्-इति नहीं जाना चाहिये इस प्रकार
स्वकीय-भृत्यान्- अपने सेवकों को
अशिशिक्षत्-उच्चकै: आदेश दिया कडे हो कर
स देव वातालयनाथ वही हे देव! वातालयनाथ!
पाहि माम् रक्षा करें मेरी
यमराज के सेवकों द्वारा सम्पूर्ण वृतान्त निवेदित किए जाने पर, तब विस्मित यमराज ने अत्यन्त कडे हो कर आदेश दिया कि आपके चरणो में भक्ति करने वालों के समीप कदापि न जायें। वही हे देव! हे वातालयनाथ ! मेरी रक्षा करें।


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