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Saturday, September 17, 2016

Narayaneeyam - Dasakam 41 (Cremation of Putana)

Narayaneeyam - Dasakam 41 (Cremation of Putana) 

 https://youtu.be/UXlKW8hE3HI

 

http://youtu.be/IbQO6ahBuJY
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Dashaka 41
व्रजेश्वरै: शौरिवचो निशम्य समाव्रजन्नध्वनि भीतचेता: ।
निष्पिष्टनिश्शेषतरुं निरीक्ष्य कञ्चित्पदार्थं शरणं गतस्वाम् ॥१॥
व्रजेश्वर: the chieftain of Vraja (Nanda Gopa)
शौरि-वच: निशम्य the words of Vasudeva having heard
समाव्रजन्-अध्वनि returning on the way
भीत-चेता: in utter fear (seeing)
निष्पिष्ट-निश्शेष-तरुम् crushed all the trees
निरीक्ष्य किञ्चित्-पदार्थम् seeing (by) some undescribable object
शरणम् गत:-त्वाम् took refuge in Thee (prayed to Thee)
The chieftain of Vraja, Nanda Gopa, having heard the words of Vasudeva, was returning home in a hurry. On the way he saw an undescribable form falling down and crushing all the trees around. In utter fear he took refuge in Thee and prayed to Thee.
निशम्य गोपीवचनादुदन्तं सर्वेऽपि गोपा भयविस्मयान्धा: ।
त्वत्पातितं घोरपिशाचदेहं देहुर्विदूरेऽथ कुठारकृत्तम् ॥२॥
निशम्य गोपी-वचनात् hearing, by the words of the Gopikas
उदन्तम् the news (story of Pootanaa)
सर्वे-अपि गोपा: all the Gopas
भय-विस्मय-अन्धा: by fear and wonder dumbfounded
त्वत्-पातितम् felled by Thee
घोर-पिशाच-देहम् the terrible monster's (Pootanaa's) body
देहु:-विदूरे-अथ burnt far away, then,
कुठार-कृत्तम् (the body) by axes cut (into pieces)
The Gopas came to know of the whole incident of Pootanaa from the Gopikas and they were dumbfounded with fear and wonder. They then proceeded to cut the body of the terrible monster who was killed by Thee, into pieces with axes and burnt it at a distance.
त्वत्पीतपूतस्तनतच्छरीरात् समुच्चलन्नुच्चतरो हि धूम: ।
शङ्कामधादागरव: किमेष किं चान्दनो गौल्गुलवोऽथवेति ॥३॥
त्वत्-पीत-पूत-स्तन- by Thee sucked, the purified breasts, from (them)
तत्-शरीरात् समुच्चलन्- (from that body) rising up profusely
उच्चतर: हि धूम: high up indeed the smoke
शङ्काम्-अधात्- (made) doubt to arise
अगरव: किम्-एष (smell) of agaru is this,
किम् चान्दन: (or) is it sandalwood
गौल्गुलव:-अथवा- or from gulgulu (frankincense)
इति thus (the doubt)
The breasts of Pootanaa were made pure by Thy having sucked them. Therefore, when her body was burnt, huge volumes of smoke rose in the sky, so fragrant that it produced doubt in the minds of the people as to what it was - agaru, sandalwood, or gulgulu (frankincense) incense.
मदङ्गसङ्गस्य फलं न दूरे क्षणेन तावत् भवतामपि स्यात् ।
इत्युल्लपन् वल्लवतल्लजेभ्य: त्वं पूतनामातनुथा: सुगन्धिम् ॥४॥
मत्-अङ्ग-सङ्गस्य of my body's contact
फलं न दूरे the fruit is not far
क्षणेन तावत् in no time then
भवताम्-अपि स्यात् to you also will be (given)
इति-उल्लपन् thus saying (declaring)
वल्लव-तल्लजेभ्य: to the higher ones of the cow-herds
त्वम् Thou
पूतनाम्-अतनुथा: on Pootanaa conferred
सुगन्धिम् fragrance (punya) (blessings)
Thou declared to the higher ones of the cowherd clan that the fruits of the contact with Thy body were not far behind, and that they too would get them soon. The conferring of fragrance / blessings on Pootanaa was, as though, to prove that.
चित्रं पिशाच्या न हत: कुमार: चित्रं पुरैवाकथि शौरिणेदम् ।
इति प्रशंसन् किल गोपलोको भवन्मुखालोकरसे न्यमाङ्क्षीत् ॥५॥
चित्रं पिशाच्या what a wonder, by the demoness
न हत: कुमार: was not killed the boy
चित्रं पुरा-एव- what a wonder earlier itself
अकथि शौरिणा-इदम् it was said by Shauri (Vasudeva), this
इति प्रशंसन् thus praising
किल गोपलोक: the cowherd people
भवत्-मुख-आलोक-रसे in the joy of looking at Thy face
न्यमाङ्क्षीत् immersed
The cowherd people were wonder struck that the boy was not killed by the demoness. They also marvelled at the events foretold by Shauri Vasudeva. Realising this, they were fully immersed in the joy of looking at Thy face.
दिनेदिनेऽथ प्रतिवृद्धलक्ष्मीरक्षीणमाङ्गल् यशतो व्रजोऽयम् ।
भवन्निवासादयि वासुदेव प्रमोदसान्द्र: परितो विरेजे ॥६॥
दिने-दिने-अथ day by day then
प्रति-वृद्ध-लक्ष्मी:- increasing in prosperity
अक्षीण-माङ्गल्य-शत: (and) undiminished in neumerous auspiciousness
व्रज:-अयम् Gokul this
भवत्-निवासात्- by Thy living there
अयि वासुदेव O Vaasudeva!
प्रमोद-सान्द्र: full of happiness
परित: विरेजे every where shone
O Vaasudeva! Day by day this Gokul developed with prosperity and undiminished auspiciousness as a result of Thy living there. Happiness and undecaying virtue shone everywhere.
गृहेषु ते कोमलरूपहासमिथ:कथासङ्कुलिता: कमन्य: ।
वृत्तेषु कृत्येषु भवन्निरीक्षासमागता: प्रत्यहमत्यनन्दन् ॥७॥
गृहेषु in (their) house
ते कोमल-रूप-हास- Thy delicate form and smile
मिथ:-कथा-सङ्कुलिता: mutually narrated, gathering together
कमन्य: the beautiful (Gopikas)
वृत्तेषु कृत्येषु having completed their daily chores
भवत्-निरीक्षा-समागता: to watch Thee, assembled
प्रति-अहन्-अति-अनन्दन् every day, in great joy
In their houses the beautiful Gopikas kept talking to each other about Thy charming form and smile. Having completed their daily chores they assembled in great joy to watch Thee.
अहो कुमारो मयि दत्तदृष्टि: स्मितं कृतं मां प्रति वत्सकेन ।
एह्येहि मामित्युपसार्य पाणी त्वयीश किं किं न कृतं वधूभि: ॥८॥
अहो कुमार: O! the boy
मयि दत्त-दृष्टि: at me looked
स्मितं कृतं मां प्रति smile was made in my direction
वत्सकेन by the child
एहि-एहि माम्-इति come come to me, thus
उपसार्य पाणी streching out the hands
त्वयि-ईश towards Thee O Lord!
किं किं न कृतं वधूभि: what all was not done by the women
O the boy is looking at me,' 'his smile is directed towards me', 'come, come to me', thus remarking they streched out their hands to hold Thee. O Lord! What all was not done by the Gopikas endearingly.
भवद्वपु:स्पर्शनकौतुकेन करात्करं गोपवधूजनेन ।
नीतस्त्वमाताम्रसरोजमालाव्यालम् बिलोलम्बतुलामलासी: ॥९॥
भवत्-वपु:- Thy body
स्पर्शन-कौतुकेन in the eagerness to touch
करात्-करं from hand to hand
गोप-वधू-जनेन by the Gopika women
नीत:-त्वम्- were taken Thou
आताम्र-सरोज-माला- very red lotus garland
व्यालम्बि-लोलम्ब- (as though on it) moving about, a beetle
तुलाम्-अलासी: resemblance Thou took on
They passed Thee from hand to hand, each one of them eager to touch Thy body. As they did so, Thou looked like a honey beetle moving from one very red lotus to another strung together in a garland.
निपाययन्ती स्तनमङ्कगं त्वां विलोकयन्ती वदनं हसन्ती ।
दशां यशोदा कतमां न भेजे स तादृश: पाहि हरे गदान्माम् ॥१०॥
निपाययन्ती स्तनम्- feeding the breasts
अङ्कगं त्वाम् to who were in the lap, Thee
विलोकयन्ती वदनम् admiring the face
हसन्ती (and) smiling
दशां यशोदा कतमां states (of joy), Yashodaa, what all
न भेजे did not attain
स तादृश: पाहि That (Thee) who are such, save
हरे गदान्-माम् O Lord Hari! Me from dieases
O ! What states of joy did Yashodaa, Nanda's wife, not attain as she took Thee in her lap and suckled Thee, with her eyes fixed on Thy smiling face. O Lord Hari! Who are thus! May Thou save me from all ailments.



दशक ४१
व्रजेश्वर: शौरिवचो निशम्य समाव्रजन्नध्वनि भीतचेता: ।
निष्पिष्टनिश्शेषतरुं निरीक्ष्य कञ्चित्पदार्थं शरणं गतस्वाम् ॥१॥
व्रजेश्वर: व्रजके ईश्वर (नन्द) ने
शौरि-वच: निशम्य वसुदेव के वचन सुन कर
समाव्रजन्-अध्वनि लौटते हुए मार्ग में
भीत-चेता: भयभीत चित्त से
निष्पिष्ट-निश्शेष-तरुम् परिमर्दित समस्त वृक्षों को
निरीक्ष्य किञ्चित्-पदार्थम् देख कर किसी (अद्भुत) पदार्थ को
शरणम् गत:-त्वाम् शरण में गए आपकी
व्रजेश्वर नन्द वसुदेव के वचनो सुन कर लौट रहे थे। मार्ग में किसी अद्भुत वस्तु के द्वारा समस्त तरुओं को अभिमर्दित देख कर भयभीत चित्त से वे आपकी शरण में गए।
निशम्य गोपीवचनादुदन्तं सर्वेऽपि गोपा भयविस्मयान्धा: ।
त्वत्पातितं घोरपिशाचदेहं देहुर्विदूरेऽथ कुठारकृत्तम् ॥२॥
निशम्य गोपी-वचनात् सुन कर गोपिकाओं के वचनों से
उदन्तम् वार्ता को (पूतना की)
सर्वे-अपि गोपा: सभी गोप जन
भय-विस्मय-अन्धा: भय और आश्चर्य से स्तम्भित हुए
त्वत्-पातितम् आपके द्वारा गिराए गए
घोर-पिशाच-देहम् भयंकर दैत्य के शारीर को
देहु:-विदूरे-अथ जला दिया बहुत दूर पर तब
कुठार-कृत्तम् फरसे से (टुकडों में) काट कर
गोपिकाओं के द्वारा कही गई पूतना की वार्ता सुन कर सभी गोप जन भय और आश्चर्य से स्तम्भित हो गए। फिर आपके द्वारा धराशाई की गई भयंकर पिशाच देह को दूर ले गए और फरसे से टुकडों में काट कर उसे जला दिया।
त्वत्पीतपूतस्तनतच्छरीरात् समुच्चलन्नुच्चतरो हि धूम: ।
शङ्कामधादागरव: किमेष किं चान्दनो गौल्गुलवोऽथवेति ॥३॥
त्वत्-पीत-पूत-स्तन- आपके द्वारा पान किए जाने से पवित्र हुए स्तन वाले
तत्-शरीरात् समुच्चलन्- उस शरीर से उठते हुए
उच्चतर: हि धूम: ऊपर की ओर धूम्र
शङ्काम्-अधात्- (से) शङ्का जाग्रत हुई
अगरव: किम्-एष अगर है क्या यह
किम् चान्दन: क्या चन्दन है
गौल्गुलव:-अथवा- गुग्गुल अथवा है
इति इस प्रकार
आपके द्वारा स्तन पान के कारण पवित्र हुए को जलाने से उसमें से बहुत ऊंचा उठता हुआ धुआं निकला जो अत्यन्त सुगन्धित था। इससे लोगों को यह शङ्का हो रही थी कि यह अगरु का धुआं है या चन्दन का अथवा गुग्गुल का।
मदङ्गसङ्गस्य फलं न दूरे क्षणेन तावत् भवतामपि स्यात् ।
इत्युल्लपन् वल्लवतल्लजेभ्य: त्वं पूतनामातनुथा: सुगन्धिम् ॥४॥
मत्-अङ्ग-सङ्गस्य मेरे अङ्ग के सङ्ग का
फलं न दूरे फल नहीं है बहुत दूर
क्षणेन तावत् शीघ्र ही वह
भवताम्-अपि स्यात् आप लोगों को भी मिलेगा'
इति-उल्लपन् इस प्रकार कह कर
वल्लव-तल्लजेभ्य: गोप जनों वरिष्ठ को
त्वम् आप ने
पूतनाम्-अतनुथा: पूतना पर विस्तार किया
सुगन्धिम् सुगन्धि (कृपा) का
मेरे अङ्ग के संग का फल दूर भविष्य में नहीं है। वह शीघ्र ही आपको भी प्राप्त होगा।' आपने वरिष्ठ गोपों से ऐसा कहा मानो अपनी बात को सिद्ध करने के लिए ही आपने पूतना में सुगन्ध (कृपा) का विस्तार किया।
चित्रं पिशाच्या न हत: कुमार: चित्रं पुरैवाकथि शौरिणेदम् ।
इति प्रशंसन् किल गोपलोको भवन्मुखालोकरसे न्यमाङ्क्षीत् ॥५॥
चित्रं पिशाच्या आश्चर्य है पिशाचिनी ने
न हत: कुमार: नहीं हत्या की कुमार की
चित्रं पुरा-एव- आश्चर्य है कि पहले ही
अकथि शौरिणा-इदम् कहा था शौरी (वसुदेव) ने यह
इति प्रशंसन् इस प्रकार प्रशंसा करते हुए
किल गोपलोक: निस्सन्देह गोप जन
भवत्-मुख-आलोक-रसे आपके मुख को देखने के आनन्द रस में
न्यमाङ्क्षीत् निमग्न हो गए
आश्चर्य है कि पिशाचिनी ने कुमार की हत्या नहीं की। यह भी आश्चर्य है कि शौरी वसुदेव ने पहले ही यह बात बता दी थी।' इस प्रकार प्रशंसा करते हुए, गोपजन निस्सन्देह आपके मुख को देखने के आनन्द रस में निमग्न हो गए।
दिनेदिनेऽथ प्रतिवृद्धलक्ष्मीरक्षीणमाङ्गल्यशतो व्रजोऽयम् ।
भवन्निवासादयि वासुदेव प्रमोदसान्द्र: परितो विरेजे ॥६॥
दिने-दिने-अथ प्रतिदिन तब फिर
प्रति-वृद्ध-लक्ष्मी:- निरन्तर वर्धित होती हुई लक्ष्मी
अक्षीण-माङ्गल्य-शत: निर्विघ्न (सम्पादित) मङ्गल कार्य सैंकडों
व्रज:-अयम् व्रज यह
भवत्-निवासात्- आपके निवास से
अयि वासुदेव अयि वासुदेव!
प्रमोद-सान्द्र: आनन्द घनीभूत
परित: विरेजे से घिरा हुआ सुशोभित था
अयि वासुदेव! आपके निवास करने से व्रज में लक्ष्मी प्रतिदिन सम्वर्धित होती और सैंकडों माङ्गलिक कार्य निर्विघ्न सम्पादित होते। घनीभूत आनन्द के सब ओर प्रसारित होने से यह व्रज सुशोभित रहता।
गृहेषु ते कोमलरूपहासमिथ:कथासङ्कुलिता: कमन्य: ।
वृत्तेषु कृत्येषु भवन्निरीक्षासमागता: प्रत्यहमत्यनन्दन् ॥७॥
गृहेषु घरों में
ते कोमल-रूप-हास- आपके कोमल रूप और हास (की)
मिथ:-कथा-सङ्कुलिता: परस्पर चर्चा में संलग्न
कमन्य: कामिनियां
वृत्तेषु कृत्येषु शेष हो जाने पर कार्यों के
भवत्-निरीक्षा-समागता: आपको देखने के लिए संग आई हुई
प्रति-अहन्-अति-अनन्दन् प्रतिदिन अत्यन्त आनन्द पाती थीं
अपने घरों में आपके कोमल रूप और मधुर हास की चर्चा में गोपिकाएं परस्पर संलग्न रहतीं। अपने गृहकार्य समाप्त कर के वे सब आपको देखने के लिए प्रतिदिन एकत्रित होतीं और अत्यधिक आनन्द पातीं।
अहो कुमारो मयि दत्तदृष्टि: स्मितं कृतं मां प्रति वत्सकेन ।
एह्येहि मामित्युपसार्य पाणी त्वयीश किं किं न कृतं वधूभि: ॥८॥
अहो कुमार: अहो! कुमार ने
मयि दत्त-दृष्टि: मुझ पर डाली दृष्टि
स्मितं कृतं मां प्रति मन्द हास किया मेरी ओर
वत्सकेन बच्चे ने
एहि-एहि माम्-इति आओ आओ मेरे पास' इस प्रकार
उपसार्य पाणी बढा कर हाथ
त्वयि-ईश आपको हे ईश!
किं किं न कृतं वधूभि: क्या क्या नहीं किया वधुओं ने
अहो! कुमार ने मुझ पर दृष्टि डाली!, बालक ने मेरी ओर मन्द हास किया!, आओ आओ मेरे पास' इस प्रकार वधुओं ने हाथ बढा कर, हे ईश! आपका क्या क्या आदर नहीं किया।
भवद्वपु:स्पर्शनकौतुकेन करात्करं गोपवधूजनेन ।
नीतस्त्वमाताम्रसरोजमालाव्यालम्बिलोलम्बतुलामलासी: ॥९॥
भवत्-वपु:- आपका शरीर
स्पर्शन-कौतुकेन स्पर्श करने की उत्सुकता से
करात्-करं हाथ से हाथ में
गोप-वधू-जनेन गोप वधू जनों के द्वारा
नीत:-त्वम्- लिए गए आप
आताम्र-सरोज-माला- लाल कमलो की माला (पर)
व्यालम्बि-लोलम्ब- (मानो) मण्डराते हुए भंवरे
तुलाम्-अलासी: के समान दिखाई दिए
आपकी देह का स्पर्श पाने की उत्सुकता में गोपिकाएं आपको परस्पर एक के हाथ से दूसरी के हाथ में देती जाती। उस समय आप ऐसे दिखाई दे रहे थे मानो लाल कमल की माला पर भंवरा मण्डरा रहा हो।
निपाययन्ती स्तनमङ्कगं त्वां विलोकयन्ती वदनं हसन्ती ।
दशां यशोदा कतमां न भेजे स तादृश: पाहि हरे गदान्माम् ॥१०॥
निपाययन्ती स्तनम्- पान करवाते हुए स्तनों को
अङ्कगं त्वाम् गोद में स्थित आपको
विलोकयन्ती वदनम् निहारते हुए मुख को
हसन्ती हंस कर
दशां यशोदा कतमां दशा यशोदा के (आनन्द) की
न भेजे नही प्राप्त की
स तादृश: पाहि वही इस प्रकार के (आप) रक्षा करें
हरे गदान्-माम् हे हरे! रोगों से मेरी
हंसती हुई यशोदा, गोद में स्थित आपको स्तनपान कराते हुए, आपका मुख निहारते हुए, आनन्द की किन किन दशाओं को नहीं प्राप्त करती थी। इस प्रकार के वही हे हरे! आप रोगों से मेरी रक्षा करें।

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