Narayaneeyam - Dasakam 41 (Cremation of Putana)
https://youtu.be/UXlKW8hE3HI
http://youtu.be/IbQO6ahBuJY
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Dashaka 41
व्रजेश्वरै: शौरिवचो निशम्य समाव्रजन्नध्वनि भीतचेता: ।
निष्पिष्टनिश्शेषतरुं निरीक्ष्य कञ्चित्पदार्थं शरणं गतस्वाम् ॥१॥
निष्पिष्टनिश्शेषतरुं निरीक्ष्य कञ्चित्पदार्थं शरणं गतस्वाम् ॥१॥
व्रजेश्वर: | the chieftain of Vraja (Nanda Gopa) |
शौरि-वच: निशम्य | the words of Vasudeva having heard |
समाव्रजन्-अध्वनि | returning on the way |
भीत-चेता: | in utter fear (seeing) |
निष्पिष्ट-निश्शेष-तरुम् | crushed all the trees |
निरीक्ष्य किञ्चित्-पदार्थम् | seeing (by) some undescribable object |
शरणम् गत:-त्वाम् | took refuge in Thee (prayed to Thee) |
The chieftain of Vraja, Nanda Gopa, having heard the words of Vasudeva,
was returning home in a hurry. On the way he saw an undescribable form
falling down and crushing all the trees around. In utter fear he took
refuge in Thee and prayed to Thee.
निशम्य गोपीवचनादुदन्तं सर्वेऽपि गोपा भयविस्मयान्धा: ।
त्वत्पातितं घोरपिशाचदेहं देहुर्विदूरेऽथ कुठारकृत्तम् ॥२॥
त्वत्पातितं घोरपिशाचदेहं देहुर्विदूरेऽथ कुठारकृत्तम् ॥२॥
निशम्य गोपी-वचनात् | hearing, by the words of the Gopikas |
उदन्तम् | the news (story of Pootanaa) |
सर्वे-अपि गोपा: | all the Gopas |
भय-विस्मय-अन्धा: | by fear and wonder dumbfounded |
त्वत्-पातितम् | felled by Thee |
घोर-पिशाच-देहम् | the terrible monster's (Pootanaa's) body |
देहु:-विदूरे-अथ | burnt far away, then, |
कुठार-कृत्तम् | (the body) by axes cut (into pieces) |
The Gopas came to know of the whole incident of Pootanaa from the
Gopikas and they were dumbfounded with fear and wonder. They then
proceeded to cut the body of the terrible monster who was killed by
Thee, into pieces with axes and burnt it at a distance.
त्वत्पीतपूतस्तनतच्छरीरात् समुच्चलन्नुच्चतरो हि धूम: ।
शङ्कामधादागरव: किमेष किं चान्दनो गौल्गुलवोऽथवेति ॥३॥
शङ्कामधादागरव: किमेष किं चान्दनो गौल्गुलवोऽथवेति ॥३॥
त्वत्-पीत-पूत-स्तन- | by Thee sucked, the purified breasts, from (them) |
तत्-शरीरात् समुच्चलन्- | (from that body) rising up profusely |
उच्चतर: हि धूम: | high up indeed the smoke |
शङ्काम्-अधात्- | (made) doubt to arise |
अगरव: किम्-एष | (smell) of agaru is this, |
किम् चान्दन: | (or) is it sandalwood |
गौल्गुलव:-अथवा- | or from gulgulu (frankincense) |
इति | thus (the doubt) |
The breasts of Pootanaa were made pure by Thy having sucked them.
Therefore, when her body was burnt, huge volumes of smoke rose in the
sky, so fragrant that it produced doubt in the minds of the people as to
what it was - agaru, sandalwood, or gulgulu (frankincense) incense.
मदङ्गसङ्गस्य फलं न दूरे क्षणेन तावत् भवतामपि स्यात् ।
इत्युल्लपन् वल्लवतल्लजेभ्य: त्वं पूतनामातनुथा: सुगन्धिम् ॥४॥
इत्युल्लपन् वल्लवतल्लजेभ्य: त्वं पूतनामातनुथा: सुगन्धिम् ॥४॥
मत्-अङ्ग-सङ्गस्य | of my body's contact |
फलं न दूरे | the fruit is not far |
क्षणेन तावत् | in no time then |
भवताम्-अपि स्यात् | to you also will be (given) |
इति-उल्लपन् | thus saying (declaring) |
वल्लव-तल्लजेभ्य: | to the higher ones of the cow-herds |
त्वम् | Thou |
पूतनाम्-अतनुथा: | on Pootanaa conferred |
सुगन्धिम् | fragrance (punya) (blessings) |
Thou declared to the higher ones of the cowherd clan that the fruits of
the contact with Thy body were not far behind, and that they too would
get them soon. The conferring of fragrance / blessings on Pootanaa was,
as though, to prove that.
चित्रं पिशाच्या न हत: कुमार: चित्रं पुरैवाकथि शौरिणेदम् ।
इति प्रशंसन् किल गोपलोको भवन्मुखालोकरसे न्यमाङ्क्षीत् ॥५॥
इति प्रशंसन् किल गोपलोको भवन्मुखालोकरसे न्यमाङ्क्षीत् ॥५॥
चित्रं पिशाच्या | what a wonder, by the demoness |
न हत: कुमार: | was not killed the boy |
चित्रं पुरा-एव- | what a wonder earlier itself |
अकथि शौरिणा-इदम् | it was said by Shauri (Vasudeva), this |
इति प्रशंसन् | thus praising |
किल गोपलोक: | the cowherd people |
भवत्-मुख-आलोक-रसे | in the joy of looking at Thy face |
न्यमाङ्क्षीत् | immersed |
The cowherd people were wonder struck that the boy was not killed by the
demoness. They also marvelled at the events foretold by Shauri
Vasudeva. Realising this, they were fully immersed in the joy of looking
at Thy face.
दिनेदिनेऽथ प्रतिवृद्धलक्ष्मीरक्षीणमाङ्गल् यशतो व्रजोऽयम् ।
भवन्निवासादयि वासुदेव प्रमोदसान्द्र: परितो विरेजे ॥६॥
भवन्निवासादयि वासुदेव प्रमोदसान्द्र: परितो विरेजे ॥६॥
दिने-दिने-अथ | day by day then |
प्रति-वृद्ध-लक्ष्मी:- | increasing in prosperity |
अक्षीण-माङ्गल्य-शत: | (and) undiminished in neumerous auspiciousness |
व्रज:-अयम् | Gokul this |
भवत्-निवासात्- | by Thy living there |
अयि वासुदेव | O Vaasudeva! |
प्रमोद-सान्द्र: | full of happiness |
परित: विरेजे | every where shone |
O Vaasudeva! Day by day this Gokul developed with prosperity and
undiminished auspiciousness as a result of Thy living there. Happiness
and undecaying virtue shone everywhere.
गृहेषु ते कोमलरूपहासमिथ:कथासङ्कुलिता: कमन्य: ।
वृत्तेषु कृत्येषु भवन्निरीक्षासमागता: प्रत्यहमत्यनन्दन् ॥७॥
वृत्तेषु कृत्येषु भवन्निरीक्षासमागता: प्रत्यहमत्यनन्दन् ॥७॥
गृहेषु | in (their) house |
ते कोमल-रूप-हास- | Thy delicate form and smile |
मिथ:-कथा-सङ्कुलिता: | mutually narrated, gathering together |
कमन्य: | the beautiful (Gopikas) |
वृत्तेषु कृत्येषु | having completed their daily chores |
भवत्-निरीक्षा-समागता: | to watch Thee, assembled |
प्रति-अहन्-अति-अनन्दन् | every day, in great joy |
In their houses the beautiful Gopikas kept talking to each other about
Thy charming form and smile. Having completed their daily chores they
assembled in great joy to watch Thee.
अहो कुमारो मयि दत्तदृष्टि: स्मितं कृतं मां प्रति वत्सकेन ।
एह्येहि मामित्युपसार्य पाणी त्वयीश किं किं न कृतं वधूभि: ॥८॥
एह्येहि मामित्युपसार्य पाणी त्वयीश किं किं न कृतं वधूभि: ॥८॥
अहो कुमार: | O! the boy |
मयि दत्त-दृष्टि: | at me looked |
स्मितं कृतं मां प्रति | smile was made in my direction |
वत्सकेन | by the child |
एहि-एहि माम्-इति | come come to me, thus |
उपसार्य पाणी | streching out the hands |
त्वयि-ईश | towards Thee O Lord! |
किं किं न कृतं वधूभि: | what all was not done by the women |
O the boy is looking at me,' 'his smile is directed towards me', 'come,
come to me', thus remarking they streched out their hands to hold Thee. O
Lord! What all was not done by the Gopikas endearingly.
भवद्वपु:स्पर्शनकौतुकेन करात्करं गोपवधूजनेन ।
नीतस्त्वमाताम्रसरोजमालाव्यालम् बिलोलम्बतुलामलासी: ॥९॥
नीतस्त्वमाताम्रसरोजमालाव्यालम् बिलोलम्बतुलामलासी: ॥९॥
भवत्-वपु:- | Thy body |
स्पर्शन-कौतुकेन | in the eagerness to touch |
करात्-करं | from hand to hand |
गोप-वधू-जनेन | by the Gopika women |
नीत:-त्वम्- | were taken Thou |
आताम्र-सरोज-माला- | very red lotus garland |
व्यालम्बि-लोलम्ब- | (as though on it) moving about, a beetle |
तुलाम्-अलासी: | resemblance Thou took on |
They passed Thee from hand to hand, each one of them eager to touch Thy
body. As they did so, Thou looked like a honey beetle moving from one
very red lotus to another strung together in a garland.
निपाययन्ती स्तनमङ्कगं त्वां विलोकयन्ती वदनं हसन्ती ।
दशां यशोदा कतमां न भेजे स तादृश: पाहि हरे गदान्माम् ॥१०॥
दशां यशोदा कतमां न भेजे स तादृश: पाहि हरे गदान्माम् ॥१०॥
निपाययन्ती स्तनम्- | feeding the breasts |
अङ्कगं त्वाम् | to who were in the lap, Thee |
विलोकयन्ती वदनम् | admiring the face |
हसन्ती | (and) smiling |
दशां यशोदा कतमां | states (of joy), Yashodaa, what all |
न भेजे | did not attain |
स तादृश: पाहि | That (Thee) who are such, save |
हरे गदान्-माम् | O Lord Hari! Me from dieases |
O ! What states of joy did Yashodaa, Nanda's wife, not attain as she
took Thee in her lap and suckled Thee, with her eyes fixed on Thy
smiling face. O Lord Hari! Who are thus! May Thou save me from all
ailments.
दशक ४१
व्रजेश्वर: शौरिवचो निशम्य समाव्रजन्नध्वनि भीतचेता: ।
निष्पिष्टनिश्शेषतरुं निरीक्ष्य कञ्चित्पदार्थं शरणं गतस्वाम् ॥१॥
व्रजेश्वर नन्द वसुदेव के वचनो सुन कर लौट रहे थे। मार्ग में किसी अद्भुत
वस्तु के द्वारा समस्त तरुओं को अभिमर्दित देख कर भयभीत चित्त से वे आपकी
शरण में गए।
निशम्य गोपीवचनादुदन्तं सर्वेऽपि गोपा भयविस्मयान्धा: ।
त्वत्पातितं घोरपिशाचदेहं देहुर्विदूरेऽथ कुठारकृत्तम् ॥२॥
गोपिकाओं के द्वारा कही गई पूतना की वार्ता सुन कर सभी गोप जन भय और
आश्चर्य से स्तम्भित हो गए। फिर आपके द्वारा धराशाई की गई भयंकर पिशाच देह
को दूर ले गए और फरसे से टुकडों में काट कर उसे जला दिया।
त्वत्पीतपूतस्तनतच्छरीरात् समुच्चलन्नुच्चतरो हि धूम: ।
शङ्कामधादागरव: किमेष किं चान्दनो गौल्गुलवोऽथवेति ॥३॥
आपके द्वारा स्तन पान के कारण पवित्र हुए को जलाने से उसमें से बहुत ऊंचा
उठता हुआ धुआं निकला जो अत्यन्त सुगन्धित था। इससे लोगों को यह शङ्का हो
रही थी कि यह अगरु का धुआं है या चन्दन का अथवा गुग्गुल का।
मदङ्गसङ्गस्य फलं न दूरे क्षणेन तावत् भवतामपि स्यात् ।
इत्युल्लपन् वल्लवतल्लजेभ्य: त्वं पूतनामातनुथा: सुगन्धिम् ॥४॥
मेरे अङ्ग के संग का फल दूर भविष्य में नहीं है। वह शीघ्र ही आपको भी
प्राप्त होगा।' आपने वरिष्ठ गोपों से ऐसा कहा मानो अपनी बात को सिद्ध करने
के लिए ही आपने पूतना में सुगन्ध (कृपा) का विस्तार किया।
चित्रं पिशाच्या न हत: कुमार: चित्रं पुरैवाकथि शौरिणेदम् ।
इति प्रशंसन् किल गोपलोको भवन्मुखालोकरसे न्यमाङ्क्षीत् ॥५॥
आश्चर्य है कि पिशाचिनी ने कुमार की हत्या नहीं की। यह भी आश्चर्य है कि
शौरी वसुदेव ने पहले ही यह बात बता दी थी।' इस प्रकार प्रशंसा करते हुए,
गोपजन निस्सन्देह आपके मुख को देखने के आनन्द रस में निमग्न हो गए।
दिनेदिनेऽथ प्रतिवृद्धलक्ष्मीरक्षीणमाङ्गल्यशतो व्रजोऽयम् ।
भवन्निवासादयि वासुदेव प्रमोदसान्द्र: परितो विरेजे ॥६॥
अयि वासुदेव! आपके निवास करने से व्रज में लक्ष्मी प्रतिदिन सम्वर्धित
होती और सैंकडों माङ्गलिक कार्य निर्विघ्न सम्पादित होते। घनीभूत आनन्द के
सब ओर प्रसारित होने से यह व्रज सुशोभित रहता।
गृहेषु ते कोमलरूपहासमिथ:कथासङ्कुलिता: कमन्य: ।
वृत्तेषु कृत्येषु भवन्निरीक्षासमागता: प्रत्यहमत्यनन्दन् ॥७॥
अपने घरों में आपके कोमल रूप और मधुर हास की चर्चा में गोपिकाएं परस्पर
संलग्न रहतीं। अपने गृहकार्य समाप्त कर के वे सब आपको देखने के लिए
प्रतिदिन एकत्रित होतीं और अत्यधिक आनन्द पातीं।
अहो कुमारो मयि दत्तदृष्टि: स्मितं कृतं मां प्रति वत्सकेन ।
एह्येहि मामित्युपसार्य पाणी त्वयीश किं किं न कृतं वधूभि: ॥८॥
अहो! कुमार ने मुझ पर दृष्टि डाली!, बालक ने मेरी ओर मन्द हास किया!, आओ आओ
मेरे पास' इस प्रकार वधुओं ने हाथ बढा कर, हे ईश! आपका क्या क्या आदर नहीं
किया।
भवद्वपु:स्पर्शनकौतुकेन करात्करं गोपवधूजनेन ।
नीतस्त्वमाताम्रसरोजमालाव्यालम्बिलोलम्बतुलामलासी: ॥९॥
आपकी देह का स्पर्श पाने की उत्सुकता में गोपिकाएं आपको परस्पर एक के हाथ
से दूसरी के हाथ में देती जाती। उस समय आप ऐसे दिखाई दे रहे थे मानो लाल
कमल की माला पर भंवरा मण्डरा रहा हो।
निपाययन्ती स्तनमङ्कगं त्वां विलोकयन्ती वदनं हसन्ती ।
दशां यशोदा कतमां न भेजे स तादृश: पाहि हरे गदान्माम् ॥१०॥
हंसती हुई यशोदा, गोद में स्थित आपको स्तनपान कराते हुए, आपका मुख निहारते
हुए, आनन्द की किन किन दशाओं को नहीं प्राप्त करती थी। इस प्रकार के वही हे
हरे! आप रोगों से मेरी रक्षा करें।
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