Narayaneeyam - Dasakam 55 ( Krishnas dance on Kaliya)
https://youtu.be/L2_BpCqIgbQ
http://youtu.be/66a_mIhTxZ8
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Dashaka 55
अथ वारिणि घोरतरं फणिनं
प्रतिवारयितुं कृतधीर्भगवन् ।
द्रुतमारिथ तीरगनीपतरुं
विषमारुतशोषितपर्णचयम् ॥१॥
प्रतिवारयितुं कृतधीर्भगवन् ।
द्रुतमारिथ तीरगनीपतरुं
विषमारुतशोषितपर्णचयम् ॥१॥
अथ वारिणि | then in the water |
घोरतरं फणिनं | very fierce that serpent |
प्रतिवारयितुं | to drive away |
कृतधी: | having decided |
भगवन् | O Lord |
द्रुतम्-आरिथ | quickly (Thou) approached |
तीरग-नीप-तरुं | the bank situated Kadamba tree |
विष-मारुत-शोषित- | the poisoned breeze had dried up |
पर्ण-चयम् | the cluster of leaves |
O Lord! Thou then made up Thy mind to drive away the fierce serpent from
the waters. Thou quickly approached and got up on a Kadamba tree
standing on the bank of the river, with its leaves withered due to the
poisonous breeze.
अधिरुह्य पदाम्बुरुहेण च तं
नवपल्लवतुल्यमनोज्ञरुचा ।
ह्रदवारिणि दूरतरं न्यपत:
परिघूर्णितघोरतरङ्ग्गणे ॥२॥
नवपल्लवतुल्यमनोज्ञरुचा ।
ह्रदवारिणि दूरतरं न्यपत:
परिघूर्णितघोरतरङ्ग्गणे ॥२॥
अधिरुह्य | climbing with |
पद-अम्बु-रुहेण | feet tender lotus like |
च तं | and that (tree) |
नव-पल्लव-तुल्य- | like tender new leaves |
मनोज्ञ-रुचा | charming and splenderous |
ह्रद-वारिणि | into the deep water |
दूरतरं न्यपत: | far out (Thou) jumped |
परिघूर्णित- | with swirling |
घोर-तरङ्ग-गणे | fierce waves of water |
Thou climbed that tree with Thy lotus like splenderous charming feet
resembling tender leaves, and with a long leap jumped far out into the
deep waters with swirling fierce waves.
भुवनत्रयभारभृतो भवतो
गुरुभारविकम्पिविजृम्भिजला ।
परिमज्जयति स्म धनुश्शतकं
तटिनी झटिति स्फुटघोषवती ॥३॥
गुरुभारविकम्पिविजृम्भिजला ।
परिमज्जयति स्म धनुश्शतकं
तटिनी झटिति स्फुटघोषवती ॥३॥
भुवन-त्रय-भार-भृत: | of the three worlds the weight bearing |
भवत: गुरु-भार- | of Thee the immense weight (causing) |
विकम्पि-विजृम्भि-जला | swirling and swelling with its waters |
परिमज्जयति स्म | started to submerge |
धनु:-शतकं | the area of a hundred bows (in measurement) |
तटिनी झटिति | on the river bed, and suddenly |
स्फुट-घोषवती | (the river) made an intense roar |
When, Thou the bearer of the weight of the three worlds, jumped, Thy
immense weight caused the waters to swirl and swell. On the river bed an
area of a hundred bows (yards) submerged, as a sudden roar arose from
the river.
अथ दिक्षु विदिक्षु परिक्षुभित-
भ्रमितोदरवारिनिनादभरै: ।
उदकादुदगादुरगाधिपति-
स्त्वदुपान्तमशान्तरुषाऽन्धमना: ॥४॥
भ्रमितोदरवारिनिनादभरै: ।
उदकादुदगादुरगाधिपति-
स्त्वदुपान्तमशान्तरुषाऽन्धमना: ॥४॥
अथ दिक्षु विदिक्षु | then, in all the directions and the intermediary directions |
परिक्षुभित-भ्रमित- | turbulent swirling |
उदर-वारि-निनाद-भरै: | from the middle of the waters roaring aloud |
उदकात्-उदगात्- | from (that) water came out |
उरगाधिपति:- | the king of serpents |
त्वत्-उपान्तम्- | near Thee |
अशान्त-रुषा- | disturbed and angered |
अन्धमना: | and so blinded (with rage) |
The loud roar from the middle of the waters which extended to all the
directions and the intermediary directions, disturbed and angered the
serpent king Kaaliya. He came out of the water and rushed up to Thee in a
fit of blinded anger.
फणशृङ्गसहस्रविनिस्सृमर-
ज्वलदग्निकणोग्रविषाम्बुधरम् ।
पुरत: फणिनं समलोकयथा
बहुशृङ्गिणमञ्जनशैलमिव ॥५॥
ज्वलदग्निकणोग्रविषाम्बुधरम् ।
पुरत: फणिनं समलोकयथा
बहुशृङ्गिणमञ्जनशैलमिव ॥५॥
फण-शृङ्ग- | (with) hoods , peak (like) |
सहस्र-विनि:सृमर- | thousands of them emmitting |
ज्वलत्-अग्नि-कण- | burning like fire flakes |
उग्र-विष-अम्बुधरम् | fierce poison fluid bearing |
पुरत: फणिनं | in front the serpent |
समलोकयथा: | (Thou) saw |
बहु-शृङ्गि-गणम्- | many peaked |
अञ्जन-शैलम्-इव | black mountain, as if |
Thou saw the serpent in front with his thousands of peak like hoods
emmitting burning fire flakes and fierce poison fluid, looking like a
many peaked black mountain.
ज्वलदक्षि परिक्षरदुग्रविष-
श्वसनोष्मभर: स महाभुजग: ।
परिदश्य भवन्तमनन्तबलं
समवेष्टयदस्फुटचेष्टमहो ॥६॥
श्वसनोष्मभर: स महाभुजग: ।
परिदश्य भवन्तमनन्तबलं
समवेष्टयदस्फुटचेष्टमहो ॥६॥
ज्वलत्-अक्षि | with flaming eyes |
परिक्षरत्-उग्र-विष- | emmitting deadly poison |
श्वसन्-ऊष्मभर: | breathing out intense heat |
स महाभुजग: | that huge serpent |
परिदश्य | biting |
भवन्तम्-अनन्तबलं | Thee of limitless strength |
समवेष्टयत्- | coiled (around Thee) |
अस्फुट-चेष्टम्- | making invisible Thy movements |
अहो | Alas |
Alas! That huge serpent emmitting deadly poison and breathing out
intense heat, bit Thee of limitless strength, all over Thy body. Then
it coiled around Thee making Thy body and Thy movements invisible.
अविलोक्य भवन्तमथाकुलिते
तटगामिनि बालकधेनुगणे ।
व्रजगेहतलेऽप्यनिमित्तशतं
समुदीक्ष्य गता यमुनां पशुपा: ।।७॥
तटगामिनि बालकधेनुगणे ।
व्रजगेहतलेऽप्यनिमित्तशतं
समुदीक्ष्य गता यमुनां पशुपा: ।।७॥
अविलोक्य भवन्तम्- | not seeing Thee |
अथ-आकुलिते | then distressed |
तट-गामिनि | (who) to the bank (of river Yamunaa) had come |
बालक-धेनु-गणे | the children and the cows all |
व्रज-गेह-तले-अपि- | in Gokula houses also |
अनिमित्त-शतं | evil omens innumerable |
समुदीक्ष्य गता | seeing went |
यमुनां पशुपा: | towards Yamunaa the Gopas |
The Gopa boys and the cows were distressed when they did not see Thee,
and went to the bank of the river Yamunaa. In the houses in Gokula also
the Gopas saw hundreds of evil omens and they also rushed towards
Yamunaa.
अखिलेषु विभो भवदीय दशा-
मवलोक्य जिहासुषु जीवभरम् ।
फणिबन्धनमाशु विमुच्य जवा-
दुदगम्यत हासजुषा भवता ॥८॥
मवलोक्य जिहासुषु जीवभरम् ।
फणिबन्धनमाशु विमुच्य जवा-
दुदगम्यत हासजुषा भवता ॥८॥
अखिलेषु | (as) all of them |
विभो | O Lord |
भवदीय-दशाम् | Thy plight |
अवलोक्य | seeing |
जिहासुषु | ready to give up their |
जीवभरम् | lives |
फणि-बन्धनम्- | the coils of the snake |
आशु विमुच्य | quickly shedding |
जवात्-उदगम्यत | hastily emerged |
हासजुषा भवता | with a smile, Thou |
O Lord! All of them were overwhelmed with grief on seeing Thy plight and
were ready to give up their lives in order to save Thee. Just then,
Thou quickly shed the coils of the snake and hastily emerged with a
smile.
अधिरुह्य तत: फणिराजफणान्
ननृते भवता मृदुपादरुचा ।
कलशिञ्जितनूपुरमञ्जुमिल-
त्करकङ्कणसङ्कुलसङ्क्वणितम् ॥९॥
ननृते भवता मृदुपादरुचा ।
कलशिञ्जितनूपुरमञ्जुमिल-
त्करकङ्कणसङ्कुलसङ्क्वणितम् ॥९॥
अधिरुह्य तत: | climbing upon then |
फणि-राज-फणान् | the sepent king,s hoods |
ननृते भवता | dance was performed by Thee |
मृदु-पाद-रुचा | with delicate feet beautiful |
कलशिञ्जित-नूपुर- | the gentle sound of the anklets |
मञ्जु-मिलत्- | beautifully mingling with |
कर-कङ्कण-सङ्कुल- | the bangles on the wrists' |
सङ्क्वणितम् | tinklings |
Then Thou mounted on the hoods of the serpent king and danced with Thy
delicate beautiful feet. The gentle sound of the anklets mingled
beautifully and rhythmically with the tinklings of the bangles on Thy
wrists.
जहृषु: पशुपास्तुतुषुर्मुनयो
ववृषु: कुसुमानि सुरेन्द्रगणा: ।
त्वयि नृत्यति मारुतगेहपते
परिपाहि स मां त्वमदान्तगदात् ॥१०॥
ववृषु: कुसुमानि सुरेन्द्रगणा: ।
त्वयि नृत्यति मारुतगेहपते
परिपाहि स मां त्वमदान्तगदात् ॥१०॥
जहृषु: पशुपा:- | rejoiced the Gopas |
तुतुषु:-मुनय: | sang hymns the sages |
ववृषु: कुसुमानि | showered flowers |
सुरेन्द्र-गणा: | the gods' groups |
त्वयि नृत्यति | when Thou danced |
मारुतगेहपते | O Lord of Guruvaayur |
परिपाहि | save |
स | That (Thou) |
मां | me |
त्वम्- | Thou |
अदान्त-गदात् | (from) severe illness |
As Thou performed the dance, the Gopas rejoiced, the sages sang hymns,
and the gods showered flowers. O Lord of the Guruvaayur temple! Such
that Thou are, save me from the severe illness.
दशक ५५
अथ वारिणि घोरतरं फणिनं
प्रतिवारयितुं कृतधीर्भगवन् ।
द्रुतमारिथ तीरगनीपतरुं
विषमारुतशोषितपर्णचयम् ॥१॥
प्रतिवारयितुं कृतधीर्भगवन् ।
द्रुतमारिथ तीरगनीपतरुं
विषमारुतशोषितपर्णचयम् ॥१॥
अथ वारिणि | तब फिर जल में |
घोरतरं फणिनं | अत्यन्त घोर सर्प का |
प्रतिवारयितुं | निवारण करने के लिये |
कृतधी: | निश्चय कर के |
भगवन् | हे भगवन! |
द्रुतम्-आरिथ | शीघ्रता से आये पास |
तीरग-नीप-तरुं | किनारे पर लगे हुए कदम्ब वृक्ष के |
विष-मारुत-शोषित- | विषाक्त वायु से सूखे हुए |
पर्ण-चयम् | पत्तों के समूह वाले |
हे भगवन! फिर आपने जल में स्थित उस अत्यन्त घोर सर्प का निवारण करने का
निश्चय किया। आप शीघ्रतापूर्वक यमुना के किनारे लगे हुए उस कदम्ब वृक्ष के
पास आ कर उस पर चढ गये, जिसके पत्तों का समूह विषाक्त वायु से सूख गया था।
अधिरुह्य पदाम्बुरुहेण च तं
नवपल्लवतुल्यमनोज्ञरुचा ।
ह्रदवारिणि दूरतरं न्यपत:
परिघूर्णितघोरतरङ्ग्गणे ॥२॥
नवपल्लवतुल्यमनोज्ञरुचा ।
ह्रदवारिणि दूरतरं न्यपत:
परिघूर्णितघोरतरङ्ग्गणे ॥२॥
अधिरुह्य | चढ कर |
पद-अम्बु-रुहेण | चरणकमल कोमल |
च तं | और उस पर |
नव-पल्लव-तुल्य- | नये पत्तों के समान |
मनोज्ञ-रुचा | मनोहर और सुन्दर |
ह्रद-वारिणि | बीच में जल के |
दूरतरं न्यपत: | दूर तक छलाङ्ग लगाते हुए |
परिघूर्णित- | घूमती हुई |
घोर-तरङ्ग-गणे | बडी तरङ्गों के समूह वाले |
आप उस पेड पर अपने नये सुन्दर और कोमल पत्तो के समान चरण कमलों से चढ गये।
घूमती हुई बडी बडी तरङ्गोवाले उस जल के बीच आप ऊंची और लम्बी छलाङ्ग लगाते
हुए कूद पडे।
भुवनत्रयभारभृतो भवतो
गुरुभारविकम्पिविजृम्भिजला ।
परिमज्जयति स्म धनुश्शतकं
तटिनी झटिति स्फुटघोषवती ॥३॥
गुरुभारविकम्पिविजृम्भिजला ।
परिमज्जयति स्म धनुश्शतकं
तटिनी झटिति स्फुटघोषवती ॥३॥
भुवन-त्रय-भार-भृत: | त्रिभुवन के भार को वहन करने वाले |
भवत: गुरु-भार- | आपके दीर्घ भार से |
विकम्पि-विजृम्भि-जला | कम्पायमान हुई और विकसित जल वाली ने |
परिमज्जयति स्म | निमग्न कर दिया |
धनु:-शतकं | धनुष शतक तक के |
तटिनी झटिति | तट को, शीघ्र ही |
स्फुट-घोषवती | प्रस्फुटित हुआ घोर शब्द |
त्रिभुवन के भार को वहन करने वाले आपके दीर्घ भार से यमुना कम्पायमान हो
उठी। उसका जल प्लावित होने से धनुष तक का उसका तट जल निमग्न हो गया और
उसमें से घोर शब्द प्रस्फुटित हुआ।
अथ दिक्षु विदिक्षु परिक्षुभित-
भ्रमितोदरवारिनिनादभरै: ।
उदकादुदगादुरगाधिपति-
स्त्वदुपान्तमशान्तरुषाऽन्धमना: ॥४॥
भ्रमितोदरवारिनिनादभरै: ।
उदकादुदगादुरगाधिपति-
स्त्वदुपान्तमशान्तरुषाऽन्धमना: ॥४॥
अथ दिक्षु विदिक्षु | तब दिशाओं और विदिशाओं में |
परिक्षुभित-भ्रमित- | अत्यन्त क्षुभित और घूर्णित |
उदर-वारि-निनाद-भरै: | जल के अन्तर भाग से निकले घोर निनाद वाले |
उदकात्-उदगात्- | जल से ऊपर उठ आया |
उरगाधिपति:- | नागराज |
त्वत्-उपान्तम्- | आपके सामने |
अशान्त-रुषा- | विचलित और क्रोध से |
अन्धमना: | अन्ध मन वाला |
जल के अन्तर भाग से निकलता हुआ घोर निनाद सारी दिशाओं और विदिशाओं में
व्याप्त हो गया। अत्यन्त क्षुभित और घूर्णित जल से विचलित और क्रोध से
अभिभूत अन्धमना नागराज जल से बाहर निकल कर आपके सम्मुख आ गया।
फणशृङ्गसहस्रविनिस्सृमर-
ज्वलदग्निकणोग्रविषाम्बुधरम् ।
पुरत: फणिनं समलोकयथा
बहुशृङ्गिणमञ्जनशैलमिव ॥५॥
ज्वलदग्निकणोग्रविषाम्बुधरम् ।
पुरत: फणिनं समलोकयथा
बहुशृङ्गिणमञ्जनशैलमिव ॥५॥
फण-शृङ्ग- | फणों शिखरों (के समान) |
सहस्र-विनि:सृमर- | सहस्रों, उगलते हुए |
ज्वलत्-अग्नि-कण- | प्रज्वलित अग्नि कणों के समान |
उग्र-विष-अम्बुधरम् | कूट विष द्रव्य वाले |
पुरत: फणिनं | सामने सर्प को |
समलोकयथा: | देखा (आपने) |
बहु-शृङ्गिणम्- | अनेक शिखरों वाले |
अञ्जन-शैलम्-इव | कज्जल गिरि के समान |
सहस्रों शिखरों के समान फणों वाले, प्रस्फुटित अग्नि कणों के समान कूट विष
द्रव्य उगलते हुए, अनेक शिखरो वाले कज्जल गिरि के समान उस भयंकर सर्प को
आपने अपने समक्ष देखा जो अनेक शिखरों वाले कज्जल गिरि के समान दिखाई दे रहा
था।
ज्वलदक्षि परिक्षरदुग्रविष-
श्वसनोष्मभर: स महाभुजग: ।
परिदश्य भवन्तमनन्तबलं
समवेष्टयदस्फुटचेष्टमहो ॥६॥
श्वसनोष्मभर: स महाभुजग: ।
परिदश्य भवन्तमनन्तबलं
समवेष्टयदस्फुटचेष्टमहो ॥६॥
ज्वलत्-अक्षि | प्रज्वलित नेत्रों वाला |
परिक्षरत्-उग्र-विष- | उगलते हुए उग्र विष को |
श्वसन्-ऊष्मभर: | तप्त वायु का निश्वास छोडते हुए |
स महाभुजग: | वह महानाग |
परिदश्य | डसते हुए |
भवन्तम्-अनन्तबलं | आपको, (जो) अनन्त बलशाली हैं |
समवेष्टयत्- | लिपट गया (आपके चारों ओर) |
अस्फुट-चेष्टम्- | गुप्त चेष्टाओं वाले आप को |
अहो | अहो! |
अहो! उग्र विष को उगलते हुए, तप्त वायु का निश्वास छोडते हुए प्रज्वलित
नेत्रों वाले, उस महानाग ने अनन्त बलशाली और गुप्त चेष्टाओं वाले आपको डस
लिया और आपके चारों ओर लिपट गया।
अविलोक्य भवन्तमथाकुलिते
तटगामिनि बालकधेनुगणे ।
व्रजगेहतलेऽप्यनिमित्तशतं
समुदीक्ष्य गता यमुनां पशुपा: ।।७॥
तटगामिनि बालकधेनुगणे ।
व्रजगेहतलेऽप्यनिमित्तशतं
समुदीक्ष्य गता यमुनां पशुपा: ।।७॥
अविलोक्य भवन्तम्- | न देखते हुए आपको |
अथ-आकुलिते | तब फिर व्याकुल हुए |
तट-गामिनि | (यमुना) तट पर गये |
बालक-धेनु-गणे | बालक और गो गण |
व्रज-गेह-तले-अपि- | व्रज के घरों के भीतर भी |
अनिमित्त-शतं | अपशगुन सौओं को |
समुदीक्ष्य गता | देख कर गये |
यमुनां पशुपा: | यमुना को गोपगण |
बालकों और गौओं ने जब आपको नहीं देखा, तब अत्यधिक व्याकुल हो कर आपको खोजते
हुए यमुना के तट पर गये। व्रज के घरों में भी सौओं अपशगुनों को देख कर
उद्विग्न हुए गोप गण भी यमुना की ओर गये।
अखिलेषु विभो भवदीय दशा-
मवलोक्य जिहासुषु जीवभरम् ।
फणिबन्धनमाशु विमुच्य जवा-
दुदगम्यत हासजुषा भवता ॥८॥
मवलोक्य जिहासुषु जीवभरम् ।
फणिबन्धनमाशु विमुच्य जवा-
दुदगम्यत हासजुषा भवता ॥८॥
अखिलेषु | (वे) सभी |
विभो | हे विभो! |
भवदीय-दशाम् | (जब) आपकी दशा को |
अवलोक्य | देख कर |
जिहासुषु | त्याग देने के लिये उद्यत हो गये |
जीवभरम् | (अपने) जीवन को |
फणि-बन्धनम्- | फणों के बन्धन को |
आशु विमुच्य | शीघ्र खोल कर |
जवात्-उदगम्यत | झट से निकल आये |
हासजुषा भवता | मुस्कुराते हुए आप |
हे विभो! वे सभी आपकी दशा देख कर अपने प्राण त्याग देने को उद्यत हो गये।
उसी समय आप शीघ्रतापूर्वक फणों के उस बन्धन को खोल कर तुरन्त ही मुस्कुराते
हुए बाहर निकल आये।
अधिरुह्य तत: फणिराजफणान्
ननृते भवता मृदुपादरुचा ।
कलशिञ्जितनूपुरमञ्जुमिल-
त्करकङ्कणसङ्कुलसङ्क्वणितम् ॥९॥
ननृते भवता मृदुपादरुचा ।
कलशिञ्जितनूपुरमञ्जुमिल-
त्करकङ्कणसङ्कुलसङ्क्वणितम् ॥९॥
अधिरुह्य तत: | चढ कर तब |
फणि-राज-फणान् | महा भुजंग के फणों पर |
ननृते भवता | नाचे आप |
मृदु-पाद-रुचा | कोमल सुन्दर पैरों से |
कलशिञ्जित-नूपुर- | मधुर रव नूपुरों के |
मञ्जु-मिलत्- | मनोहर रूप से मिल (ताल दे) रहे थे |
कर-कङ्कण-सङ्कुल- | हाथों के कङ्गनों के टकराने की |
सङ्क्वणितम् | झंकार से |
तब महा भुजङ्ग के फणों पर चढ कर आपने कोमल सुन्दर पैरों से नृत्य किया।
पैरों के नूपुरों की मधुर झनक हाथ के कङ्गनो के टकराने से उठी झन्कार के
साथ मिल कर ,मनोहर ताल देती हुई, सुन्दर ध्वनि पैदा कर रही थी।
जहृषु: पशुपास्तुतुषुर्मुनयो
ववृषु: कुसुमानि सुरेन्द्रगणा: ।
त्वयि नृत्यति मारुतगेहपते
परिपाहि स मां त्वमदान्तगदात् ॥१०॥
ववृषु: कुसुमानि सुरेन्द्रगणा: ।
त्वयि नृत्यति मारुतगेहपते
परिपाहि स मां त्वमदान्तगदात् ॥१०॥
जहृषु: पशुपा:- | हर्षित हुए गोपगण |
तुतुषु:-मुनय: | तृप्त हुए मुनि जन |
ववृषु: कुसुमानि | वर्षा की कुसुमों की |
सुरेन्द्र-गणा: | देव मण्डल ने |
त्वयि नृत्यति | आपके नाचने पर |
मारुतगेहपते | हे मारुतगेहपते! |
परिपाहि | रक्षा करें |
स | वही (आप) |
मां | मेरी |
त्वम्- | आप |
अदान्त-गदात् | अदम्य रोगों से |
हे मरुतगेह्पते! आपके नृत्य करने पर गोपगण हर्षित हो उठे, मुनिजन तृप्त हो
गये और देवमण्डल ने कुसुमों की वर्षा की। वही आप, अदम्य रोगों से मेरी
रक्षा करें।
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