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Monday, September 19, 2016

Narayaneeyam - Dasakam 73 (Leaving for Matura)

Narayaneeyam - Dasakam 73 (Leaving for Matura) 

 https://youtu.be/NHFmCzzryIU

 

http://youtu.be/q2YVdghOPhM

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Dashaka 73
निशमय्य तवाथ यानवार्तां भृशमार्ता: पशुपालबालिकास्ता: ।
किमिदं किमिदं कथं न्वितीमा: समवेता: परिदेवितान्यकुर्वन् ॥१॥
निशमय्य hearing
तव-अथ (of) Thy, then
यान-वार्ताम् departure news
भृशम्-आर्ता: very much saddened
पशुपाल-बालिका:-ता: the cowherd girls, they
किम्-इदं किम्-इदं what is this, what is this
कथं नु-इति- how is this, thus
इमा: समवेता: these (girls) gathered
परिदेवितानि- lamentations
अकुर्वन् doing
Then hearing the news of Thy impending departure the cowherd girls were very much saddened. They gathered together and lamented saying -'What is this? How and why is this happening?'
करुणानिधिरेष नन्दसूनु: कथमस्मान् विसृजेदनन्यनाथा: ।
बत न: किमु दैवमेवमासीदिति तास्त्वद्गतमानसा विलेपु: ॥२॥
करुणा-निधि:- the compassion reposotory
एष नन्द-सूनु: this Nanda's son
कथम्-अस्मान्- how come us
विसृजेत्-अनन्यनाथा: foresake, who do not have any other support
बत न: किमु Alas our what
दैवम्-एवम्-आसीत्- fate of this kind was
इति ता:- thus they
त्वत्-गत-मानसा in Thee fixed hearted
विलेपु: bemoaned
The abode of compassion, Nanda's son, Krishna, how can he foresake us, who have no other support, except him. Alas what kind of fate do we have.' The girls with their hearts fixed on Thee bemoaned.
चरमप्रहरे प्रतिष्ठमान: सह पित्रा निजमित्रमण्डलैश्च ।
परितापभरं नितम्बिनीनां शमयिष्यन् व्यमुच: सखायमेकम् ॥३॥
चरम-प्रहरे in the last part (of night)
प्रतिष्ठमान: leaving
सह पित्रा with (Thy) father
निज-मित्र-मण्डलै:-च and with his friends' groups
परिताप-भरं of the sorrowful
नितम्बिनीनां beauties (Gopikas)
शमयिष्यन् to assuage
व्यमुच: sent
सखायम्-एकम् one friend
Thou were to leave with Thy father and a group of his friends in the last lap of the night. Thou sent one of Thy companions to the beautiful Gopikas who were very sorrowful, to assuage their grief.
अचिरादुपयामि सन्निधिं वो भविता साधु मयैव सङ्गमश्री: ।
अमृताम्बुनिधौ निमज्जयिष्ये द्रुतमित्याश्वसिता वधूरकार्षी: ॥४॥
अचिरात्-उपयामि very soon (I) will come back
सन्निधिं व: near you all
भविता साधु (and) will be good (many)
मया-एव with me only
सङ्गम-श्री: meetings happy
अमृत-अम्बुनिधौ in the nectar ocean
निमज्जयिष्ये I shall immerse you
द्रुतम्-इति-आश्वासिता: soon, thus consolations
वधू:-अकार्षी: to the girls did give
I shall come back near you very soon. You will have many good and happy meetings with me. I will soon immerse you in the nectar of bliss ocean.' Thus Thou gave consolations to the girls.
सविषादभरं सयाच्ञमुच्चै: अतिदूरं वनिताभिरीक्ष्यमाण: ।
मृदु तद्दिशि पातयन्नपाङ्गान् सबलोऽक्रूररथेन निर्गतोऽभू: ॥५॥
सविषादभरं with great sorrow
सयाच्ञम्- begging
उच्चै:-अतिदूरम् loudly till far
वनिताभि:- by the women's
ईक्ष्यमाण: following glances
मृदु तत्-दिशि gently in that direction
पातयन्- casting
अपाङ्गान् sidelong glances
सबल:- with Balaraama
अक्रूर-रथेन in Akrura's chariot
निर्गत:-अभू: departed
The women followed Thee till far loudly and petiously begging and gazing with entreating eyes. Thou cast soft sidelong glances in that direction and departed with Balaraama in Akrura's chariot.
अनसा बहुलेन वल्लवानां मनसा चानुगतोऽथ वल्लभानाम् ।
वनमार्तमृगं विषण्णवृक्षं समतीतो यमुनातटीमयासी: ॥६॥
अनसा बहुलेन by carts many
वल्लवानां मनसा (and) by the Gopikaa's minds
च-अनुगत:-अथ being followed then
वल्लभानाम् by the Gopas
वनम्-आर्तमृगम् the forests with the sorrowful animals
विषण्ण-वृक्षम् and the sad trees
समतीत: crossed
यमुना-तटीम्- and the banks of Yamunaa
अयासी: reached
Many carts with Gopas followed Thee as also the minds and thoughts of the Gopikas. Thou crossed the forest with sorrowful animals and sad trees and reached the banks of the Yamunaa river.
नियमाय निमज्य वारिणि त्वामभिवीक्ष्याथ रथेऽपि गान्दिनेय: ।
विवशोऽजनि किं न्विदं विभोस्ते ननु चित्रं त्ववलोकनं समन्तात् ॥७॥
नियमाय निमज्य for (the daily) duties bathing
वारिणि त्वाम् in the waters (of Jamunaa), Thee
अभिवीक्ष्य-अथ seeing then
रथे-अपि on the chariot also
गान्दिनेय: Gaandinee (Akrura)
विवश:-अजनि helpless became
किम् नु-इदम् what indeed is this
विभो:-ते O Lord Thy
ननु चित्रं तु- indeed wonder but
अवलोकनम् being seen
समन्तात् from everywhere
Akrura, the son of Gaandini was bathing in the waters of the river to perform his daily duties. He saw Thee in the water and also saw Thee on the chariot. He was overwhelmed with wonder and became helpless as to what it all was. But is there any wonder in Thy being seen from everywhere as Thou are omnipresent!
पुनरेष निमज्य पुण्यशाली पुरुषं त्वां परमं भुजङ्गभोगे ।
अरिकम्बुगदाम्बुजै: स्फुरन्तं सुरसिद्धौघपरीतमालुलोके ॥८॥
पुन:-एष again this (Akrura)
निमज्य dipping (in the waters)
पुण्यशाली (this) meritorious one,
पुरुषं त्वां परमं Being Thee Supreme,
भुजङ्ग-भोगे on the serpent's body
अरि-कम्बु-गदा-अम्बुजै: with the discus, conch, mace and lotus
स्फुरन्तं resplendent
सुर-सिद्ध-औघ-परीतं by gods and siddhaas' groups surrounded
आलुलोके (he) saw
Akrura again took a dip in the water. The meritorious and fortunate man that he was, he saw Thee The Supreme Being reclining on the Shesha serpent's body bed, resplendent and adorned with the discus, conch, mace and lotus. Thou were surrounded by groups of gods and various siddhaas.
स तदा परमात्मसौख्यसिन्धौ विनिमग्न: प्रणुवन् प्रकारभेदै: ।
अविलोक्य पुनश्च हर्षसिन्धोरनुवृत्त्या पुलकावृतो ययौ त्वाम् ॥९॥
स तदा he then
परमात्म-सौख्य-सिन्धौ in the supreme bliss ocean
विनिमग्न: प्रणुवन् immeresed (and) praising
प्रकार-भेदै: in different ways (of Saguna and Nirguna)
अविलोक्य not seeing Thee
पुन:-च and again
हर्ष-सिन्धो:- in the bliss ocean
अनुवृत्त्या continuing to be
पुलक-आवृत: with horripilation all over
ययौ त्वाम् went to Thee
He was then immeresed in the ocean of supreme bliss and sang the praises unto Thy Saguna and Nirguna forms. Even as Thy vision disappeared, he continued to experience the unlimited bliss and with horripilations all over his body, he went to Thee.
किमु शीतलिमा महान् जले यत् पुलकोऽसाविति चोदितेन तेन ।
अतिहर्षनिरुत्तरेण सार्धं रथवासी पवनेश पाहि मां त्वम् ॥१०॥
किमु शीतलिमा is it cool
महान् जले यत् very much in the water so that
पुलक:-असौ- horripillation this
इति चोदितेन thus asked
तेन अति-हर्ष- (with) him (because of) extreme bliss
निरुत्तरेण speechless
सार्धम् रथवासी with (him, Akrura) seated on the chariot
पवनेश O Lord of Guruvaayur
पाहि मां त्वम् save me Thou
Thou asked him if the water was so cold that he had horripillation on his body, as if not knowing the cause. Akrura was speechless because he was immeresed in extreme bliss. Thou sitting with him on the chariot, O Lord of Guruvaayur! Do save me.


दशक ७३
निशमय्य तवाथ यानवार्तां भृशमार्ता: पशुपालबालिकास्ता: ।
किमिदं किमिदं कथं न्वितीमा: समवेता: परिदेवितान्यकुर्वन् ॥१॥
निशमय्य सुन कर
तव-अथ आपके तब
यान-वार्ताम् जाने की बात को
भृशम्-आर्ता: अत्यन्त दुखी हो गईं
पशुपाल-बालिका:-ता: गोपिकाएं वे
किम्-इदं किम्-इदं यह क्या है, यह क्या है
कथं नु-इति- यह कैसे है, इस प्रकार
इमा: समवेता: ये (युवतियां) एकत्रित हो कर
परिदेवितानि- विलाप
अकुर्वन् करने लगीं
आपके जाने की बात सुन कर गोपिकाएं अत्यन्त दु:खी हो गईं। 'यह क्या. यह क्या, यह कैसे हुआ?' इस प्रकार वे सभी एकत्रित हो कर विलाप करने लगीं।
करुणानिधिरेष नन्दसूनु: कथमस्मान् विसृजेदनन्यनाथा: ।
बत न: किमु दैवमेवमासीदिति तास्त्वद्गतमानसा विलेपु: ॥२॥
करुणा-निधि:- करुणा के सागर
एष नन्द-सूनु: यह नन्द कुमार
कथम्-अस्मान्- कैसे हमको
विसृजेत्-अनन्यनाथा: छोड कर, जिनके अन्य कोई सहारा नहीं है
बत न: किमु हाय! हमारा क्या
दैवम्-एवम्-आसीत्- भाग्य ऐसा ही है
इति ता:- इस प्रकार वे
त्वत्-गत-मानसा आपमें ही चित्त को स्थित करके
विलेपु: विलाप करने लगीं
करुणा के सागर नन्द कुमार, हमको, जिनके अन्य कोई अवलम्ब नहीं है, छोड कर कैसे जा सकते हैं। हाय! क्या हमारा भाग्य ऐसा ही है?' इस प्रकार आपही में स्थित चित्त वे विलाप करने लगीं।
चरमप्रहरे प्रतिष्ठमान: सह पित्रा निजमित्रमण्डलैश्च ।
परितापभरं नितम्बिनीनां शमयिष्यन् व्यमुच: सखायमेकम् ॥३॥
चरम-प्रहरे अन्त के प्रहर में (रात्रि के)
प्रतिष्ठमान: प्रस्थान करते हुए
सह पित्रा अपने पिता के साथ
निज-मित्र-मण्डलै:-च और अपने मित्रों की मण्डली के साथ
परिताप-भरं उन दु:खी
नितम्बिनीनां गोपिकाओं
शमयिष्यन् को शान्त करने के लिए
व्यमुच: छोड दिया
सखायम्-एकम् एक सखा को
रात्रि के अन्तिम प्रहर में आपने अपने पिता और मित्र मण्डली के साथ जाने के लिए प्रस्थान किया। उन दु:खी गोपिकाओं को सान्त्वना देने के लिए अपने एक सखा को वहीं छोड दिया।
अचिरादुपयामि सन्निधिं वो भविता साधु मयैव सङ्गमश्री: ।
अमृताम्बुनिधौ निमज्जयिष्ये द्रुतमित्याश्वसिता वधूरकार्षी: ॥४॥
अचिरात्-उपयामि शीघ्र ही वापस आऊंगा
सन्निधिं व: पास में आपके
भविता साधु (और) होगा सुन्दर
मया-एव मेरे साथ ही
सङ्गम-श्री: मिलन मङ्गल
अमृत-अम्बुनिधौ अमृत के सागर में
निमज्जयिष्ये मैं निमग्न कर दूंगा आपको
द्रुतम्-इति-आश्वासिता: शीघ्र इस प्रकार सान्त्वना
वधू:-अकार्षी: कुमारियों को दी
मैं आप सभी के पास शीघ्र ही लौट आऊंगा, और फिर मेरे साथ आप सब का सुन्दर मङ्गल मिलन होगा।आपको मैं अमृत के सागर में निमग्न कर दूंगा।' आपने उन गोपकुमारियों को तुरन्त ही ऐसा कह कर सन्त्वना दी।
सविषादभरं सयाच्ञमुच्चै: अतिदूरं वनिताभिरीक्ष्यमाण: ।
मृदु तद्दिशि पातयन्नपाङ्गान् सबलोऽक्रूररथेन निर्गतोऽभू: ॥५॥
सविषादभरं विषाद से परिपूर्ण
सयाच्ञम्- विनती करती हुई
उच्चै:-अतिदूरम् मुखरित हुई सी
वनिताभि:- उन वनिताओं की
ईक्ष्यमाण: पीछा करती हुई दृष्टि
मृदु तत्-दिशि मधुर उसी दिशा में
पातयन्- डालते हुए
अपाङ्गान् कटाक्ष दृष्टि
सबल:- साथ में बलराम के
अक्रूर-रथेन अक्रूर के रथ में
निर्गत:-अभू: चले गए
उन वनिताओं की विषाद पूर्ण विनती मुखरित करती हुई सी दृष्टि दूर तक आपका पीछा करती रही। आप भी उसी दिशा में मधुर कटाक्ष पात करते हुए बलराम के साथ अक्रूर के रथ में चले गए।
अनसा बहुलेन वल्लवानां मनसा चानुगतोऽथ वल्लभानाम् ।
वनमार्तमृगं विषण्णवृक्षं समतीतो यमुनातटीमयासी: ॥६॥
अनसा बहुलेन गाडियों से अनेक
वल्लवानां मनसा (और) गोपिकाओं के मनों से
च-अनुगत:-अथ अनुसरण किए जाते हुए
वल्लभानाम् गोपों से
वनम्-आर्तमृगम् वनो को दु:खित पशुओं वाले
विषण्ण-वृक्षम् और विषादग्रस्त पेडों वाले
समतीत: पार करके
यमुना-तटीम्- और यमुना के किनारे
अयासी: पहुंच गए
गोपों की अनेक गाडियां और गोपिकाओं के मन आपका पीछा करते रहे। दु:खित पशुओं वाले और विषाद ग्रस्त पेडों वाले वनों को पार करके आप यमुना के तट पर पहुंचे।
नियमाय निमज्य वारिणि त्वामभिवीक्ष्याथ रथेऽपि गान्दिनेय: ।
विवशोऽजनि किं न्विदं विभोस्ते ननु चित्रं त्ववलोकनं समन्तात् ॥७॥
नियमाय निमज्य नियमों की पूर्ति के लिए स्नान करके
वारिणि त्वाम् जल में (यमुना के) आपको
अभिवीक्ष्य-अथ देख कर तब
रथे-अपि रथ के ऊपर भी
गान्दिनेय: गान्दीनी (अक्रूर)
विवश:-अजनि विवश हो गए
किम् नु-इदम् यह अन्तत: क्या है?'
विभो:-ते हे विभो! आपका
ननु चित्रं तु- आश्चर्य है किन्तु
अवलोकनम् दर्शन होने लगा
समन्तात् सब ओर ही
गान्दिनि पुत्र अक्रूर नित्य नियमों का पालन करने के लिए स्नान करने गए। यमुना के जल में भी और रथ के ऊपर भी आप ही को देख कर अक्रूर विवश हो गए कि'यह अन्तत: क्या है? हे विभो! यह कैसा महान विस्मय है कि सब ओर से आपके ही दर्शन हो रहे हैं। आप तो सर्वव्यापी हैं।
पुनरेष निमज्य पुण्यशाली पुरुषं त्वां परमं भुजङ्गभोगे ।
अरिकम्बुगदाम्बुजै: स्फुरन्तं सुरसिद्धौघपरीतमालुलोके ॥८॥
पुन:-एष फिर इस ने
निमज्य डुबकी लगाई
पुण्यशाली इस पुण्यशाली ने
पुरुषं त्वां परमं आप परम पुरुष को
भुजङ्ग-भोगे भुजङ्ग शैया पर
अरि-कम्बु-गदा-अम्बुजै: चक्र शङ्ख गदा और पद्म सहित
स्फुरन्तं सुशोभित
सुर-सिद्ध-औघ-परीतं देवों और सिद्धों की मन्डली से घिरा हुआ
आलुलोके देखा
पुण्यवान अक्रूर ने फिर से यमुना के जल में डुबकी लगाई। इस बार उन्होंने भुजङ्ग शैया पर लेटे हुए आप को, यानी, परम पुरुष को देखा। आप अपने आयुधों, शङ्ख चक्र गदा और पद्म को धारण किये हुए शोभायमान थे। देवों और सिद्धों की मण्डली आपको घेरे हुए थी।
स तदा परमात्मसौख्यसिन्धौ विनिमग्न: प्रणुवन् प्रकारभेदै: ।
अविलोक्य पुनश्च हर्षसिन्धोरनुवृत्त्या पुलकावृतो ययौ त्वाम् ॥९॥
स तदा अक्रूर ने तब
परमात्म-सौख्य-सिन्धौ ब्रह्मानन्द सिन्धु में
विनिमग्न: प्रणुवन् निमग्न स्तुति करते हुए
प्रकार-भेदै: विभिन्न प्रकार से (सगुण निर्गुण रूप में)
अविलोक्य नहीं देखते हुए (आपको)
पुन:-च और फिर
हर्ष-सिन्धो:- आनन्द सागर में
अनुवृत्त्या फिर डूबते हुए
पुलक-आवृत: रोमाञ्चित हो कर
ययौ त्वाम् गए आपके पास
ब्रह्मानन्द सिन्धु में निमग्न अक्रूर ने विभिन्न प्रकार से (सगुण और निर्गुण रूप में) आपकी स्तुति की। फिर एक बार आपको न देख पाने पर भी, आनन्द सागर में डूबे हुए रोमाञ्चित से वे आपके पास (रथ के निकट) चले गए।
किमु शीतलिमा महान् जले यत् पुलकोऽसाविति चोदितेन तेन ।
अतिहर्षनिरुत्तरेण सार्धं रथवासी पवनेश पाहि मां त्वम् ॥१०॥
किमु शीतलिमा क्या शीतल है
महान् जले यत् अधिक जल में जो कि
पुलक:-असौ- रोमाञ्च यह है
इति चोदितेन इस प्रकार पूछे जाने पर
तेन अति-हर्ष- अत्यन्त आनन्द से उसके (साथ)
निरुत्तरेण निरुत्तर (अक्रूर के)
सार्धम् रथवासी साथ रथ पर बैठे हुए
पवनेश हे पवनपुरेश!
पाहि मां त्वम् आप मेरी रक्षा करें
क्या जल में अधिक शीतलता है, जिसके कारण यह रोंमाञ्च हो रहा है?' इस प्रकार पूछे जाने पर अत्यधिक आनन्द से अभिभूत अक्रूर निरुत्तर हो गए। उनके साथ रथ पर बैठे हुए हे पवनपुरेश! आप मेरी रक्षा करें।

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