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Saturday, September 17, 2016

Narayaneeyam - Dasakam 42 (Slaying of Satakasura)

Narayaneeyam - Dasakam 42 (Slaying of Satakasura) 

 https://youtu.be/aA2ikSx4tEA

 

http://youtu.be/4hhM2z7W5yc
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Dashaka 42
कदापि जन्मर्क्षदिने तव प्रभो निमन्त्रितज्ञातिवधूमहीसुरा ।
महानसस्त्वां सविधे निधाय सा महानसादौ ववृते व्रजेश्वरी ॥१॥
कदापि जन्म-ऋक्ष-दिने once, on the birth star day
तव प्रभो of Thee, O Lord!
निमन्त्रित- having invited
ज्ञाति-वधू-महीसुरा: relatives, their wives and Braahmins
महा-अनस:-त्वां सविधे a big cart, Thee near it
निधाय सा placing, she (Yashodaa)
महान-सादौ in the kitchen
ववृते व्रजेश्वरी got busy Yashoda
O Lord! Once on Thy birth star day, Yashoda, the queen of Vraja, who had invited the relatives and their wives and the Braahmins, for the occasion, placed Thee near a big cart and got busy in the kitchen organising the feast.
ततो भवत्त्राणनियुक्तबालकप्रभीतिसङ् क्रन्दनसङ्कुलारवै: ।
विमिश्रमश्रावि भवत्समीपत: परिस्फुटद्दारुचटच्चटारव: ॥२॥
तत: भवत्- then, for Thy
त्राण-नियुक्त- to protect appointed
बालक-प्रभीति- the boys
सङ्क्रन्दन- fearfully crying
सङ्कुला-रवै: the confused voices
विमिश्रम्-अश्रावि which were mingled (with) , were heard
भवत्-समीपत: from near Thee
परिस्फुटत्-दारु- cracking and breaking of wood
चटत्-चटा-रव: with the crackling sound
Then from near Thee, was heard the fearful cries and confused voices of various boys who were appointed to protect Thee, which was mingled with the sound of the crackling and breaking sound of wood.
ततस्तदाकर्णनसम्भ्रमश्रमप्रकम् पिवक्षोजभरा व्रजाङ्गना: ।
भवन्तमन्तर्ददृशुस्समन्ततो विनिष्पतद्दारुणदारुमध्यगम् ॥३॥
तत:-तत्-आकर्णन- then that hearing
सम्भ्रम-श्रम- (with) the fear and the effort
प्रकम्पि-वक्षोज-भरा: heaving with the heavy breasts
व्रजाङ्गना: the Gopikas
भवन्तम्-अन्त:-ददृशु:- Thee saw amongst
सम्न्तत: विनिष्पतत्- all around strewn
दारुण-दारु-मध्यगम् big pieces of wood, in the midst lying
Then hearing the terrific sound, frightened, the Gopikas came running with their heavy breasts heaving because of the effort and anxiety. They saw Thee lying amongst the frightful big pieces of broken wood strewn all around.
शिशोरहो किं किमभूदिति द्रुतं प्रधाव्य नन्द: पशुपाश्च भूसुरा: ।
भवन्तमालोक्य यशोदया धृतं समाश्वसन्नश्रुजलार्द्रलोचना: ॥४॥
शिशो:-अहो to the child, Alas!
किं किम्-अभूत्- what! What has happened
इति द्रुतं प्रधाव्य thus (saying),swiftly running
नन्द: पशुपा:-च Nanda Gopa, the cowherds
भूसुरा: भवन्तम्-आलोक्य and the Braahmins, Thee seeing
यशोदया धृतं (who was) by Yashoda held
समाश्वसन्- felt relieved
अश्रु-जल-आर्द्र-लोचना: (with) eyes wet with tears (of joy)
Alas! What! What has happened to the child!' thus crying, Nanda, the Gopas and the essembled Braahmins rushed to the spot. Finding Thee in Yashoda's arms, they felt relieved and shed tears of joy seeing that the child was safe.
कस्को नु कौतस्कुत एष विस्मयो विशङ्कटं यच्छकटं विपाटितम् ।
न कारणं किञ्चिदिहेति ते स्थिता: स्वनासिकादत्तकरास्त्वदीक्षका: ॥५॥
क:-क: नु कौत:-कुत: what! What, indeed how? Where? (did it happen)
एष विस्मय: विशङ्कटम् this is a wonder, this huge
यत्-शकटम् विपाटितम् that (this) cart is shattered to pieces
न कारणम् no reason
किञ्चित्-इह-इति at all is here, thus
ते स्थिता: they stood
स्व-नासिका-दत्त-करा:- on their noses placing their hands
त्वत्-ईक्षका: at Thee looking
What ! What happened and how! This is a wonder! This huge cart is shattered! There seems to be no explanation for this', thus exclaiming, they looked at Thee, awstricken, with their fingers placed on their noses.
कुमारकस्यास्य पयोधरार्थिन: प्ररोदने लोलपदाम्बुजाहतम् ।
मया मया दृष्टमनो विपर्यगादितीश ते पालकबालका जगु: ॥६॥
कुमारकस्य-अस्य of this child
पयोधर-अर्थिन: of being breast fed desirous
प्ररोदने while crying
लोल-पद-अम्बुज- by the movement of the lotus like legs
आहतम् was hit (the cart)
मया मया दृष्टम्- I saw, I saw
अन: विपर्यगात्- the cart overturned
इति-ईश thus O Lord
ते पालक-बालका: the children who were gaurding Thee
जगु: said
O Lord! The children who were gaurding Thee, declared 'This child who was desirous of being breast fed, moved his lotus like legs, and hit the cart which overturned. I saw, even I saw.'
भिया तदा किञ्चिदजानतामिदं कुमारकाणामतिदुर्घटं वच: ।
भवत्प्रभावाविदुरैरितीरितं मनागिवाशङ्क्यत दृष्टपूतनै: ॥७॥
भिया तदा out of fright , then
किञ्चित्-अजानताम्- anythingthose who did not know (to them)
इदम् कुमारकाणाम्- the children's
अति-दुर्घटम् वच: (this was) a very improbable statement
भवत्-प्रभाव-अविदुरै:- Thy prowess' those not knowing
इति-ईरितं मनाक्-इव- this statement, a little bit
अशङ्क्यत दृष्ट-पूतनै: was feared (to be true), who had witnessed (the incident of) Pootanaa
Then to the people who knew nothing of Thy prowess, the words of the frightened children were entirely baseless. But to those who knew of even a bit of Thy prowess and had witnessed the incident of Pootanaa, could not reject their statement altogether.
प्रवालताम्रं किमिदं पदं क्षतं सरोजरम्यौ नु करौ विरोजितौ।
इति प्रसर्पत्करुणातरङ्गितास्त्वदङ् गमापस्पृशुरङ्गनाजना: ॥८॥
प्रवाल-ताम्रं tender leaves like pink
किम्-इदं पदं क्षतं is this (little) foot hurt
सरोज-रम्यौ नु lotuses like charming indeed
करौ विरोजितौ (these) hands, have (they) been hurt
इति प्रसर्पत्-करुणा- thus with overflowing sympathy
तरङ्गिता:-त्वत्-अङ्गम्- moved by (such concern), Thy body
आपस्पृशु:-अङ्गनाजना: stroked gently, the women folk
Pink like tender leaves, these legs, have they been hurt? These hands, charming like the lotuses, have they been injured?' Thus with overflowing sympathy and moved with such concern, the women folk stroked Thy body gently.
अये सुतं देहि जगत्पते: कृपातरङ्गपातात्परिपातमद्य मे ।
इति स्म सङ्गृह्य पिता त्वदङ्गकं मुहुर्मुहु: श्लिष्यति जातकण्टक: ॥९॥
अये सुतं देहि O (Yashoda) give (me) my son
जगत्पते: कृपातरङ्ग-पातात्- by the Lord's showers of mercy
परिपातम्-अद्य मे (was) saved , today, my son
इति स्म सङ्गृह्य thus collecting
पिता त्वत्-अङ्गकम् (Thy) father , Thy body
मुहु:-मुहु: श्लिष्यति again and again embraces
जात-कण्टक: with his body full of horripillations
O Yashoda! Give me my son. By the Lord's showers of mercy today my son was saved!' Thus saying and collecting Thee in his arms, Thy father embraced Thee again and again, whose body was full of horripillations.
अनोनिलीन: किल हन्तुमागत: सुरारिरेवं भवता विहिंसित: ।
रजोऽपि नो दृष्टममुष्य तत्कथं स शुद्धसत्त्वे त्वयि लीनवान् ध्रुवम् ॥१०॥
अन:-निलीन: as a cart, disguised
किल हन्तुम्-आगत: indeed, to kill, had come
सुरारि:-एवं the Asura, was thus
भवता विहिंसित: by Thee was killed
रज:-अपि न: दृष्टम्-अमुष्य even a speck of him (of Rajo Guna) was not seen
तत्-कथं स how can it be that he
शुद्ध-सत्वे त्वयि who are pure Sattva, in Thee
लीनवान् ध्रुवम् merged certainly
The Asura who had come to kill Thee, disguised as a cart, was destroyed by Thee. But even a trace of his body or evil nature (Rajas) was not seen. How can that be? Certainly, he became pure (by coming in contact with Thee) and merged in Thy pure Sattvic Self.
प्रपूजितैस्तत्र ततो द्विजातिभिर्विशेषतो लम्भितमङ्गलाशिष: ।
व्रजं निजैर्बाल्यरसैर्विमोहयन् मरुत्पुराधीश रुजां जहीहि मे ॥११॥
प्रपूजितै:-तत्र well honoured there
तत: द्विजातिभि:- then by the Braahamins
विशेषत: specially
लम्भित-मङ्गल-आशिष: conferred with auspicious blessings
व्रजं Gokul
निजै:-बाल्य-रसै:- with Thy childish sweet ways
विमोहयन् captivating (delighting)
मरुत्पुराधीश O Lord of Guruvaayur!
रुजां जहीहि मे suffering, sheer away, mine
The Braahmins who were invited and were well honoured specially conferred their auspicious blessings on Thee. With Thy captivating childish sweet ways, Thou delighted the whole of Vraja. O Lord of Guruvaayur! May Thou sheer away my sufferings.


दशक ४२
कदापि जन्मर्क्षदिने तव प्रभो निमन्त्रितज्ञातिवधूमहीसुरा ।
महानसस्त्वां सविधे निधाय सा महानसादौ ववृते व्रजेश्वरी ॥१॥
कदापि जन्म-ऋक्ष-दिने एक बार जन्म नक्षत्र के दिन
तव प्रभो आपके हे प्रभो!
निमन्त्रित- निमन्त्रित
ज्ञाति-वधू-महीसुरा: परिवार जन, गोपिकाएं और ब्राह्मण
महा-अनस:-त्वां सविधे (एक) बडे छकडे के आपको पास में
निधाय सा रख कर वह (यशोदा)
महान-सादौ महा भोज की (तैयारी में)
ववृते व्रजेश्वरी व्यस्त हो गई व्रजेश्वरी
हे प्रभो! एक बार आपके जन्म नक्षत्र के दिन परिवार जन, गोपिकाएं और ब्राह्मण आमन्त्रित थे। उस समय आपको एक बडे छकडे के पास रख कर व्रजेश्वरी यशोदा महा भोज की तैयारी में व्यस्त हो गई।
ततो भवत्त्राणनियुक्तबालकप्रभीतिसङ्क्रन्दनसङ्कुलारवै: ।
विमिश्रमश्रावि भवत्समीपत: परिस्फुटद्दारुचटच्चटारव: ॥२॥
तत: भवत्- तदनन्तर आपकी
त्राण-नियुक्त- रक्षा के लिए नियुक्त
बालक-प्रभीति- बालकों के डरे हुए
सङ्क्रन्दन- आक्रन्दन
सङ्कुला-रवै: (और) चकित आवाजों से
विमिश्रम्-अश्रावि युक्त सुनाई दी
भवत्-समीपत: आपके पास से
परिस्फुटत्-दारु- फटती हुई लकडी की
चटत्-चटा-रव: चटकने की चटा चट आवाज
तदनन्तर, आपकी रक्षा के लिए नियुक्त बालकों का भयपूर्ण क्रन्दन सुनाई दिया जो चकित कोलाहल से युक्त था, और आपके समीप से लकडी के फटने की और चट चटा कर चटखने की आवाज भी सुनाई दी।
ततस्तदाकर्णनसम्भ्रमश्रमप्रकम्पिवक्षोजभरा व्रजाङ्गना: ।
भवन्तमन्तर्ददृशुस्समन्ततो विनिष्पतद्दारुणदारुमध्यगम् ॥३॥
तत:-तत्-आकर्णन- तब उसको सुनने से
सम्भ्रम-श्रम- विस्मय और परिश्रम से
प्रकम्पि-वक्षोज-भरा: कांपते हुए स्तन भारी (जिनके)
व्रजाङ्गना: (उन) गोपिकाओं ने
भवन्तम्-अन्त:-ददृशु:- आपको बाहर में देखा
समन्तत: विनिष्पतत्- चारों ओर बिखरे हुए
दारुण-दारु-मध्यगम् बडे लकडी के टुकडों के बीच में
तब उस भयानक कोलाहल को सुन कर विस्मय और परिश्रम से कांपती हुई, भारी स्तनों वाली गोपिकाओं ने तब बाहर जा कर देखा कि आप चारों ओर से गिर कर बिखरे हुए लकडी के बडे बडे दारुण टुकडों के बीच स्थित हैं।
शिशोरहो किं किमभूदिति द्रुतं प्रधाव्य नन्द: पशुपाश्च भूसुरा: ।
भवन्तमालोक्य यशोदया धृतं समाश्वसन्नश्रुजलार्द्रलोचना: ॥४॥
शिशो:-अहो बच्चे को अहो!
किं किम्-अभूत्- क्या, क्या हो गया'
इति द्रुतं प्रधाव्य इस प्रकार जल्दी से दौड कर
नन्द: पशुपा:-च नन्द और गोप जन
भूसुरा: भवन्तम्-आलोक्य ब्राह्मण आपको देख कर
यशोदया धृतं यशोदा के द्वारा उठाए हुए
समाश्वसन्- आश्वासित हुए
अश्रु-जल-आर्द्र-लोचना: अश्रुओं के जल से भीगे हुए नेत्रों वाले
अहो! बच्चे को क्या हो गया, क्या हुआ!' इस प्रकार कहते हुए नन्द, गोप जन और ब्राह्मण जल्दी से दौड कर गए। यशोदा ने आपको गोद में उठा लिया है देख कर वे लोग आश्वस्त हुए। आनन्द अश्रुओं से उनके नेत्र गीले हो गए।
कस्को नु कौतस्कुत एष विस्मयो विशङ्कटं यच्छकटं विपाटितम् ।
न कारणं किञ्चिदिहेति ते स्थिता: स्वनासिकादत्तकरास्त्वदीक्षका: ॥५॥
क:-क: नु कौत:-कुत: 'कौन, कौन है, कहां से, कहां
एष विस्मय: विशङ्कटम् यह आश्चर्यजनक विशाल
यत्-शकटम् विपाटितम् जो छकडे को तोड डाला है
न कारणम् नहीं (कोई) कारण
किञ्चित्-इह-इति कोई भी यहां है' ऐसे
ते स्थिता: वे खडे रह गए
स्व-नासिका-दत्त-करा:- अपनी नाक पर दे कर हाथ
त्वत्-ईक्षका: आपको देखने वाले
'कौन, यह कौन है, कहां से आया है, कहां है, जिसने इस विशाल छकडे को तोड दिया है। आश्चर्य है! यहां तो इसका कोई भी कारण दृष्टिगत नहीं होता।' इस प्रकार आपको देखते हुए लोग अपनी नाक पर हाथ रख कर स्तम्भित से खडे रह गए।
कुमारकस्यास्य पयोधरार्थिन: प्ररोदने लोलपदाम्बुजाहतम् ।
मया मया दृष्टमनो विपर्यगादितीश ते पालकबालका जगु: ॥६॥
कुमारकस्य-अस्य कुमार के इसके
पयोधर-अर्थिन: स्तनपान की इच्छा से
प्ररोदने रुदन करने से
लोल-पद-अम्बुज- चलाने से पद कमल से
आहतम् आहत हो जाने से
मया मया दृष्टम्- मैने मैने देखा है
अन: विपर्यगात्- छकडा उलट गया
इति-ईश इस प्रकार हे ईश!
ते पालक-बालका: आपके रक्षक बालक
जगु: बोले
हे ईश्वर! आपकी रक्षा के लिए नियुक्त बालक इस प्रकार बोले, 'कुमार ने स्तनपान के लिए विचलित हो कर रुदन करते हुए अपने पदकमलों को चलाया। इससे आहत हो कर छकडा उलट गया। मैने देखा है। मैने देखा है।'
भिया तदा किञ्चिदजानतामिदं कुमारकाणामतिदुर्घटं वच: ।
भवत्प्रभावाविदुरैरितीरितं मनागिवाशङ्क्यत दृष्टपूतनै: ॥७॥
भिया तदा भय से तब
किञ्चित्-अजानताम्- कुछ भी नहीं जानने वालों के लिए
इदम् कुमारकाणाम्- यह कुमारों का
अति-दुर्घटम् वच: अत्यन्त असम्भव वचन (था)
भवत्-प्रभाव-अविदुरै:- आपके प्रभाव को न जानने वाले (किन्तु)
इति-ईरितं मनाक्-इव- यह कहा हुआ थोडा सा मानो
अशङ्क्यत दृष्ट-पूतनै: आशङ्कित करता था पूतना को देखने से
जो लोग कुछ भी नहीं जानते थे वे सोचने लगे कि गोपकुमार भयभीत हो कर ऐसा कह रहे हैं। अन्य कुछ लोग जो आपके प्रभाव को तो नहीं जानते थे, किन्तु पूतना की घटना के साक्षी थे, वे इस बात से अवश्य ही थोडा आशङ्कित हो गए।
प्रवालताम्रं किमिदं पदं क्षतं सरोजरम्यौ नु करौ विरोजितौ।
इति प्रसर्पत्करुणातरङ्गितास्त्वदङ्गमापस्पृशुरङ्गनाजना: ॥८॥
प्रवाल-ताम्रं कोमल पत्तों के समान
किम्-इदं पदं क्षतं क्या यह पैर चोट खा गए हैं
सरोज-रम्यौ नु कमल के समान सुन्दर क्या
करौ विरोजितौ हाथ छिल गए हैं
इति प्रसर्पत्-करुणा- इस प्रकार बहती हुई दया से
तरङ्गिता:-त्वत्-अङ्गम्- विचलित आपके अङ्गों को
आपस्पृशु:-अङ्गनाजना: सहलाती रही गोपिकाएं
नव पल्लव के समान कोमल ये पैर क्या चोट खा गए हैं? कमल के समान सुन्दर ये हाथ क्या छिल गए हैं?' इस प्रकार दया से द्रवित गोपिकाएं आपके अङ्गों को सहलाती रहीं।
अये सुतं देहि जगत्पते: कृपातरङ्गपातात्परिपातमद्य मे ।
इति स्म सङ्गृह्य पिता त्वदङ्गकं मुहुर्मुहु: श्लिष्यति जातकण्टक: ॥९॥
अये सुतं देहि अयि पुत्र को दो
जगत्पते: कृपातरङ्ग-पातात्- जगत्पति की कृपाकी तरङ्गों के गिरने से
परिपातम्-अद्य मे बच गया आज मेरा (पुत्र)'
इति स्म सङ्गृह्य इस प्रकार ले कर
पिता त्वत्-अङ्गकम् पिता ने आपके अङ्गों को
मुहु:-मुहु: श्लिष्यति बारम्बार आलिङ्गन किया
जात-कण्टक: हो कर रोमाञ्चित
'अयि (यशोदा) पुत्र को मुझे दो। जगत्पति की कृपा के तरंगापात से ही आज मेरा पुत्र बच गया।' इस प्रकार कहते हुए पिता ने आपको गोद में ले लिया और बारम्बार आलिङ्गन करके रोमाञ्चित हो गए।
अनोनिलीन: किल हन्तुमागत: सुरारिरेवं भवता विहिंसित: ।
रजोऽपि नो दृष्टममुष्य तत्कथं स शुद्धसत्त्वे त्वयि लीनवान् ध्रुवम् ॥१०॥
अन:-निलीन: छकडे के वेष में
किल हन्तुम्-आगत: निस्सन्देह हत्या करने के लिए आया था
सुरारि:-एवं दैत्य इस प्रकार
भवता विहिंसित: आपके द्वारा मार दिया गया
रज:-अपि न: दृष्टम्-अमुष्य धूल भी नहीं दिखी इसकी
तत्-कथं स वह कैसे, वह
शुद्ध-सत्वे त्वयि निर्मल सत्व में आपमें
लीनवान् ध्रुवम् लवलीन हो गया अवश्य
निस्सन्देह छकडे के वेष में यह दैत्य आपकी हत्या करने के लिए ही आया था। उसको आपने इस प्रकार मार डाला। यह कैसे सम्भव है कि उसकी धूल तक भी दिखाई नहीं दी। अवश्य ही वह निर्मल सत्व स्वरूप आपमें लीन हो गया।
प्रपूजितैस्तत्र ततो द्विजातिभिर्विशेषतो लम्भितमङ्गलाशिष: ।
व्रजं निजैर्बाल्यरसैर्विमोहयन् मरुत्पुराधीश रुजां जहीहि मे ॥११॥
प्रपूजितै:-तत्र सम्पूजित हुए वहां
तत: द्विजातिभि:- तब ब्राह्मणों ने
विशेषत: विशेष रूप से
लम्भित-मङ्गल-आशिष: न्यौछावर किए माङ्गलिक आशीर्वाद
व्रजं व्रज को
निजै:-बाल्य-रसै:- अपने बाल (रूप) की मधुरता से
विमोहयन् सम्मोहित करते हुए
मरुत्पुराधीश हे मरुत्पुराधीश
रुजां जहीहि मे कष्टों को हर लीजिए मेरे
तब वहां सम्पूजित हुए ब्राह्मणों ने आपके ऊपर मङ्गल आशीर्वाद न्योछावर किये। अपने बाल रूप की मधुरता से व्रज को रस सिक्त करने वाले, हे मरुत्पुराधीश! मेरे कष्टों को हर लीजिए।

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