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Thursday, April 12, 2018

ASTADASA SIDDHANTA(Hari das.bhajan.1)

ASTADASA SIDDHANTA(Hari das.bhajan.1)

 https://youtu.be/NNcp99FgmAA




अष्टादस सिद्धांत का प्रथम पद्य
==1==
ज्यौंही ज्यौंही तुम राखत हौ त्यौंही त्यौंही रहियत है हों हरि॥
 और तौ अचरचे पाय धरौं सु तौ कहौं कौन के पेंड भरि ॥
जद्यपि हौं अपनौ भायौ कियौ चाहौं कैसे करि सकौं जो तु राखौ पकरि ॥
 श्री हरिदास के स्वामी श्याम कुंज बिहारी पिजरा के जनावर लौं तरफराय रहौ उड़िवे कौ कितौक करि ॥1॥.
.. / इस पद्य का अर्थ -भावार्थ ====
भक्त स्वयं को ईश्वर के अधीन मानते हुए प्रार्थना करता है कि - हो बिहारी जू ! आप जैसे भी मुझे रख रहे हो वैसे ही में रहता हूं। आप की इच्छा बिना तो कोई भी एक डग [पग या कदम ]नही चल सकता। मैं अगर एक डग भी चलू तो किस के बल बुते पर चल सकता हूँ?मेरी तो ये ही इच्छा होती है कि अपने मन की करूँ, किन्तु ऐसे नही हो सकता क्यूंकि हम आप की इच्छा के आधीन हें .हमारा यह मन तो पिंजरे में बंद पंछी की भांति निकल जाने के किये तड़फड़ा रहा है |
यथार्थ ---जो प्राणी बंधन से मुक्त होना चाहता है उसे अपनी इंद्रियों को सावधान हो कर संयम में रखना होगा। जो भी हम जो अच्छे बुरे काम जीवन भर करते रहते हैं, मौत के समय वही हमारा अगला जन्म निर्धारित करता है। इस संसार में सब मन का खेल ह़ी हे और अकेले मन को पांच -पांच इंद्रिय रुपी पत्नियों का सामना करना पड़ता है ।इस लिए बुद्धि को सारथि बना लो और अच्छे =अच्छे काम करो...मनुष्य की देह एक पिंजरे की तरह है।जिस में तोते नाम का जीव निवास करता है।पिंजरे का एक ही निकास द्वार हे उस में पवन नाम का पक्षी बेठा हुआ है। देह में नौ (9) निकास स्थान और हैं।दो आँख, दो कान,दो नाक के छिद्र ,एक मुख तथा दो नीचे के द्वार हैं। आश्चर्य की बात यह है कि ये सभी नौ द्वार खुले हैं और यह पवन नाम का पक्षी इस देह में इतने दिनों तक टिका रहता है, उड़ता नही जबकि यह द्वार खुले हैं।उडा क्यों नही? जबकि दुवार सभी खुले हैं।यहाँ अचम्भा रुकने का है।उड़ने का नही।तडफडाता तो रहा। उडा नही। किन्तु फिर भी इसे बस में करना असाध्य ही था।
 सार----सब कुछ कुंजबिहारी जी की इच्छा से ही होता है।जीव तो माया के पिंजरे में बंद पंछी के समान है।..........









 .श्री हरिदास अष्टादस सिद्धांत का द्वितीय पद्य

=2====
काहूकौ बस नांहि तुम्हारी कृपा ते सब होय श्री बिहारी बिहारिन ॥
 और मिथ्या प्रपंच काहे कौं भाषिये सो तौ है हारिनि ॥
जाहि तुम सौं हित तासौं तुम हित करौ सब सुख कारनि ॥
 श्री हरिदास के स्वामी श्यामा कुंजबिहारी प्राँननि के आधारनि ॥2॥
 इस पद्य का अर्थ -भावार्थ =

जो कुछ भी हो रहा है सब बिहारी जी की कृपा से हो रहा है।इस में किसी का कोई वश नही चलता।हम जो कुछ देख रहें हैं ,सुन रहें हैं, सोंच रहें हैं ,सब मिथ्या है जिस का कोई सार नही और जो ह्ररणशील है।---इसलिए हे श्री कुञ्ज बिहारी जी! जो जीव आप की भक्ति करें हैं , आप भी उन ही से प्रीति करते हो।श्री हरिदास जी कहते हैं कि हमारे प्राणों के आधार तो केवल श्री कुंजबिहारी-कुंजबिहारिणी जी ही हैं।।और कोई अपना मीत नही है । जो प्राणी बिहारी जी पर पूरा भरोसा करते हैं,श्री बिहारी जी उन्हें भव सागर से सहज ही पार लगा देते हैं। बिहारी जी केवल प्रेम को ही मानते हैं। वेदों का ज्ञान,होना, कुलीन परिवार में जन्म लेना या बहुत दानी होना उनके लिए कोइ मायने नही रखता।उन्हें तो केवल सच्चे मन से प्रेम करो, ये ही सर्व श्रेष्ठ उत्तम मार्ग है उन को पाने का। अपने शरण में आये भक्तों को अभय करना बिहारी जी का सहज स्वभाव है।जीव को अहम् से बच कर केवल उन की शरण लेनी चाहिए। यह संसार नश्वर है श्यामा-श्याम ही अपने है .उन का हमेशा ध्यान व जप करना ही जीव का उद्श्य होना अकलमंदी है।
=








 श्री हरिदास अष्टादस सिद्धांत का तृतीयपद्य
= 3--
 कबहूँ कबहूँ मन इत उत जातैं यातें अब कौन है अधिक सुख ॥
बहुत भाँति नयत आंनि राष्यौ नाहितौ पावतौ दुख ॥
कोटि कमलावन्य बिहारी तातै मुहा चुहीं सब सुष लियें रहत रूख ॥
श्री हरिदास के स्वामी श्यामा कुंज बिहारी दिन देषत रहौ विचित्र मुख ॥3॥

इस पद्य का अर्थ-- भावार्थ ==
हमारा मन इधर उधर बहुत जाता है।कभी यह देवता ,कभी वह देवी की मन्नते मांगते रहते हैं जबकि यह सभी देवी देवता बिहारी जी के ही अधीन हैं। भगवत गीता में स्पष्ट है की जो देवी देवताओं को पूजता है वह उन के लोक में जाता है परन्तु
जो मुझे सीधा भजता है वह जीव मुझ को ही प्राप्त होता है।भला बिहारी जी से भी अधिक कोई सुन्दर है? हम कोटि काम लावण्या बिहारीजी को छोड़ कर अन्य देवताओं के पीछे क्यूँ भागते हैं ?
क्या इनके सुन्दर मुख दर्शन से भी अधिक सुन्दर कोई और हो सकता है?
स्वामी श्री हरि दास जी कहते हैं---हे बिहारी जी ! मेरी तो यह ही कामना है कि मैं आपके इस विचित्र मुख कमल के दर्शन सदा करता रहूँ।
बिहारीजी के सुन्दर दर्शन मोहक रूप का तो क्या कहना जो एक बार उन के दर्शन कर लेता है उन्हें निहारता ही रहता है।उनके विशाल नेत्र मानो सुन्दरता के तरंगों का सागर हों जिन में से डूब कर बाहर निकलना असंभव है। उन के मुख की मुसुकान, कान के कुंडल माथे की पाग .नाक की बेसर, ठोड़ी का हीरा टिपारे, चन्द्रिका ,मोर पंख सभी मिल कर एक ऐसी मोहिनी डाल देते हैं की जो देखता है ,वह ठगा सा रह जाता है।
उन की मुख सौंदर्य की छटा इस लिए विचित्र है क्योंकि क्षण -क्षण में बदलती रहती है। प्रिया- प्रियतम की मुख छवि करोड़ों कामदेवों को भी लजाने वाली है।
सार-------समस्त सुखों के दाता बिहारीजी को छोड़ कर इधर-उधर भटकना व्यर्थ है। भक्ति एक की ही करनी चाहिए, तभी एकाग्रता आती है।इस लिए स्वामी जी कहते हैं इस मन को यत्न पूर्वक प्रीती -मन्त्र में बाँध दो। मन को ऊँचा ले जाने के लिय मन्त्र जपने की आवश्यकता है। तब मन इधर उधर नही जाए गा।
=







 अष्टादस सिद्धांत का चतुर्थ पद्य
====4==
हरि भजि हरि भजि छांड़िन मान नर तन कौ॥
जिन बंछैरे जिन बंछैरे तिल तिल धनकौं ॥
अनमागैं आगैं आवैगौ ज्यौं पल लागैं पलकौं ॥
कहि हरिदास मीच ज्यौं आवै त्यौं धन आपुन कौ ॥4॥

इस पद्य का अर्थ भावार्थ =स्वामी श्री हरिदास जी कहते है रे मन ! तू भजन रुपी हीरे जवाहरात को त्याग कर कोड़ी -कोड़ी के लिए मरता है यह ठीक नही। तेरे प्रारब्ध से तुझे धन तेरे बिना प्रयास किये ही मिल जाए गा,जैसे पलक स्वयम झपकती है, फिर तू अपना अमूल्य समय उसे जमा करने में क्यों गवा रहा है।यह नर तन तुझे बहुत भाग्य व पिछले अच्छे कर्मो के कारण मिली है।चौरासी लाख योनिओं में तू करोड़ो वर्षो घूमता रहा है।अब तो चेत जा वरना जब मृतुय आयेगी गी तो हाथ मलता रह जायेगा। तेरा असली रत्न तो बिहारी जी का प्यारा नाम है जिसे जप कर तू सहज में ही भव सागर पार कर लेगा। तू एक एक कौड़ी के लिए भागना छोड़ कर भगवत भजन में लग जा जो की बहुत सुलभ है। श्री हरि दास जी कहते हैं की जब तू मर जाएगा तो ये धन तेरे किस काम आयेगा। जब तेरा अंत आयेगा तो उस के लिये सभी सामग्री पहले से ही तॆयार है।तेरे को जो कफन ओढ़ाया जायगा पहले से ही बना हुआ है उस के लिए कोई मिल तुरंत नया कपड़ा नही बनायेगी। ना ही तेरे को जलाने के लिए नए वृक्ष काटने पड़ेंगे।सगे सम्बन्धी भी कंधा देने भागे हुए पहुंच ही जाएँगे। जैसे ही तेरी स्वांस बंद होगी , अपने कह्लाने वाला कोई नही होगा।कफन की कोई जेब नही होती जिस में तेरे कमाए हुए धन को तेरे साथ ले जाने को दे दें।इसलिए हे मन तू संभल जा।आज से क्या अभी से जप करना शुरू कर दे।..श्री हरिदास



: अष्टादस सिद्धांत का पंचम पद्य
==5=
हे हरि मोसौं न बिगारन कौं तोसौं न संम्हारन कौं मोहि तांहि परी होड़ ॥
कौंन धौं जी तै कौंन धौं हारै परि बादी न छोड़ ॥
तुम्हारी मायाबाजी पसारी विचित्र मोहे मुनि काके भूले कोउ॥
कहि हरिदास हम जीते हारे तुम तहु न तोड़ ॥5॥

इस पद्य का अर्थ ==भावार्थ ===हमारे और बिहारी जी के स्वभाव में कितना अंतर है।
एक हम जीव हैं जिन को हमेशा सभी काम बिगड़ने की आदत पड़ी हुई है और दूसरी तरफ अति अकारण करुणा वरुणालय करुणामय बिहारी जी जो हमारा काम बनाने में ही लगे रहते हैं।हमारा हित करने वाले बिहारी जी से बढ़ कर कोई नही है।हम बिगड़ने वाले हैं और बिगाडने वाले हैं ,जीव और बिहारी जी में इस की होड़ लगी हुई है।यह प्रतियोगिता में किस की हार और किस की जीत है यह तो असम्भव है। जीव भी काम बिगाड़ने में हठ नही छोड़ेगा और न ही बिहारी जी अपनी हठ छोड़े गें।इसलिए इस प्रतियोगिता में हार जीत का प्रश्न ही नही क्यूंकि दोनों में से पीछे हटने वाला कोइ नही। जीव कहता है, हे हरी! आप की माया इतनी विचित्र है की बड़े -बड़े ऋषि -मुनि भी इस के छलावे में मोहित हो गए हैं।मैं तो अधमों से भी अधम हूँ।तुम्हारी माया से कैसे बच सकता हूँ ? स्वामी जी कहते हैं की इस प्रतियोगिता में जीत जीव की ही है तब भी बिहारी जी उस से तोरा टूटन नही करते उस का कल्याण ही करते हैं।यह ही जीव की जीत है।दूसरा अर्थ यह है कि इस बात का कोई तोड़ नही की जीव बिगड़ता है और बिहारी जी सुधारते रहते हैं। यह क्रम चलता ही रहेगा।ठाकुर जी अपने भक्त को जीता देते हैं और खुद हार जाते हैं।भीष्म जी की प्रतिज्ञा में खुद हार गए ,तब भी उन के अंत समय में उन को अपने दर्शन देकर कृतार्थ किया।हमारे और बिहारी जी के स्वभाव में कितना अंतर है।...श्री हरिदास
अष्टादस सिद्धांत का षष्टम पद्य
 --6=

वंदे अखत्यार भला ,चित न डुलाव ||
आव समाधि भीतर न होहु अगला ॥
न फिर दर दर पदर पद न होहु अधला॥
कहि श्री हरिदास करता किया सो हुआ सुमेर अचल चला ॥6॥

इस पद्य का अर्थ-भावार्थ -
==पद्य --6-- बिहारी जी की कृपालुता हम पर कितनी है ,हम इस का अंदाजा भी नही लगा सकते।
उन्होंने हमे केवल यह अमूल्य नर तन ही नही दिया है अपितु हमे अपने महल टहल का भी अधिकार दिया हुआ है। उस के लिए हमें भी कुछ तो प्रयास करना पड़ेगा, तभी उन की कृपा की वर्षा हम पर होगी।ये अधिकार अन्य जीव को नही है। इसलिए बन्दे! अपने चित को स्थिर रख कर उस प्यारे का ध्यान कर।वह तेरे नर तन के भीतर ही हैं। तू समाधि लगा के उस दिव्य आनंद का नज़ारा देखने की आदत डाल ले।अन्य देवी देवताओं के दरवाज़े जा कर याचना करनी बंद कर दे।यह एक तरह की व्यभिचारिणी भक्ति है।तू अ-व्यभिचारिणी भक्ति करा कर।जितनी बार तू जन्म लेगा उतने तेरे माँ -बाप बनेंगें इसलिए तू अँधा मत बन और जन्म मरण के बंधन से मुक्त होंने का प्रयास कर जिस से तू स्वतंत्र हो गा।तू इधर उधर मत भटक।अन्यथा अगली योनिओं की भाँति भटकता फिरेगा। अतः अनन्य भक्ति में ही सार है।श्री स्वामी कहते हैं की जो बिहारी जी करते हैं वही होता है।उनके चलाये सुमेर भी चलायमान हो जाता है।
स्वामी श्री हरिदास बन्दे को शास्त्र पठन-पाठन , भजन ,सत्संग, व अच्छे कर्म करने को कहते हैं। उन का यह कहना है की तुझे ये नर तन योनि इसलिए ही मिली है ताकि तू अपनी वृति शून्य बना ले।वृति का एक सा बना रहना ध्यान है जिससे स्वरुप शुन्यव्रत हो जाता है। जब तक संसार से सम्बन्ध टूटेगा नही तब तक बिहारी जी से जुड़ना असंभव हे .बिहारी जी का रंग जीवन को सुशोभित करने वाला होता है बिहारी जी कभी मिटते नही हैं।संसार कभी टिकता नही है नाशवान है फिर उस का रंग पक्का कैसे हो सकता है।इसलिए बिहारी जी का ही भजन करो i
 अष्टादस सिद्धांत का सप्तम पद्य --7--
हित तौ कीजै कमल नैन सों जा हित के आगैं और हित के लागै फीकौ॥
कै हित कीजैं साधु संगत सौं ज्यौं कलमषि जाय जीकौ॥
हरि कौ हित ऐसौ जैसौ रंग मजीठ,संसार हिंत असौ जैसौ रंग कसूम दिन दुती कौ॥
कहि श्री हरिदास हित कीजै बिहारी जु सौं और निवाहू जी कौ ॥7॥

इस पद्य का अर्थ-भावार्थ ===पद्य==7==स्वामी श्री हरिदास जी के कुञ्ज बिहारीजी की सब से अधिक विशेषता यह है की वह अनन्य प्रेमी हैं।इन् के कमल से नेत्रों की रूपासक्ति का तो वर्णन करना बहुत मुश्किल है।इस वृन्दावन धाम में उन के राधा जी के संग अनुराग की वर्षा अनवरत होती रहती है।उन के उपासक नैन-बैन और श्रवणों से मधुर पान करते हुए प्रिया -प्रीतम के अंगी-संगी बने रहते हैं और क्षण भर के लिए भी इस रस भूमि को छोड़ते नही।बिहारी जी का हित ही सब सुख दातार है।इनके हित आगे सब हित बेकार हैं।इन का हित (प्रेम) मजीठ रंग की तरह पक्का है।...श्री बिहारी जी अकारण करुणा वरुणालय है। .करुणा करना तो इन का सहज स्वभाव है।इन् के भक्त भी इन् के रंग में रंगे रहते हैं।उन के साथ भी संग करने से अति कल्याण है।संसार का हित तो नाशवान है जो स्वार्थ में किया हेतु समाप्त होते ही उदासीनता में बदल जाता है।किसी व्यक्ति के दस काम कर और एक यदि किसी कारण से नही हुआ तो वह दस काम किये हुए भी भुला देगा परन्तु बिहारी जी इतने दयालु हैं की जो प्राणी एक बार भी उन्हें सच्चे मन से भजता है वह उन्हें सहज में अपना लेते हैं।यह संसार तो नाशवान है।किसी से भी अटूट सम्बन्ध कभी नही बन सकता, जबकि बिहारी जी अविनाशी हैं वह कभी मिटते और जीवन के अंत तक साथ निभाते हैं।स्वामी श्री हरिआस जी कहते हैं कि.. रे मन! यह संसारी प्रेम कच्चा है जो केवल चार दिनों का ही है उसे त्याग कर बिहारी जी से प्रेम करो क्यूंकि बिहारी जी की प्रीति ही निर्वाहक है जीव का अंत तक निर्वाह उनसे ही प्रीती करने में है।
श्री हरिदास
अष्टादस सिद्धांत का अष्टम पद्य -पद्य 8--.
.तिनका ज्यों बयार के बस॥
ज्यौं भावै त्यौं उड़ाय ले जाय आपने रस ॥
ब्रह्म लोक सिवलोक और लोक अस ।
कहि श्री हरिदास विचार देखौ विना बिहारी नाहिं जस ॥8॥
इस पद्य का अर्थ -भावार्थ ==-8 ----एक तिनका भी पृथ्वी पर गिरा हुआ पवन के आधीन है। जहाँ वायु उसे उड़ा कर ले जायेगी उसे वहीं जाना पड़ेगा।वह तिनका पवन के सामने पूरी तरहसमर्पित है।
जहाँ भी पवन की इच्छा होती है, वही उड़ने को वह राज़ी हो जाता है।इस प्रकार जीव भी माया के अधीन है।
माया उसे ब्रह्म लोक,शिव लोक आदि लोकों में भ्रमण कराती रहती है स्वामी श्रीहरि दास कहते हैं कि  बिहारी जी की कृपा के बिना जीव की गति नही।वह जन्म-जन्म लोक लोकान्तरों में भ्रमण करता रहेगा पर असली ठौर पर नही पंहुच पाएगा। बिहारी जी को अर्पित हुए कर्म योगी की अपनी कोई कामना नही होती।उन में कर्तापन का भाव नही होता इसलिए वह पाप-पुण्य के भागीदार नही होते।यदि कोई बहुत पुण्य कर के ब्रह्म लोक या शिव लोक में भी पंहुच जाते हैं,पुण्य क्षीण होते ही न चाहते हुए भी उन्हें इस संसार में वापिस आना पड़ता है।स्वामी जी का कहना है की यह हाल सब लोकों का है।केवल बिहारी जी की एकमात्र शरण लेने से जीव को जन्म मरण से मुक्ति मिलती है।जीव को बिहारी जी के समर्पण हो कर उन की इच्छा अनुसार जीव जीना चाहिए।
श्री हरिदास

i: अष्टादस सिद्धांत का नवम पद्य -=पद्य 9==

संसार समुद्र मनुष्य मीन नक्र मगर और जीब बहु बंदसि ॥
मन बयार प्रेरे स्नेह फंद फदसि ॥
लोभ पिंजरा लोभी मरजिया पदारथ चारि खंद खंदसि॥
कहि श्री हरिदास तेई जीव पराभये जे गहि रहे चरन आनन्द नन्दसि ॥9॥

इस पद्य का अर्थ -भावार्थ ==-9---संसार एक सागर है।मनुष्य इस संसार सागर की मछली है जो स्वभाव से चंचल होती है यह ही स्वभाव मनुष्य का भी है।इस सागर में मनुष्य -मीन,नक्र मगर रूप में हैं सबल निर्बल को निगल जाने में लगे हुए हैं।यह ही क्रम चलता आ रहा है।वैसे यह दुनिया एक शैतान की दूकान है। वे शैतान ,वस्तु के बदले धर्म रूपी धन छीन लेते हैं।लेकिन जो ज्ञानीजन हैं वह संसार से दूर भाग जाते हैं जो फंदे में फंस गया उस का फिर निकलना मुश्किल है।
मनुष्यों की कई कोटियाँ हैं।अच्छे - बुरे, लोभी- संतुष्ट, सज्जन -शैतान, मानव-पशु आदि। संसारी जीव मन रुपी वायु से प्रेरित हो कर मोह रुपी फंदे में फंसे हुए है।लोभी मनुष्य मरजिया(समुद्री गोताखोर) की भांति संसार सागर से चार पदारथ निकलने में लगे हुए हैं। स्थिर बुधि न होने के कारण धर्म,अर्थ,काम मोक्ष के स्थान उन्हे शंख सीपी,कोड़ी ही हाथ लगती है।सार वास्तु चार पदार्थों में से यदि किसी एक खंड का भी खंड यानि की अंशांश भे यदि हट आ जाए तो जीवन का कल्याण हो सकता है क्योंकि रत्न रुपी पदार्थ ही मूल्यवान होते हैं। स्वामी श्री हरिदास जी कहते हैं की जो बिहारी जी की शरण ग्रहण करता है वही इस संसार को पार कर सकता है।इस संसार को पार करने के लिए भक्त रुपी नौका की आवश्यकता है।भक्ति साकार में सहजता से की जाती ही फिर हम कलियुग के लोगों पर तो स्वामी श्री हरिदास जी की अपार कृपा की है उन्होंने बिहारीजी को निकुंज महल से प्रकट करके हम जीवों को उन के दर्शन का सुलभ सौभाग्य दिया।
बिहारी जी के दर्शन करने तो असंख्य लोग जाते ही , किन्तु भक्त हृदय भी होना बहुत जरूरी है।भक्ति-भाव से जो भी उन का दर्शन करते हैं वह उन्हें कृतार्थ कर देते हैं।रसिकों के लिए उन का श्रीमुख ही काम है,सेवा ही धर्म है ,बिहारी जी स्वयं उन के अर्थ हैं और उन क महल-टहल ही मोक्ष है।इस धर्म रूप बिहारी जी की शरणागति ही परम कल्याणकारी है।..श्री हरिदास


-=पद्य 10==
हरि के नाम कौ आलस कित करत है रे काल फिरत सर सांधे ॥
बेर कुबेर कछू नहि जानत चढ्यौ फिरत है कांधे॥
हीरा बहुत जवाहिर सच्चे राँचे कहा भयौ हस्ती दर बाँधे ॥
कहि श्री हरिदास महल में बनिता बनठाढ़ी भई॥
तव कछु न चलत जब आवत अन्त की आँधे ॥10॥
इस पद्य का अर्थ -भावार्थ -''हम सभी काम बहुत उत्साह के साथ करते हैं, केवल बिहारी जी को या।द करने में हमे आलस है स्वामी श्री हरिदास जीव से कहते हैं -रे जीव !
तू हरि का नाम लेने में आलस नही कर क्युकिं काल हमेशा तेरे आगे पीछे बाण लिए घूम रहा है। न मालूम कब तेरा राम नाम सत्य हो जाए। तुने जितना भी धन भले इकठठा किया हो ,यह तेरी कोइ सहायता नही करने वाला।यह हीरे जवाहरात तेरे यहीं पड़े रह जाएँ गे जो तूने इतनी मेहनत से संग्रह किये थे।तेरे हाथी घोड़े तेरे दरवाजे पर बंधे रह जायेंगे।जब काल की आंधी आयेगी उस समय महलों में सजी ठढी तेरी स्त्री की भी एक नही चलेगी।तेरे कितने भाई बहन ओर अन्य सम्बन्धी तेरी सहायता करने में असमर्थ हो जायेंगे। स्वामी जी का तात्पर्य यह है की जो जीव, हरि भक्तों की बातों की अवहेलना करतें हैं उन्हें ग्लानि का कफन पहनना पड़ता है बिहारी जी का ध्यान करने वाले उन की गोद में चैन की नींद सोते हैं मरने से पहले जीव को आत्म कल्याण कार्य कर लेने चहिये भ्रमर सोचता है "रात बीते गी , सुन्दर प्रभात होगा ,कमल खिलेगा मैं निकलूंगा ,फिर जी भर रस पान करूंगा "इतने में आती आया, कमल को नाल सहित चबा गया और भ्रमर जी भी भगवान को प्यारे हो गए। बिषय रत जीवों की भी यही गति होती है।
इसलिए जितना बन सके बिहारि जी का नाम जपो।नही लो गे तो नही मालुम काल कभी भी आ धमकेगा और तुम्हें पश्चाताप ही हाथ लगेगा।
..श्री हरिदास ..
अष्टादस सिद्धांत का एकादश पद्य ==11;
देखौ इनि लोगन की लावनि ॥
बूझत नाँहिं हरि चरनकमल कौं मिथ्या जन्म गवावनि
जब जमदूत आनि घेरत हैं तब करत आप मनभावनि ॥
कहै श्री हरिदास तबहीं चिरजीवै जब कुंजबिहारी चितवनि ॥11॥
इस पद्य का अर्थ ==इस पद्य में स्वामी जी जीव की संसार से आसक्ति व बिहारी जी से उदासीनता के बारे वर्णन करते हैं। उन का कहना है की देखो इन लोगों की लावनि। (प्रीति).
जानने योग्य बिहारी जी को छोड़ कर उनको याद नही करते और झूठे संसार के प्रपंच में फंसे हुए हैं।इतनी दुर्लभ मनुष्य योनि को कौड़ी के बदले में लुटा रहें हैं।एक एक स्वांस कीमती है परन्तु यह मूर्ख फ़ालतू की गप शप में अपना समय बर्बाद करतें है। इन्हें यह खबर नही की जब यम दूत इन को लेने आयेगा तो यह कुछ नही कर सकेंगें।यमदूत अपनी मन मानी करेंगे और इस के न चाहते भी इस की आत्मा को घसीटते हुए ले जाएँगें। स्वामी श्री हरिदास जी जीव को सावधान करते हुए कहते हैं कि== हे जीव ! तू बिहारी जी को ही चेत।उन्ही को याद करने से तेरे जन्म मरण के सभी दुःख कटेंगें। एक वही हैं जो तुझे जन्म मरण से छुडाएंगें,वरना तू बार बार जन्म लेगा और बार बार मरेगा।
यह संसार एक स्वपनवत है, इस में अनासक्त ही रहना बेहतर है। बिहारी जी की चरण शरण ग्रहण करने से हमारा कल्याण है। ब्रज की रज में लोट लगाने से, करुवा से प्रीती करने से व जग्गंनाथ जी का प्रसाद लेने से व गंगा जल .यमुना जल का पान करने से बिहारी जी को रीझा ले । यह बिहारी जी का लीला क्षेत्र है। कितने भक्त इस मार्ग से जाते -जाते पार हो गए हैं ,जैसे कि नारदजी,ध्रुव,प्रहलाद विश्वामित्र जी,शुकदेवजी , राजा परीक्षित आदि।..श्री हरिदास


पद्य 12-----मन लगाइ प्रीती कीजे कर करुवा सौं।ब्रज बीथिन दीजे सोहनी।
वृन्दावन सो वन उपवन सौं गुन्ज्माल हाथ पोह्नी।।
गो गो -सुतिंन् सौं , मृग -मृग सुतिंन् सौं, और तन नैक न जोहनी।
श्री हरि दास के स्वामी स्यामा कुञ्ज बिहारी ,सौंचित ज्यौं सिर पर दोहिनी।। 12 ||

इस पद्य का अर्थ -भावार्थ . 12= जिस तरह श्री युगल और सहचरी प्रेम के स्वरुप हैं, उसी प्रकार वृन्दावन धाम भी है।इस धाम के मध्य में अष्ट दल कमल का आकार है ,जिसकी प्रत्येक पंखुड़ी पर एक यूथेश्वरी की कुञ्ज है,जिसमें समस्त सेवा की सामग्री रहती है।इस कमल की कमनीय कर्णिका पर चार सरोवर हैं जिन के नाम हैं रूप, स्वरुप, मान व मधुर हैं। इन के मध्य में अष्ट द्वारों का कोहन महल है। इसके भीतर के चौक के बीच में रत्न मंडल पर कालवृक्ष के नीचे अनेक प्रकार की मणियों से निर्मित मोहन मंदिर है,जिस में सुकोमल शैया पर युगल सुरत बिहार करते हैं।इसी कारण वृंदावन की समस्त सुख सम्पति श्री बिहारी-बिहारिनी जू को अत्यंत प्रिय है।भक्त जन श्री लाडली-लालजू जी के प्रेमरस में डूब कर रस रूपनी श्री यमुना जी का पान व ब्रज रज का प्रीती पूर्वक सेवन करते हैं।ब्रज रज की अध्यात्मिक दृष्टि से बहुत महत्ता है।
तैतीस करोड़ देवता इस पावन भूमि पर वास करतें हैं। श्री हरि दास सम्प्रदाय में करुवा का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। श्री कुञ्ज बिहारी जी की रसोई में मिटटी के पात्र एवं स्वामी जी के पास करुवा देख कर एक रा जा राम नाम भक्त को संशय हुआ था जिस का निवारण स्वयं हरिदास जी ने किया और उस भक्त को श्री वृन्दावन मन भावन प्रिय-प्यारी के धाम की महिमा का बखान करते उसे दिया वृन्दावन के दर्शन करवा कर धन्य किया।
उसे यह समझाया की इस रज की प्राप्ति को ब्रह्मादिक तथा मुनि वृन्द भी ललचाते हैं पर उन के लिए भी यह अति दुर्लभ है।स्वामी जी का कहना है कि मन लगा के ब्रज रज व करुवा जी से प्रीती करो और ब्रज कीगलियों में बुहारी दो। वृन्दावन के उपवन वनों से फूल चुन कर बिहारी जी के किये माला बनाओ और हर पल दिन रात सोते -जागते बिहारी जी का ऐसे ध्यान करो जैसे एक गाय अपने बछड़े का , एक मृगी अपने मृग सूत का व एक गोपी सिर पर रखी मटकी के साथ स्थिर चित से लगाव रखती है। बिहारी जी के चरण कमलो में ऐसी चित वृति रखने वाले भक्त का मन भटकता नही। श्री हरि दास पन्थ में रज की अपरम्पार महिमा है।आज भी टटिया स्थान में मर्त्य पात्रों का चलन है। स्वामी जी का लगभग 500 वर्ष वाल्ला करुवा आज भी भक्तों लो दर्शन के लिए केवल एक दिन, स्वामी जी के जन्म दिवस पर सुलभ है।.

 पद्य 13--हरि कौ एसोई सब खेल ॥
मृग तृष्णा जग ब्यापि रह्यों है कहूँ बिजौरौ न बेल॥
धन मद जोवन मद राज मद ज्यौं पंछिन में डेल ॥
कहै श्री हरिदास यहै जिय जानौ तीरथ कैसौ मेल ॥13॥
इस पद्य का अर्थ -भावार्थ ==बिहारी जी के सब खेल बहुत ही विचित्र हैजिस में न कोइ बीज है न ही कोइ बेल है। मृग तृष्णा संसार के लोगों में व्याप्त है।संसार में जीव अपने परिवार,परिजनों व मित्रों से जो मेल करता है एक मेले में आये हुए जैसे है।
पर्वों -त्योहारों पर जिस प्रकार लोग तीर्थों में मिलते हैं ठीक उसी प्रकार हम अपने- अपने परिवार व जान पहचान वालों को मिलते हैं और फिर चल देतें हैं। हम वहाँ से उड़ जाते हैं जैसे वृक्ष पर पक्षी बेठे हुए होतें हैं , फिर सब के सब अंपने-अपने रास्ते उड़ जातें है।
यह संसार का मेल क्षणिक है फिर भी हम यौवन मद, धन मद व राज मद में यह भूल जातें हैं कि यह क्षणिक है बिहारी जी की लीला का कोई थाह नही है। धन मद क्यों किया जाए?
यह धन आज हमारे हाथ में है , कल किसी और का होगा।अच्छे -अच्छे धनी लोग क्षण में कंगाल होते दिखते हैं। इसलिय धन मद कभी नही करना चाहिते। राजा को भी रंक बनते हुए बहुत बार देखा गया है।
यौवन मद का भी क्या लाभ है। जो यौवन में रूप व शक्ति होती है उम्रर ढलते ही सब समाप्त हो जाता है।राज मद भी इंद्र जैसे देवता को भी भयभीत रखता है तो नर का तो क्या कहना।अपने कुल, खानदान आदि का मद भी काम नही आता ,सब मदों का त्याग करके केवल बिहारी जी के चरण कमल के मद का पान करना चाहिए।दुसरे मदों में मनुष्य अकड़ कर टेड़ा हो जाता है।
धनवान कहता है की ये धन धरती मेरी है परन्तु अपने साथ एक कच्ची कौड़ी भी नही ले जा सकता।पृथु ,भरत ,अर्जुन, सगर शान्तनु ,रावण, कंस .भौमासुर आदि शूरवीर इस धरती को जीत गए थे परन्तु मरते हुए खाली हाथ गए।पंछी की भाँती उनका राज मद,जोवन मद धन मद सब समाप्त हो गया।यह मद चार दिन का है लोग तो धन से प्रेम करते हैं ,परन्तु धन किसी से प्रेम नही करता।
पद्य 14-==झूठी बात सांची करि दिखावत हौ हरि नागर॥
निसि दिन बुनत उधेरत हौ जाय प्रपंच कौ सागर॥
ठाठ बनाय धरयौ मिहरी कौ है पुरुषतें आगर॥
सुनि हरिदास यहै जिय जानों सपनें कौ सौ जागर॥14||
इस पद्य का अर्थ भावार्थ ==पद्य 14 ----- यह संसार सब माया की नज़रबंदी के खेल की तरह मिथ्या है.परन्तु हमे सत्य दिखता है। हमारी देह हर पल विनाश की ओर जा रही है फिर भी देह स्थिर जैसी प्रतीत होती है।
रेल गाड़ी में बैठे ऐसा प्रतीत होता है की पेड़ भाग रहें हैं, जबकि हम रेल में बेठे आगे चले जा रहें हैं।आँख पर ऊँगली लगा कर देखने से दो चंद्रमा दिखाई देते हैं।लेकिन यह सब मिथ्या है।असत्य है।
नश्वर है,पर सत्य सा प्रतीत होता है।नागर नाम चतुर का है।स्वामी जी बिहारी जी को संबोधन करते हुए कहते हैं --हे हरि ! आप कितने चतुर हो ? आपका यह संसार तो निरा मिथ्या है,किन्तु आप इसे सत्य सा प्रतीत जैसे हमे दिखाते हो।आप निरंतर इस संसार को संहार करने में लगे हुए हो। आप का संसार-सागर कितने प्रपंचों से भरा हुआ है। .दिन में सृष्टि रचते हो और रात्रि में संहार कर देते हो।(रात्रि में जब सभी जीव सो जाते हैं, यह भी एक प्रकार का संहार ही है) यदि आप सृष्टि निर्माण करने वाले का नाम चतुर नही तो किस का नाम चतुर होगा ?
जगत की सृष्टि मिहरी नाम की माया से है। ये माया बड़ी बलवती है।माया जनित यह सब संसार जाग्रत स्वप्न की एक अवस्था है।संसारी जीव इसे सत्य मान कर इस से चिपके रहते हैं।उन को विश्वास ही नही होता कि .संसार स्वप्नवत है।..हे पुरुष शिरोमणि बिहारी जी ! आपकी जो यह मिहरी नाम की माया है इसके द्वारा आप ने ये सब ठाठ खड़ा कर रखा है।
स्वामीजी जीव को चेतावनी देते हैं की यह

…स्वामीजी जीव को चेतावनी देते हैं की यह सब लोचनीय संसार मिथ्या है।यह संसार ,मात्र स्वप्न भर सत्य है किन्तु लगता असली सत्य जैसा जब संसार नश्वर ही है तो अरे मूर्ख तू धन बटोरने में क्यों लगा हुआ है?
केवल एक हरी का नाम ही सत्य है तभी तेरी जब अर्थी जाए गी तब ही तेरे सम्बन्धी "राम नाम सत्य है" बोलेंगे । तेरे जीते जी तुझे भाई बहन माता पिता आदि का रिश्ता ही बताएंगे।
तू एकमात्र बिहारी जी से रिश्ता जोड़ ले जो तेरा साथ अंत तब निभाएं गें।
पद्य 15==-जगत प्रीती करि देखि ही नांही नेग टीकौं कोउ।
छत्रपति रैंक लौं देखे प्रक्रति विरोध बन्यौन नहि कोऊ।।
दिन जो गये बहुत जनमनि के ऐसे जाऊ जिन कोउ।
सुनि श्री हरिदास मीत भले पाए बिहारी ऐसे पाऊ सब कोऊ।।
इस पद्य का 15 अर्थ--भावार्थ --जगत में अपने परिवार वाले, मित्र, परिजन सब से प्रीति कर के देख ली ,कोई अपना नही नजर आया। छोटी सी भूल हुई और नाता टूटा। कोई निस्वार्थी प्रेम करने वाला नही मिला।
रंक से राजा तक सब के सम्बन्ध भिन्न देखे।सभी अपने ही स्वभाव के दास मिले जो की प्रकृति विरोध हैं। ऋषि मुनि अनेक अच्छे -अच्छे मार्ग बता गयें हैं, , जो सब को मालुम भी है ,फिर भी वह अपने स्वभाव अनुसार चलते हैं ,क्योंकि उन की वह प्रकृति (स्वभाव ) बन चुकी है। रावण भली भांति धर्म-अधर्म जानता था परन्तु उस की प्रकृति उस से वही करवा रही थी जो उस का स्वभाव था। सब प्रकृति के आधीन हैं।उसे ज्ञान था की भगवान के सिवा उसे कोई नही मार सक्ता पर उस का स्वभाव उस के आड़े आता था।उस की बुद्धि तर्क देती थी ककि मेरी तामस देह है भजन नही हो पाएगा । दुर्योदन से पूछा गया की तुम्हे धर्म-अधर्म में क्या भेद है , मालुम नही?
उस ने कहा - मुझे मालुम है पर मेरी प्रकृति ही मुझ से अधर्म करवा रही है।मैं उस से अपने आप को पृथक नही कर सकता।उसे लगता था की कोई उस के अंदर छुपा हुआ उस से अधर्म करवा रहा है| स्वामी श्री हरिदास जी जीव को कहते है की बिहारी जी से यह प्रार्थना करो
हे बिहारी जी !कितने जन्म बीत गए लेकिन अब बहुत हो गया। अब आप ने मुझ पर विशेष कृपा की है कि अपने संतों का संग दिया ज
पद्य---16==लोग तो भूलें भले भूलें तुम जिनी भूलो मालाधारी।
अपनौं पति छांडि ओरनिं सौं पति ज्यों दारीं में दारी।।
स्याम कहत ते जीव मोते विमुख भए जिन दूसरि  करि डारी।
कहि श्री हरी दास जग्य देवता ,पितरनि कौं श्रद्धा भारी।
पद्य---16 अर्थ---इस पद्य में स्वामी जी अ-व्यभिचारिणी भक्ति को श्रेष्टा प्रदान की है।वह  माला धारिओं  को चेतावनी देते हुए कहते हैं की साधरण जीवों की भाँती तुम कैसे भूल कर रहे हो .?तुम तो  सामान्य श्रेणी के
.लोगों से ऊँचे  तुम तो यह  मत भूलो।  अपने पति को छोड़ कर एक  दरिनि (व्यभिचारिण या स्वेच्छा चारिन स्त्री ) की भांति पराये पुरुष से रति करती है तुम्हारे को तो दीक्षा रुपी प्रमाण पत्र मिला हुआ है
और तुम्हारे हाथ में माला रहती है।माला धारी संतों का मन चलायमान  नही होता।उन के पग चलतें है पर मन स्थिर है।वह दुसरों के आदर्शों का पालन नही करते।यह सच्चे संत की पहचान है।
जिस का पति सक्षम नही होता उसे भी ऐसा  करना शोभा नही देता परन्तु बिहारी जी तो सक्षम  से भी  अधिक सक्षम हैं। स्वामी जी ने जग्य देवता और पितरन की भारी श्रद्धा रखने के कारण मालाधारी वैष्णवों
को सावधान किया है।उनकी रीति में कर्म काण्ड,विधि -निषेद के झूठे जंजालों से बचने का उपदेश दिया  है। यहाँ पूजा नही , सेवा की जाती है।मानसिक सेवा सब से  शुद्ध मानी जाती है।   श्री कुञ्ज बिहारीजी
 जी को छोड़ कर अतिरिक्त अन्य स्वरूपों में तो प्रेम के साधारण लक्ष्ण भी नही बनते।
दृश्य दर्शन व द्रष्टता तीनो को पार करके केवल प्रियलाल जी ही सर्वत्र हैं।न देवता, न पितर।यह तो वैभव वाले है , आ कर चले जातें
हैं।इनका अंत नित्य नही है।जैसे एक गणिका का अंत समय कोइ साथी नही होता ,वही हाल
नाना  इष्ट उपासकों का होता।बिहरी जी की कृपा हो जाए  तो जन्म -जन्म की सभी पीड़ा समाप्त हो जाये क्युकि बि हारी जी ही निस्वार्थी हैं
पद्य 17------जौंलौं जीवे तौलौं  हरि  भजि रे मन ! और बातें सब बादि।
धौस चारि के हला भला में तू कहा  लेइगौ लादि।।
माया-मद, गुण मद, जोवन मद,भूलयौ नगर-विवादि।
खी श्री हरी दास लोभ चरपट भयौ,काहे की लगै फ़िरादी।
पद्य 17------अर्थ--- रे मन जब  तक तू जीवत है तू हर समय हरी का नाम लेता रह।व्यर्थ के विवादों  में मत पड़।इस से तुम्हे  कुछ नही मिलने वाला। बिहारीजी ही  कृपा कर के नाम  के रूप में जिव्ह्या पर
अवतरित होते रहते हैं।इस चार दिन की हड़बड़ी से जीवन में तू क्या क्या यहाँ से लाद  ले जाएगा।तेरे साथ तो कुछ नही जा पायेगा। केवल एक धर्म हे तेरे साथ जाए गा धनमद,जोबन मद,माया तथा गुण मद ये सब नगर
विवाद इस सृष्टि के विवाद हैं।तू क्यूँ भूल रहा है की मत के गर्भ में जीव माथा नीचे किये आता है और इस संसार में आते  ही मद से  तेरा मस्तक ऊंचा हो जाता है।स्वामी श्री हरी दास जी कहते हैं कि तूं सब कुछ छोड़ कर
बिहारीजी का भजन कर।सब छोड़ कर हरि   भजन करने से ही तेरा लाभ होगा क्यूंकि तब ही तेरे मन के लोभ का  चरपट (नष्ट)  हो गा। जब तेरा लोभ ही नही रहे गा तो तुझे किसी के आगे कुछ भी मांगने की आवश्यकता व इच्छा नही रहे गी  प्रार्थना लोभ बश जीव  करता है।जब तुझे लोभ ही नही हो गा  तो तू अयाची बन जाए गा।फिर प्रार्थना की तुझे अपेक्षा ही नही होगी।इसलिए स्वामी जी जीव को बार -बार यही सलाह दे रहें हैं की रे जीव! तू
लोभ , काम, अहंकार व क्रोध को त्याग कर जब तक तेरी साँसें चल रहीं हैं हरी हरी का
नाम सुमर ले
पद्य 18----प्रेम सनुद्र ,रूप रस गहरे कैसें  लागै घाट .
बेकारयौ दे जान कहावत , जानपन्यौ की कहाँ  परी बाट।।
काहू कौ सर सूघौं  न परत , मारत गाल गली गलि हाट।
कहि  श्री हरी दास  जानि  ठाकुर बिहारी, ताकत ओट पाट।
 पद्य 18---अर्थ ---अष्टादश सिद्धांत के अंतिम पद्य में नित्य आनंद के मूल रस को व्यक्त ल्किया गया है।यदि हमारी बिहारी जी के साथ सच्ची लग्न है तो इस धरा पैर रहते हुए भी हम नित्य आनंद की अपने भीतर में अनुभूति कर सकतें हैं। जिस जीव ने प्रेम  रूप-रस -सागर में दुबकी लगा ली है, केवल वी प्रेम रस की अनुभूति कर सकता है।इस सागर तट को पान बहुत जटिल है क्यूंकि यह अनंत है, अलंघनीय है।वहाँ पन्ह्च कर
जीव की बुद्धि कर्म हीन हो जाती है।भक्ति तो बहुत लोग करतें हैं परन्तु भक्ति का प्रकाश किसी किसी के सौभाग्य में होता है।इस पद्य में स्वामी जी भक्तों को  करते हुए कहते हैं कि प्रेम के सागर में रूप का रस तो भरा हुआ है, परन्तु वहाँ  पार कैसे पंहुचा जाए ? जीव
अपनी इन्द्रियों  को वश किये बिना अपने आप को बहु।यह केवल गुरु कृपा से ही संभव है।
त बड़ा भक्त समझता है।कुछ गिनती की माला जप लीं ,आँखें बंद कर लीं ,कुछ उलटे सीधे शलोक रट लिए, बस बन गया भारी भक्त
लोगों  को  प्रभावित किया, यह सच्ची भक्ति नही है।सच्ची भक्ति में जीव को अपना हृदय शून्य बनाना पड़े गा।तब हे बिहारी जी अपने आप हमारे कमल रुपी हृदय  में प्रवेश करें गे अन्यथा नही।
  गली गली में असंख्य लोग ज्ञान की चर्चा करते देखे गयें हैं, परन्तु खुद उन्ह बातों का आचरण कोइ बिरला ही करता मिले गा।
ऐसे लोगों को सर-सन्धान करना ढंग से आता नही। जब उन का जहाज ही सीधा नही तो सागर को पार कैसे कर सकतें हैं? अथार्त उन का मार्ग ही टेढ़ा है। स्वामी जी कहते हैं कि केवल एक  बिहारी जी ही हैं जो वस्त्र यानी माया की ओट की चिक में से भक्तों के  भीतर देख रहें हैं।अपने सच्चे भक्तों पर वह विशेष कृपा  बरसाते  हैं। ऐसा भाग्यशाली ऊंचे भाव वाला  भक्त उन की कृपा वर्ष का अनुभव करता है और रसिकों की श्रेणी में आ जाता है।तब वह प्रेम समुद्र में गोते लगाने लगता है।बिहारी जी भाव के भूखे हैं।वह यह नही देखते की मेरे भक्त को कितने श्लोक याद हैं , या यह कितना कुशाग्र बुद्धि वाला है।जब तक
जीव अहम से भरे वक्ताओं को सूनता रहे गा ,उसे प्रभु से मिलने की कोइ उम्मीद नही हो सकती।वह केवल प्रेमरस-समुद्र में डूबे पर ही माया के पट से बाहर उसके पार प्रेमरस-सागर मं प्रवेश पातें हैं।दिव्या आनंद रस के घेरे में जाने के लिए मात्र एक छलांग ही  काफी है।


(COURTESY: ASHA BHARDWAJ)






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