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Saturday, March 30, 2019

Sarvottam Stotra / Pakrut Dharm na shay(Krishna stotra.221)

Sarvottam Stotra / Pakrut Dharm na shay(Krishna stotra.221)

 

 https://youtu.be/TpvFlDKrN-M

 

प्राकृत धर्मानाश्रयम प्राकृत निखिल धर्म रूपमिति ।
निगम प्रतिपाद्यमं यत्तच्छुद्धं साकृत सतौमि ॥१॥
कलिकाल तमश्छन्न दृष्टित्वा द्विदुषामपि ।
संप्रत्य विषयस्तस्य माहात्म्यं समभूदभुवि॥२॥
दयया निज माहात्म्यं करिष्यन्प्रकटं हरिः ।
वाण्या यदा तदा स्वास्यं प्रादुर्भूतं चकार हि ॥३॥
तदुक्तमपि दुर्बोधं सुबोधं स्याद्यथा तथा ।
तन्नामाष्टोरतरशतं प्रवक्ष्याम्यखिलाघहृत ॥४॥
ऋषिरग्नि कुमारस्तु नाम्नां छ्न्दो जगत्यसौ ।
श्री कृश्णास्यं देवता च बीजं कारुणिकः प्रभुः ॥५॥
विनियोगो भक्तियोग  प्रतिबंध विनाशने ।
कृष्णाधरामृतास्वादसिद्धिरत्र न संशयः ॥६॥
आनंदः परमानंदः श्रीकृष्णस्यं कृपानिधिः ।
दैवोद्धारप्रयत्नात्मा स्मृतिमात्रार्तिनाशनः ॥७॥
श्री भागवत गूढार्थ प्रकाशन परायणः ।
साकार ब्रह्मवादैक स्थापको वेदपारगः ॥८॥
मायावाद निराकर्ता सर्ववाद निरासकृत ।
भक्तिमार्गाब्जमार्तण्डः स्त्रीशूद्राद्युदधृतिक्षमः ॥९॥
अंगीकृतयैव गोपीशवल्लभीकृतमानवः ।
अंगीकृतौ समर्यादो महाकारुणिको विभुः ॥१०॥
अदेयदानदक्षश्च महोदारचरित्रवान ।
प्राकृतानुकृतिव्याज मोहितासुर मानुषः ॥११॥
वैश्वानरो वल्लभाख्यः सद्रूपो हितकृत्सताम ।
जनशिक्षाकृते कृष्ण भक्तिकृन्न खिलेष्टदः ॥१२॥
सर्वलक्षण सम्पन्नः श्रीकृष्णज्ञानदो गुरुः ।
स्वानन्दतुन्दिलः पद्मदलायतविलोचनः ॥१३॥
कृपादृग्वृष्टिसंहृष्ट दासदासी प्रियः पतिः ।
रोषदृक्पात संप्लुष्टभक्तद्विड भक्त सेवितः ॥१४॥
सुखसेव्यो दुराराध्यो दुर्लभांध्रिसरोरुहः ।
उग्रप्रतापो वाक्सीधु पूरिता शेषसेवकः ॥१५॥
श्री भागवत पीयूष समुद्र मथनक्षमः ।
तत्सारभूत रासस्त्री भाव पूरित विग्रहः ॥१६॥
सान्निध्यम्मात्रदत्तश्रीकृष्णप्रेमा विमुक्तिदः ।
रासलीलैकतात्पर्यः कृपयैतत्कथाप्रदः ॥१७॥
विरहानुभवैकार्थसर्वत्यागोपदेशकः ।
भक्त्याचारोपदेष्टा च कर्ममार्गप्रवर्तकः॥१८॥
यागादौ भक्तिमार्गैक साधनत्वोपदेशकः ।
पूर्णानन्दः पूर्ण्कामो वाक्पतिर्विबुधेश्वरः ॥१९॥
कृष्णनामसहस्त्रस्य वक्ता भक्तपरायणः ।
भक्त्याचारोपदेशार्थ नानावाक्य निरूपकः ॥२०॥
स्वार्थो ज्झिताखिलप्राणप्रियस्तादृशवेष्टितः ।
स्वदासार्थ कृताशेष साधनः सर्वशक्तिधॄक ॥२१॥
भुवि भक्ति प्रचारैककृते स्वान्वयकृत्पिता ।
स्ववंशे स्थापिताशेष स्वमहात्म्यः स्मयापहः ॥२२॥
पतिव्रतापतिः पारलौकिकैहिक दानकृत ।
निगूढहृदयो नन्य भक्तेषु ज्ञापिताशयः ॥२३॥
उपासनादिमार्गाति मुग्ध मोह निवारकः ।
भक्तिमार्गे सर्वमार्ग वैलक्षण्यानुभूतिकृत ॥२४॥
पृथक्शरण मार्गोपदेष्टा श्रीकृष्णहार्दवित ।
प्रतिक्षण निकुंज स्थलीला रस सुपूरितः ॥२५॥
तत्कथाक्षिप्तचितस्त द्विस्मृतन्यो व्रजप्रियः ।
प्रियव्रजस्थितिः पुष्टिलीलाकर्ता रहः प्रियः ॥२६॥
भक्तेच्छापूरकः सर्वाज्ञात  लीलोतिमोहनः।
सर्वासक्तो भक्तमात्रासक्तः पतितपावनः ॥२७॥
स्वयशोगानसंहऋष्ठऋदयाम्भोजविष्टरः ।
यशः पीयूष्लहरीप्लावितान्यरसः परः ॥२८॥
लीलामृतरसार्द्रार्द्रीकृताखिलशरीरभृत ।
गोवर्धनस्थित्युत्साहल्लीला प्रेमपूरितः ॥२९॥
यज्ञभोक्ता यज्ञकर्ता चतुर्वर्ग विशारदः ।
सत्यप्रतिज्ञस्त्रिगुणोतीतो नयविशारदः ॥३०॥
स्वकीर्तिवर्द्धनस्तत्व सूत्रभाष्यप्रदर्शकः ।
मायावादाख्यतूलाग्निर्ब्रह्मवादनिरूपकः ॥३१॥
अप्राकृताखिलाकल्प भूषितः सहजस्मितः ।
त्रिलोकीभूषणं भूमिभाग्यं सहजसुन्दरः ॥३२॥
अशेषभक्त संप्रार्थ्य चरणाब्ज रजोधनः ।
इत्यानंद निधेः प्रोक्तां नाम्नामष्टोत्तरं शतम ॥३३॥
श्रृद्धाविशुद्ध बुद्धिर्यः पठत्यनुदिनं जनः ।
स तदेकमनाः सिद्धिमुक्तां प्राप्नोत्यसंशयम ॥३४॥
तदप्राप्तौ वृथा मोक्ष स्तदप्तौतदगतार्थता ।
अतः सर्वोत्तमं स्तोत्रं जप्यं कृष्ण रसार्थिभिः ॥३५॥
॥ इति श्रीमदग्निकुमारप्रोक्तं श्री सर्वोत्तमस्तोत्रं सम्पूर्णम ॥

 https://youtu.be/i0UeW9n7R_8

Shree Krushnashray(krishna stotra.220)

Shree Krushnashray(krishna stotra.220)

 

https://youtu.be/NgIAAGFkpUc


सर्वमार्गेषु नष्टेषु कलौ च खलधर्मिणि।
पाषण्डप्रचुरे लोके कृष्ण एव गतिर्मम॥ (१)
भावार्थ : हे प्रभु! कलियुग में धर्म के सभी रास्ते बन्द हो गए हैं, और दुष्ट लोग धर्माधिकारी बन गये हैं, संसार में पाखंड व्याप्त है, इसलिए केवल आप भगवान श्रीकृष्ण ही मेरे आश्रय हों। (१)
म्लेच्छाक्रान्तेषु देशेषु पापैकनिलयेषु च।
सत्पीडाव्यग्रलोकेषु कृष्ण एव गतिर्मम॥ (२)
भावार्थ : हे प्रभु! देश में दुष्ट लोगों का भय व्याप्त है और सभी लोग पाप कर्मों में लिप्त हैं, संसार में संत लोग अत्यन्त पीड़ित हैं, इसलिए केवल आप भगवान श्रीकृष्ण ही मेरे आश्रय हों। (२)
गंगादितीर्थवर्येषु दुष्टैरेवावृतेष्विह।
तिरोहिताधिदेवेषु कृष्ण एव गतिर्मम॥ (३)
भावार्थ : हे प्रभु! गंगा आदि प्रमुख नदियों पर स्थित तीर्थों का भी दुष्ट प्रवृत्ति के लोगों ने अतिक्रमण कर लिया हैं और सभी देवस्थान लुप्त होते जा रहें हैं, इसलिए केवल आप भगवान श्रीकृष्ण ही मेरे आश्रय हों। (३)
अहंकारविमूढेषु सत्सु पापानुवर्तिषु।
लोभपूजार्थयत्नेषु कृष्ण एव गतिर्मम॥ (४)
भावार्थ : हे प्रभु! अहंकार से ग्रसित होकर संतजन भी पाप-कर्म का अनुसरण कर रहे हैं और लोभ के वश में होकर ही ईश्वर की पूजा करते हैं, इसलिए केवल आप भगवान श्रीकृष्ण ही मेरे आश्रय हों। (४)
अपरिज्ञाननष्टेषु मन्त्रेष्वव्रतयोगिषु।
तिरोहितार्थवेदेषु कृष्ण एव गतिर्मम॥ (५)
भावार्थ : हे प्रभु! वास्तविक ज्ञान लुप्त हो गया है, योग में स्थित व्यक्ति भी वैदिक मन्त्रों का ठीक प्रकार से उच्चारण नहीं करते हैं और व्रत नियमों का उचित प्रकार से पालन भी नहीं करते हैं, वेदों का सही अर्थ लुप्त होता जा रहा है, इसलिए केवल आप भगवान श्रीकृष्ण ही मेरे आश्रय हों। (५)
नानावादविनष्टेषु सर्वकर्मव्रतादिषु।
पाषण्डैकप्रयत्नेषु कृष्ण एव गतिर्मम॥ (६)
 
भावार्थ : हे प्रभु! अनेकों प्रकार की विधियों के कारण सभी प्रकार के व्रत आदि उचित कर्म नष्ट हो रहें है, पाखंडता पूर्वक कर्मों का ही आचरण किया जा रहा है, इसलिए केवल आप भगवान श्रीकृष्ण ही मेरे आश्रय हों। (६)
अजामिलादिदोषाणां नाशकोऽनुभवे स्थितः।
ज्ञापिताखिलमाहात्म्यः कृष्ण एव गतिर्मम॥ (७)
भावार्थ : हे प्रभु! आपका नाम अजामिल आदि जैसे दुष्ट व्यक्तियों के दोषों का नाश करने वाला है, ऐसा अनुभवी संतो द्वारा गाया गया है, अब मैं आपके संपूर्ण माहात्म्य को जान गया हूँ, इसलिए केवल आप भगवान श्रीकृष्ण ही मेरे आश्रय हों। (७)
प्राकृताः सकल देवा गणितानन्दकं बृहत्।
पूर्णानन्दो हरिस्तस्मात्कृष्ण एव गतिर्मम॥ (८)
भावार्थ : हे प्रभु! समस्त देवतागण भी प्रकृति के अधीन हैं, इस विराट जगत का सुख भी सीमित ही है, केवल आप ही समस्त कष्टों को हरने वाले हैं और पूर्ण आनंद प्रदान करने वाले हैं, इसलिए केवल आप भगवान श्रीकृष्ण ही मेरे आश्रय हों। (८)
विवेकधैर्यभक्त्यादिरहितस्य विशेषतः।
पापासक्तस्य दीनस्य कृष्ण एव गतिर्मम॥ (९)
भावार्थ : हे प्रभु! मुझमें सत्य को जानने की सामर्थ्य नहीं है, धैर्य धारण करने की शक्ति नहीं है, आप की भक्ति आदि से रहित हूँ और विशेष रूप से पाप में आसक्त मन वाले मुझ दीनहीन के लिए केवल आप भगवान श्रीकृष्ण ही मेरे आश्रय हों। (९)
सर्वसामर्थ्यसहितः सर्वत्रैवाखिलार्थकृत्।
शरणस्थमुद्धारं कृष्णं विज्ञापयाम्यहम्॥ (१०)
भावार्थ : हे प्रभु! आप ही सभी प्रकार से सामर्थ्यवान हैं, आप ही सभी प्रकार की मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं और आप ही शरण में आये हुए जीवों का उद्धार करने वाले हैं इसलिए मैं भगवान श्रीकृष्ण की वंदना करता हूँ। (१०)
कृष्णाश्रयमिदं स्तोत्रं यः पठेत्कृष्णसन्निधौ।
तस्याश्रयो भवेत्कृष्ण इति श्रीवल्लभोऽब्रवीत्॥ (११)
भावार्थ : भगवान श्रीकृष्ण के आश्रय में रहकर और उनकी मूर्ति के सामने जो इस स्तोत्र का पाठ करता है उसके आश्रय श्रीकृष्ण हो जाते हैं, ऐसा श्रीवल्लभाचार्य जी के द्वारा कहा गया है। (११)
॥ इति श्री वल्लभाचार्यविरचितः कृष्णाश्रय सम्पूर्णः ॥


 https://youtu.be/JIO43NzOJ28



https://youtu.be/9STUujpAzHA